माँ भारती की वाणी के पुरोधा भाषाचार्य Mahamanav Shri Gunsagar Satyarthi की सांसो मे है बुंदेली, वो कहते भी हैं कि आदिम राग है बुंदेली। परमात्मा की वाणी है बुंदेली। बुंदेली अनादि काल से चली आ रही है जब हिमालय नहीं था तब भी बुंदेली थी।
बुंदेली के आचार्य प्रवर पण्डित गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’ जी
हालांकि मैं वर्षों से उन्हें जानता रहा किंतु यह मेरा दुर्भाग्य है कि उन्हें मानने का, आत्मसात करने का सुअवसर पिछले एक साल से मिला। उनसे बात करना, उनको सुनना ऐसा लगता है जैसे हम किसी देवपुरुष से ज्ञान कथा सुन रहे हैं । किसी महामानव जैसा है उनका व्यक्तित्व। उनका भाषाई ज्ञान , कलाओं के प्रति अटूट समर्पण और बुंदेली के प्रति जो ममत्व है, जो अपनत्व है वह असाधारण है।
बुंदेली का उद्भव, क्रमिक विकास ,उसका व्याकरण और उसकी जो ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है, परंपरा है, उसकी जो सांस्कृतिक विरासत है, धरोहर है… जब इसे परमश्रद्धेय पंडित गुणसागर शर्मा सत्यार्थी जी जब बताते हैं, जब सुनाते हैं तो ऐसा लगता है जैसे हम किसी बुंदेली के स्वर्णयुग में जी रहे हों।
हालाँकि बहुत सारे लोग उनके आलोचक हैं। होना भी चाहिए। किंतु आलोचना शास्त्र का एक सिद्धांत है कि वह है किसी सार्थक – समर्थ व समृद्ध रचना के प्रति , सृजनधर्मा की उपलब्धियों की व्याख्या करते हुए उसकी न्यूनतम को इंगित करना। लेकिन ऐसा होता नहीं है । अब आलोचना का अर्थ है व्यक्ति के निजी जीवन में झांकना, निजी न्यूनतम को उजागर करना और अपनी अधकचरी मान्यताओं को आलोच्य व्यक्ति और उसके साहित्य के ऊपर धोप देना। दबदबा बनाते हुए उसे अपदस्थ करने के भी अनेक उदाहरण हमारे यहाँ मौजूद हैं।
यह आलोचना , आलोचना नहीं निंदा करना है। आलोचना शास्त्री डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल को अब कितने लोग पढ़ते हैं ..? कितने लोग वर्तमान के नामवर आलोचक डा.नामवर सिंह को पढ़ते हुए आलोचना के मर्म को जीते हैं । किताबें खरीदने से सोशल मीडिया पर उनकी फोटो डालने से कोई आलोचना शास्त्री नहीं बनता न ही प्रखर आलोचक कोई डॉक्टर रामविलास शर्मा बन जाता है और न कोई बमपंथी हो जाता है और न कोई दक्षिणपंथी ।
किताबें पढ़ने भर से हमारे ज्ञान में वृद्धि तो होती है यह बिल्कुल अकाट्य सत्य है किंतु इसके साथ ही उस ज्ञान को जीवन में उतार कर जीने की जब सिद्धता आती है तब वह ज्ञान हमें परिष्कृत करता है, प्रांजल करता है, प्रतिष्ठित करता है । ऐसे ही प्रतिष्ठित – प्रांजल आल्हादिक व्यक्तित्व का नाम है पण्डित गुणसागर शर्मा सत्यार्थी ।
उन्होंने जब पहली बार अपनी आंँखें खोलीं ..जब पहली बार किलकारी भरी तब से ही अपने पूर्वजों से राष्ट्रीय जीवन संस्कारों की चेतना, जीवनमूल्यों की घुट्टी पी – पी कर अपने को अपने बुंदेली के प्रति बलिष्ठ बनाया, समर्थ बनाया और 2 दर्जन से अधिक बुंदेली साहित्य में दुर्लभ ग्रंथों की संरचना की। संस्कृत साहित्य के अत्यंत महत्वपूर्ण महाकाव्य मेघदूतम का पद्यानुवाद ही नहीं भावानुवाद बुंदेली में करने का ऐतिहासिक कार्य किया जो उनकी विद्वता, बहुभाषिकता होने का प्रमाण है।
महाकवि कालिदास के मेघदूतम का जो बुंदेली अनुवाद पं. गुणसागर शर्मा सत्यार्थी जी ने किया है वह बुंदेली के इतिहास में मील का पत्थर है । अद्भुत, अप्रितम और मौलिक है। किसी संस्कृत महाकाव्य का यह पहला मौलिक बुंदेली भावानुवाद है। आज हम बुंदेली की अनेक विधाओं में जिस तरह का सृजन देखते हैं , जिस तरह की रचनाएँ पढ़ते हैं , उनमें केवल और केवल अभिधा – अभिधा – अभिधा ही दृष्टि गत होती है। लक्षणा और व्यंजना प्रायः अनुपस्थित हैं। मैं न तो बुंदेली का जानकर हूँ और न ही बुंदेली का का कवि ..।
