बुंदेलखण्ड के कालिदास : “कालीकवि” महाकवि पं.कालीदत्त नागर बुंदेखण्ड की परम पावन माटी जहाँ वीरप्रसूता है वहीं साहित्य , संस्कृति एवं विविध ललित कलाओं ,परंराओं व त्रंत्रसाधनाओं के लिए भी विख्यात है। इसी बुंदेली माटी के तपःपूत हैं त्रंत्र साधक , छंदाचार्य Mahakavi Kalidatt Nagar जी जो कालीकवि के नाम से समूचे देश में प्रसिद्ध हैं।
शास्त्रीयता से समृद्ध है महाकवि पं.कालीदत्त नागर की काव्य साधना
1838 में उरई (जालौन ) में जन्मे कालीकवि रीतिकालीन परंपरा के पण्डित के रूप में ख्याति प्राप्त हैं। आपने अपने पिता कीर्तिशेष पं.छविनाथ नागर के निर्देशन में वैदिक साहित्य का अध्ययन करते हुए आप का झुकाव तंत्रसाधना की ओर हुआ।
प्रसिद्ध तांत्रिक भूधरानंद जी के सान्निध्य में रहकर आपने माँ काली की साधना करते हुए तंत्र विद्या वशीकरण , सम्मोहन , मारन , उच्चारण आदि की सिद्धियाँ प्राप्त कीं और अपने तांत्रिक नाम भैरवानंद के नाम से उनका प्रयोग सदैव दुष्टों व दुष्प्रवृत्तियों के विनाश के लिए किया।
प्राचीन छंद परंपरा का संवर्द्धन करते हुए आपने अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। जिनमें ‘गंगा गुण मंजरी’ , हनुमान पताका , छबि रत्नम आदि प्रमुख हैं। महाकवि पं. कालीदत्त नागर ने त्रांत्रिक सिद्धियों का सदुपयोग करते हुए साहित्य के क्षेत्र में अपनी रीतिकालीन छंदोमय परंराओं का अनूठा योगदान देते हुए 26 अक्टूबर 1909 में परलोकगमन किया। कीर्तिशेष कालीकवि का जीवन हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है।
महाकवि कालीकवि की स्मृतियों को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए कालीकवि के वंशज और उत्तराधिकारी देश के वरिष्ठ साहित्यकार डा. अरुण नागर जी “महाकवि काली कला शोध केन्द्र” के माध्यम से कालीकवि की लोकमंगलकारी परंराओं को जीवंत बनाए हुए हैं।
संक्षिप्त परिचय –
पं. कालीदत्त नागर
उपाधि नाम – महाकवि कालीकवि
त्रांत्रिक गुप्त नाम – भैरवानंद
गुरु जी का नाम – त्रांत्रिक भूधरानंद जी
पिताजी का नाम – छविनाथ नागर
जन्म – सन 1832 उरई (जालौन )
निर्वाण- 26 अक्टूबर 1909 उरई
उपलब्धियाँ –
त्रंत्रसाधना से प्राप्त त्रंत शक्तियाँ मारण , सम्मोहन , वशीकरण आदि का प्रयोग लोकमंगल के लिए करने को प्रसिद्ध।
अँग्रेजों से देश को मुक्ति दिलाने में मारण शक्तियों का प्रयोग कर के तीन फिरंगियों का विनाश किया। रीतिकालीन छंदाचार्य परंपरा के पुरोधा के रूप में प्रसिद्धि। अपनी विशिष्ट काव्य कृतियों गंगा गुण मंजरी , हनुमान पताका , छवि रत्नम आदि में छांदिक विविधताओंके प्रणेता।
भारतीय मनीषा के अद्भुत ग्रंथ ‘छांदोग्योपनिषद्’ में एक मंत्र है स्मरोववकाशाद्ध भूयः । इस मंत्र का भावार्थ है , स्मरण आकाश से भी उत्कृष्ट है। हमारी शास्त्र पंरपरा का यह मत हमें अपनी ऋषि पंरपराओं से संपृक्त करता है। स्मृतियों के अनंत आह्लादकारी शुक्लपक्षों से अविरल प्रेरित रहने के लिए निर्देशित करता है। जीवनबोधी संस्कारों से जोड़ता है। हमारे साहित्य , संस्कृति और साधना के अत्यंत प्रोज्ज्वल शलाका पुरुष हैं कीर्तिशेष महाकवि पण्डित कालीदत्त नागर जी।
भारतीय जीवनमूल्यों , सात्विक तंत्र साधनाओं , शास्त्रीय छांदिक विविधताओं एवं साहित्यिक – सांस्कृतिक क्षेत्र में उनका अमूल्य अवदान हमारी अक्षुण्ण धरोहर है। पारत्रिक साहित्य के संवाहक , प्रज्ञापूरित , माँ वाग्देवी के वांग्मयीसुत कालीकवि पाणिनि यज्ञशाला के दिव्यदृष्टा छांदिक साधक थे।
