Maurya Samrajya Aur Samajik Jeevan वर्णाश्रम व्यवस्था पर ही आधारित था। कौटिल्य ने वर्णाश्रम व्यवस्था के महत्व को बताते हुए वर्णाश्रम व्यवस्था की रक्षा को राजा के कर्तव्य से जोड़ा, इन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के कार्यों को अलग-अलग निर्धारित किया।
मौर्यकाल में समाज व्यवसाय के आधार पर अलग -अलग श्रेणियों में बंटा हुआ था, यह श्रेणियां दार्शनिक, किसान, शिकारी ,पशुपालक, शिल्पी, कारीगर, योद्धा, निरीक्षक एवं गुप्तचर तथा अमात्य और सभासद थीं। इस दौरान अधिकतर लोगों का व्यवसाय कृषि था।
मौर्यकालीन कला कला, मौर्यकालीन संस्कृति का अभिन्न अंग है। मौर्यकाल में कला के प्रत्येक क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई थी। इतिहासकारों ने मौर्यकालीन कला को राजकीय एवं लोक कला में विभाजित किया है। मौर्य कालीन नगर राजमहल, स्तूप, स्तंभ, गुफाएँ, मूर्तियाँ राजकीय कला के अंतर्गत आते हैं। यक्ष मूर्तियाँ, पशु एवं पक्षियों की मूर्तियाँ आदि लोककला का हिस्सा है।
राजधानी एवं नगर मौर्यकाल में पाटलीपुत्र, श्रीनगर, ललितपट्टन (नेपाल), देवपालन (नेपाल) आदि नगरों की स्थापना हुई। पाटलिपुत्र मौर्य साम्राज्य की राजधानी थी और यहाँ के नगर नियोजन एवं राजप्रसादों का उल्लेख यूनानी लेखकों ने किया है। इसके साथ ही वर्तमान पटना के पास बुलन्दीबाग एवं कुम्रहार के उत्खनन से महत्वपूर्ण अवशेष मिले हैं, जिनसे यूनानी लेखकों के प्रसंगों की साम्यता स्थापित होती है।
पाटलिपुत्र की लम्बाई 80 स्टेडिया तथा चौड़ाई 18 स्टेडिया है। नगर के चारों ओर 700 फीट चौड़ी एवं 30 फुट गहरी खाई है तथा नगर लकड़ी की एक चहार दीवारी से घिरा है, जिसमें बाण चलाने के लिये छिद्र बने हैं। इस दीवार में 570 बुर्ज एवं 64 द्वार है। समानान्तर चतुभुर्ज के आकार का यह नगर सोन एवं गंगा नदियों पर बसा हुआ था।
राजधानी पाटलिपुत्र में अशोक द्वारा निर्मित राजप्रसाद के अवशेष 1813 ईस्वी में पटना के पास कुम्रहार से उत्खनन प्राप्त किये। जिसमे एक विशाल ’सभा कक्ष’ मिला था, जिसकी छत 80 पाषाण स्तम्भों पर टिकी हुई थी। इस विशाल ’सभा कक्ष’ की छत एवं फर्श काष्ठ से निर्मित थी। इस सभा भवन की लम्बाई 140 फुट एवं चौड़ाई 120 फुट थी। स्तम्भों पर चमकदार पालिश मिली है।
स्तम्भ
Maurya Samrajya Aur Samajik Jeevan में मौर्यकालीन कला की उत्कृष्ट कृति स्तम्भ है। स्तम्भों का निर्माण, इनकी पोलिश एवं इन पर उत्तम कला उत्कीर्णन, इन्हें सर्वश्रेष्ठ बना देता है। अशोक ने अनेक स्तम्भ स्थापित करवाये थे। ऐसे छः स्तम्भ फाह्यान एवं पंद्रह स्तम्भ हृनसांग ने देखे थे। अशोक ने ऐसे 30 स्तम्भों का निर्माण करवाया जिसकी लम्बाई 40 से 50 फुट की है। स्तम्भों का वजन लगभग 50 टन का है।