हाँ ! बुंदेली की पाठशाला एक छोटा – सा विद्यार्थी अवश्य हूँ। थोड़ी – बहुत खड़ी बोली जानता हूँ। लेकिन एक रुचि है बुंदेली जानने की , समझने की , बुंदेली साहित्य को पढ़ने की , उससे कुछ सीखने की। बस उसी के नाते यह सब बातें कह रहा हूँ ।
जब हम पं. गुणसागर सत्यार्थी जी की बुंदेली सुनते हैं, पढ़ते हैं, मेघदूतम के भावानुवाद को पढ़ते हैं तब हमें बुंदेली की जो लोच है, लचक है, जो लावण्य है, लालिमा और लालित्य है अपनी ओर खींच लेता है…बाँध लेता है…बुंदेली से संपृक्त कर देता है, जीवंत कर देता है। एक सौंदर्यबोधी संसार हमारे प्राणों में जाग उठता है …जो सुरम्य है…मनोहारी है।
आज जब ऐसी परिष्कृत बुंदेली और बुंदेली के विद्वान वैमनस्यता व राजनैतिक हस्तक्षेप से उपेक्षित कर दिए जाते हैं , उनका अनादर किया जाता है तब भाषाएँ मरने लगतीं हैं । भाषा का वट वृक्ष ठूँठ होने लगता है । भाषा की जो सदानीरा है वह पथराने लगती है।
काश ! हम आज के बुंदेली की पहरुए इस दिशा में कुछ सोचें । हमारी बुंदेली के जो प्राचीन साहित्यकार हैं, रचनाकार हैं । 9 वीं शताब्दी से लेकर आज तक जो बुंदेली का सृजन कर रहे हैं। उस सृजन में बहुत कुछ है श्रेष्ठ है वरेण्य है , श्रेयस्कर है । हमें उसको समृद्व करते हुए उन साधकों को, उनकी ऐतिहासिकता को समाज में पुनःप्रतिष्ठा देने के कार्य करें तो शायद यह बुंदेली की जो अपनी परंपरा है सुरक्षित बनी रहेगी।
सत्यार्थी जी कहते हैं यूं तो बुंदेली अनादि काल से चली आ रही है जब हिमालय नहीं था तब भी बुंदेली थी। आदिम राग है बुंदेली । परमात्मा की वाणी है बुंदेली। इस सोच का अर्थ केवल और केवल यही है कि बुंदेली देश की ही नहीं अपितु विश्व की सर्वश्रेष्ठ माधुर्यपूर्ण भाषाओं में एक है।
आज अनेक कारणों से बुंदेली का साहित्य, बुंदेली की कलाएँ , बुंदेली की लोकजीवनी संस्कृति उपेक्षित है। कहीं – कहीं धूल – धूषित है , कहीं – कहीं अनुपस्थित होती जा रही है। उन सभी को समृद्ध करने का , उनको संवर्धन देने का काम यदि हम सभी करते हैं तो निसंदेह गुणसागर जी जैसे विद्वानों की प्राणपीड़ा कुछ कम होगी। वे प्रसन्नता अनुभव करेंगे।
आदरणीय सत्यार्थी जी अब कगार के पेड़ हैं । उम्र के आखिरी पायदान पर खड़े हैं। उन्हें कुछ संतोष होगा। उनके मन में सुख की एक किरण जागेगी। उन्होंने छंद शास्त्र से लेकर बुंदेली की अनेक विधाओं में सृजन किया है । कहानियाँ लिखीं, उपन्यास लिखे , चंपू लिखे , गीत लिखे , फिल्में बनायीं, नाट्य मंचन किया। क्या – क्या नहीं किया उन्होंने बुंदेली के लिए।
ऐसे परमविद्वान पं.गुणसागर शर्मा सत्यार्थी जी का अत्यंत चर्चित उपन्यास “एक थी राय प्रवीण” औरछा की राजनृतकी राय प्रवीण की जीवनी को लेकर प्रकाशित हुआ है। यह उपन्यास वर्तमान साहित्य में एक ऐसी अमर कृति होकर आई है जिसने राय प्रवीण के चरित्र को प्रोज्ज्वल किया है। जिसे कुछ लोगों ने एक नचनिया या वेश्या जैसा चित्रित किया था। उस नचनिया और कोठेवाली के गुमनाम – बदनाम संबोधन को नकारते हुए उसके उज्ज्वल चरित्र को समाज के समक्ष प्रस्तुत करके ऐतिहासिक भूल को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
बुंदेली के आचार्य आदरणीय सत्यार्थी जी उम्र के उस पायदान पर खड़े हैं जहाँ कोई भी आवारा हवा का झकोरा उनके शरीर को हिला सकता है , गिरा सकता है लेकिन उनकी जो मानस बौद्धिक संपदा है , उनकी जो सांस्कृतिक निधि है , उनका जो बौराया प्रफुल्लित मन – प्राण है वह शाश्वत है , अमर है।
माँ भारती की वाणी के पुरोधा भाषाचार्य पंडित गुणसागर शर्मा सत्यार्थी जी को सादर प्रणाम।
आलेख- डा.रामशंकर भारती