स्तम्भों का निर्माण चुनार (आधुनिक मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश) के ’लाल बलुआ’ पत्थरों से किया गया था। कतिपय स्तम्भों का निर्माण मथुरा की पहाड़ियों से लाये गये ’लाल बलुआ’ पत्थरों से किया गया था। मौर्यकालीन सभी स्तम्भ ’एकाश्मक’ (मोनोलिथिक) है। अशोक 10 स्तम्भ लेख युक्ततथा 4 लेख विहीन मिले हैं।
लेखयुक्त स्तम्भ – प्रयाग स्तम्भ, दिल्ली टोपरा स्तम्भ, दिल्ली स्तम्भ, रूमिन्देई स्तम्भ, प्रयाग स्तम्भ, सारनाथ स्तम्भ, साँची स्तम्भ रामपुरवा स्तम्भ, लौरिया नन्दनगढ़ स्तम्भ, लौरिया अरराज स्तम्भ एवं लेख विहीन स्तम्भ – कौशाम्बी स्तम्भ, रामपुरवा स्तम्भ, वैशाली स्तम्भ, संकिसा स्तम्भ है। अशोक के स्तम्भों के चार भाग है। दंड, कमलाकृति शीर्ष, फलक और सर्वोच्च पशुमूर्ति।
दंड दंड को यष्टि, लाट या तना भी इतिहासकारों ने कहा है। यह भाग पूर्णतः एकाश्मक है। ये दंड बिना किसी पीठिका के सहारे जमीन में सीधे खड़े किये गये हैं। दंड नीचे से ऊपर की ओर बड़े ही नियंत्रित ढंग से पतले होते गये हैं, इनकी आकृति गोल है। स्तम्भ के इस दंड भाग पर चमकदार ओपदार पॉलिश की गयी। समस्त दंडों की औसत ऊँचाई लगभग 32 फुट है।
कमलाकृति शीर्ष
कमलाकृति शीर्ष दंड के ऊपर दूसरे पत्थर को जोड़कर निर्मित की गयी है। किन्तु किस पदार्थ या धातु से जोड़ा है, वह आज तक स्पष्ट नहीं हो सका है। शीर्ष भाग में कमलशीर्ष फलक एवं सर्वोच्च पशुमूर्ति विद्यमान है। स्तम्भों में सीधे दंड पर बनी हुई पंखुड़ियों सहित वर्तुल कमल आकृति बड़ी मनोहर है। इनमें पंखुड़ियाँ लंबी, नुकीले सिरे वाली है। इनके किनारे उठे हुए है। सभी स्तम्भों में पंखुड़ियों का लगभग एक जैसा नियमित अंकन है। कमलशीर्ष के ऊपरी भाग पर, पद्मबंध के किनारों के ऊपर फलक का भाग प्रारंभ होता था।
फलक
कमलशीर्ष के ऊपर सर्वोच्च पशुमूर्ति की पीठिका के रूप में फलक का विधान किया गया था। प्रारम्भ में फलक चौकोर बनाये गये बाद में विकसित होकर फलक गोल आकृति के अलंकरण युक्त बनने लगे।
शीर्षस्थ पशु मूर्तियाँ
स्तम्भों के सर्वोच्च भाग में पशु मूर्तियाँ प्रतिष्ठित है। शीर्षस्थ पशु मूर्तियों में सिंह, वृषभ, गज, अश्व पशुओं की मूर्तियाँ मिलती है। प्रमुख शीर्षस्थ पशु मुर्तियाँ स्तम्भ है – सारनाथ का चतुर्सिंह स्तम्भ, साँची का चतुर्सिंह स्तम्भ, लौरिया नन्दनगढ़ सिंह शीर्ष स्तम्भ, रामपुरवा सिंह शीर्ष स्तम्भ, बसाढ़ सिंह शीर्ष स्तम्भ, रामपुरवा वृषभ शीर्ष, संकिशा गजशीर्ष स्तम्भ, शीर्षस्थ पशु मूर्ति स्तम्भों में सारनाथ स्तम्भ कला की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
स्तूप
स्तूप, मौर्यकला के महत्वपूर्ण अंग है। मौर्यकाल में अशोक के शासनकाल में बहुत बड़ी संख्या में स्तूपों के निर्माण हुआ। बौद्ध ग्रंथों से ज्ञात होता है कि, अशोक ने 84000 स्तूपों का निर्माण करवाया था। स्तूप का शाब्दिक अर्थ ’थूहा’ अथवा ’ढेर’ है। प्राकृत भाषा में स्तूप के लिए ’थूप’ शब्द का प्रयोग मिलता है। स्तूप का प्राचीनतम् साहित्यिक प्रमाण ’ऋग्वेद’ में मिलता है। यजुर्वेद एवं शतपथ ब्राह्मण में भी स्तूप का उल्लेख मिलता है।
बौद्ध ग्रंथ महापरिनिर्वाण सूत्र मे उल्लेख मिलता है कि ’’महात्मा बुद्ध ने स्वयं अपने शिष्य आनन्द से कहा था कि, मेरी मृत्यु के बाद मेरे अवशेषों पर उसी प्रकार का स्तूप बनाया जाये जिस प्रकार चक्रवर्ती सम्राटों के अवशेषों पर बनाये जाते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि, बुद्ध के जीवन से पहले भी स्तूप विद्यमान थे।
अशोक के शासनकाल में बने स्तूपों में साँची का स्तूप सर्वाधिक प्रसिद्ध है। वर्तमान में साँची का स्तूप जिला रायसेन (मध्यप्रदेश) में स्थित है। साँची को मौर्यकाल में ’वेदिसगिरि’ और ’चेतियगिरि’ कहा जाता था। साँची का स्तूप नं. 01, जिसे ’महास्तूप’ भी कहा जाता है, अशोक के शासनकाल में बना। इसके बाद यहाँ समय-समय पर स्तूप के आकार-प्रकार, अलंकरण आदि में परिवर्तन एवं परिवर्द्धन होते रहे।
शुंग-सातवाहन काल में स्तूप के अण्ड भाग पर प्लास्टर किया गया। स्तूप के दक्षिणी तोरण द्वार का निर्माण उस पर उत्कीर्ण एक लेखानुसार सातकर्णी-द्वितीय के समय हुआ। गुप्तकाल में इस स्तूप के समीप अनेक छोटे-छोटे स्तूप निर्मित हुए। प्रतिहार परमार आदि राजवंशों के शासनकाल में भी यहाँ अनेक गतिविधियाँ संपन्न हुई। मौर्यकाल में स्तूप के निर्माण में ईंटों का प्रयोग किया गया था। यह स्तूप वर्तमान सतह से चार फीट नीचे मौर्यकाल में बनाया गया था।
अशोक के समय इस स्तूप का व्यास 60 फीट था, स्तूप के निर्माण में पकी हुई ईंटो का प्रयोग किया गया था जिनका आकार 16’’×10’’×3’’ है। भू-वेदिका, मेधि, अण्ड हर्मिका छत्र, यष्टि, आदि स्तूप की संरचना के वास्तु अंग है। साँची स्तूप का विकसित स्वरुप शुंग-सातवाहन काल में उभरकर आया। स्तूप की वेदिका और तोरणों की शिलाओं पर दान दाताओं के नाम भी उत्कीर्ण मिलते है, जिनमें अधिकांशतः आलेख शुंग कालीन ब्राह्मी लक्षणों से मेल खाते है।
स्तूप के वास्तु अंगों का विवरण
भू-वेदिका
स्तूप के चतुर्दिक भू-वेदिका का निर्माण किया गया है। यह अण्ड के व्यास से अधिक व्यास का है। अण्ड और भू-वेदिका के बीच एक निश्चित दूरी है, जो संभवतः प्रदक्षिणा पथ के रुप में प्रयुक्त की जाती थी। भू वेदिका के निर्माण में आलंबन, स्तम्भ, सूची और ऊष्णीस नामक वास्तु अंगो का उपयोग किया गया है। यह वास्तु अंग पाषाण से निर्मित है। अशोक के समय भू-वेदिका लकड़ियों से निर्मित की गयी थी।
मेधि (मध्य – वेदिका) मेधि का निर्माण स्तूप की ऊँचाई के मध्य में किया गया है। इसके निर्माण में भी भू-वेदिका की तकनीक और सामग्री का प्रयोग किया गया है। मेधि और अण्ड के बीच में पुनः एक निश्चित दूरी प्रदक्षिणा पथ हेतु छोड़ी गयी है। मेधि पर जाने के लिए स्तूप के धरातक से वर्तमान में दक्षिणी तोरण द्वार की तरफ में मेधि तक पहुचने के लिए सोपान निर्मित हैं।
अण्ड
स्तूप का प्रमुख वास्तु अंग, जो सूर्य के प्रतीक के रुप में बुद्ध का प्रतिनिधित्व करता हैं, अण्ड के नाम से जाना जाता है। मौर्यकाल में इसके निर्माण में ईंटों का प्रयोग किया गया था, जिस पर शुंगकाल में एक इंच मोटा प्लास्टर किया गया। यह अर्द्धवृताकार या अर्द्धचन्द्राकार है।
हर्मिका
स्तूप के शीर्ष भाग पर वर्गाकार हर्मिका निर्मित है, जिसके निर्माण में स्तम्भ, सूची और ऊष्णीश का विधान है। भू-वेदिका, मेधि और हर्मिका में तीन-तीन सूचीयॉं आड़ी दिशा में लगायी गयी है। स्तम्भों में सूची की चौड़ाई के आकार का छेद काटकर सूचियों को उनमें फंसाया गया है परंतु यहाँ आलंबन का विधान नहीं है क्योंकि इसका विधान स्तूप के शीर्ष पर उलान होने के कारण संतुलन की दृष्टि से उपयुक्त नहीं था जबकि भू-वेदिका और मेधि में जो स्तम्भ लेगे हैं, उन्हें आलंबन शिला में कटाव करके फंसाया गया है।
यष्टि एवं छत्र
स्तूप के शीर्ष पर निर्मित हर्मिका के केन्द्र बिन्दु में पाषाण निर्मित यष्टि (दण्ड) आरोपित है जिसमें तीन छत्र नीचे से ऊपर की तरफ घटते क्रम में लगाये गये है। ये तीनों छत्र क्रमशः बुद्ध, धर्म, संघ का प्रतिनिधित्व करते है। यष्टि बुद्ध की स्थिरता और उनके मत की अमरता का द्योतक है। छत्र यष्टि के माध्यम से स्तूप वास्तु में सम्भवतः यह परिकल्पना भी की गयी है कि बुद्ध या उसका ज्ञान आकाश की विशालता जैसे गुणों से निहित हैं, क्योंकि बौद्ध साहित्य में बुद्ध को सूर्यवंशीय बताया गया हैं।
तोरण द्वार
तोरण अर्थात द्वार के निर्माण में स्तंभ, बड़ेरियाँ, सूचियाँ आदि वास्तु अंगों का प्रयोग किया गया है। ये पत्थर से निर्मित है। तोरण द्वारों में दो स्तंभों पर तीन बड़ेरियॉं लगायी गयी हैं, बड़ेरियों पर बुद्ध की जातक कथाओं, उनके जीवन दृश्यों एवं आलंकारिक अभिप्रायों को अंकित किया गया है। बड़ेरियों के दोनों किनारों पर चक्रपुंज बनाए गए है। तोरण-द्वार में बड़ेरियों को एक-दूसरे से अलग करने के लिए तीन-तीन सूचियॉं ऊपर से नीचे लगायी गयी है।
विहार एवं शैलोत्कीर्ण गुफाएँ
मौर्यकाल में अशोक एवं उसके उत्तराधिकारियों ने अनेक बौद्ध विहार एवं शैलोत्कीर्ण गुफाओं का निर्माण करवाया था। बुद्धघोष द्वारा रचित बौद्ध ग्रंथ ’सुमंगलविलासिनी’ से ज्ञात है कि, अशोक ने 84000 विहार बनवाये थे। बौद्ध विहारों का निर्माण बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिए करवाया जाता था। मौर्यकाल में शैलोत्कीर्ण गुहा कला का श्री गणेश अशोक ने ही किया था।
अशोक एवं उसके पौत्र दशरथ ने बौद्ध भिक्षुओं एवं आजीविक सम्प्रदाय के भिक्षुओं के निवास करने के लिए बराबर एवं नागार्जुनी की पहाड़ियों की चट्टानों को काटकर गुफाओं का निर्माण करवाया था। चार गुफाएँ बराबर तथा तीन गुफाएँ नागार्जुनी पहाड़ी पर उत्कीर्ण है। इन सात गुफाओं को सामूहिक रूप से ’सतघर’ कहा जाता है। इन गुफाओं के अलंकरण ’काष्ठकला’ से प्रभावित है। गुफाओं की छत एवं दीवारो पर ओपदार चमकीली पॉलिश की गयी है।
बराबर की पहाड़ी पर अशोक द्वारा निर्मित सुदामा की गुफा, कर्ण चौपड़ गुफा, विश्व झोपड़ी एवं दशरथ द्वारा निर्मित लोमश ऋषि की गुफा अपने अलंकरण एवं वास्तु विम्ब के कारण प्रसिद्ध है। नागार्जुनी गुफाओं का निर्माण मौर्य सम्राट दशरथ ने करवाया था। इनके नाम गोपी गुफा, वापि गुफा एवं पदथिक गुफा है।
लोक कला
मौर्यकाल की कला में लोक कला का भी प्रमुख स्थान है। लोक कला, आम जनता के लोक जीवन की कल्पनाशीलता एवं सृजनशीलता का साकार रूप था। मौर्यकालीन लोक कला में प्रमुखतः यक्ष – यक्षिणियाँ एवं पशुओं की मूर्तियाँ प्राप्त हुई है। यक्ष मूर्तियाँ विशालकाय, बलिष्ट और मांसल की निर्मित है।
यक्ष मूर्तियाँ कुरूक्षेत्र, राजघाट (वाराणसी), पटना, पद्मावती (ग्वालियर), मथुरा, नोह (भरतपुर), सोपारा आदि स्थानों से तथा यक्षिणी मूर्तियाँ दीदारगंज (पटना), झींग का नगला (मथुरा) बेसनगर (विदिशा), मेहरौली आदि स्थानों से प्राप्त हुई है।
मौर्यकालीन लोककला के अंतर्गत मृण्मूर्तियाँ अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। इन मूर्तियों को आग में अच्छी तरह पकाया गया था। बसाढ़, मथुरा, बुलंदीबाग, कुम्हरार, मथुरा, सारनाथ, भीटा आदि स्थलों से बहुत बड़ी संख्या में मृण्मूर्तियाँ प्राप्त हुई है।
भारत के प्रथम सार्वभौमिक साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य ने देश पहली बार राजनैतिक एकता स्थापित की। मौर्य साम्राज्य ने अपने 137 वर्षीय सुदीर्घ शासनकाल में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, भाषा, शिक्षा, साहित्य एवं कला आदि सभी क्षेत्रों में सुदृढ़ साँस्कृतिक प्रतिमान स्थापित किये। अशोक के सामाजिक – धार्मिक कृत्यों से वर्ण व्यवस्था लचीली हुई और धार्मिक सहिष्णुता एवं समन्वय की स्थापना हुई।
बौद्ध धर्म का अभूतपूर्व विकास हुआ। पाली (प्राकृत) भाषा को राजकीय संरक्षण मिलने से इस भाषा का सर्वांगीण विकास हुआ। मौर्यकाल में राजनीतिक एकता स्थापित हो जाने से भी आर्थिक विकास तेजी से हुआ। कला के प्रत्येक क्षेत्र में कालजयी कृतियों का सृजन हुआ। इस प्रकार मौर्यकाल महान् साँस्कृतिक गतिविधियों का काल था।