जहाँ वे संस्कृत भाषा के उद्बोधक थे वहीं राष्ट्र भाषा हिन्दी की बोलियों ब्रजभाषा , बुंदेली आदि के प्रति अत्यंत आग्राही थे। उन्होंने ठेठ लोकजीवन में प्रयुक्त शब्दों , बिंबों व प्रतीकों का अपने आस्थामूलक कवित्तों में , दोहों में श्रंगारपरक छंदों में , प्रकृतिसंपृक्त साहित्य में अत्यंत मार्मिकता से उद्घाटन किया है।
मानवीय सौंदर्यबोधी अलंकारिकता एवं आह्ललादित करने वाले रसों का सहज संचरण उनके छंदों का वैशिष्ट्य है। उनके काव्य की प्राणवत्ता है । जीवन की संजीवनी है। यही हमारी रससंस्कृति है । अंतःअनुभूतियों का सुरभिकोष है। रस निष्पादन को लेकर हमारे वैदिक साहित्य में ….. ।
‘ यो वः शिवतमो रसः’ की जो व्यापक अवधारणा है वह लोकमंगल के लिए की गयी है। वस्तुतः रस हमारी देव संस्कृति का एकमेव बीजाक्षर है जो हमें अमिय देता है…अमृतजल से अभिसंचित करता है…..भद्रताओं से आप्लावित करता है..ऊसर से..बंजर से मुक्ति देकर उपजाऊ बनाता है..रसाद्र करता है , रसाल बनाता है , संवादी बनाता है ,जड़ताओं से बचाकर चैतन्यता से समृद्ध करता है …वक्रताओं से पृथक करके ऋजुतम बनाता है…पथराए हृदयों में भावों की सदानीरा प्रवाहित करता है…अर्थात् मनुष्यता से संबद्ध करता है।
यह जो विविध सृजनधर्मा पक्ष साहित्य के हैं , वही सत्यम् – शिवम् – सुंदरम् की प्रतिष्ठा के मूलाधार हैं। यही आस्थाएँ महाकवि कालि के काव्य की मूलप्रेरक शक्तियाँ हैं… प्रवृतियाँ हैं और उदबोध भी…जो आज भी दिग्दिगंत को सुवासित कर रहीं हैं…आलोकधर्मी बना रहीं हैं..।
पूजनीय कालीकवि का एक रूप तंत्रसाधक भी है। वे माँ कालि के परम उपासक हैं।महादेवी कालीमाँ के लिए समर्पित व्यक्तित्व जब आदिअंबा…जगदंबा से जुड़ता है तब वह जगतमाई का प्रिय हो जाता है। तब वात्सल्यमयी माँ संशय के, दुर्विचारों के , द्वैतरूपी दैत्यों का संहार करके रूप ,रस , गंध , स्पर्श , शब्द की तंत्रमात्राओं से समृद्धशाली बनाती है। शुभ्रता देती है।और आसुरी शक्तियों से युद्ध करने की शक्ति प्रदान करती है। कालीकवि ने देवि माँ से प्राप्त शक्तियों को लोककल्याण के लिए समर्पित कर दिया था।
महाकवि कालीकवि की विपुल वाग्मिता नैरंतर्य की संवाहिका है। जयदेव , विद्यापति आदि शास्त्रीय महाकवियों से लेकर वर्तमान कवियों को इसी नैरंतर्य के स्रोत के लिए सतत साधना करनी पड़ती है तब कहीं यह उपलब्धि अंतर्निहित हो पाती है। कम से कम शब्दों में अलंकारिकता भरते हुए , छंदों की सुगठिताओं के साथ सृजन करने में निष्णात महाकवि पं. कलीदत्त नागर कालीकवि की अनेक अमरचेता काव्यकृतियाँ हैं जो हमारी अनूठी विरासत हैं । उनकी प्रसिद्धिप्राप्त अमर काव्यकृति “श्री गंगा गुण मंजरी ” का एक कवित्त यहाँ दृष्टव्य है …।
मौतिन की मालसौ मरालसौ मुनी मनसौ
मुकुर मनीसौ मालती के मंजु मुदसौ।
काली कबि शरद सुधासौ शारदासौ सुद्ध,
शिवसौ शिवासौ सूत संदल समुदसौ।।
जाग जगती पै रहौ जान्हवी तुम्हारौ जस
अमल अवीर छीर फैन वुद वुदसौ।
कन्दसौ कलिन्दी की कलीसौ कंज कंद
लसौ कम्बुसौ कुमोदिनसौ कुंदसौ कुमुदसौ।।
छंदों की शास्त्रीयता का भरपूर निर्वाह और अनूठे अलंकार विधान की अनुप्रासता का दिग्दर्शन ऊपर दिए कवित्त में हमें देखने को मिला है..जो आज दुर्लभ भी है और किसी अचंभे से कम नहीं है… । महाकवि कालीकवि की एक और अत्यंत दुर्लभ काव्यकृति है ” हनुमान पताका ” । एक कवित्त इसी ग्रंथ से मननीय है , भजनीय है और अनुस्मरणीय भी–
देखसर नाभिको सरोवर अतुल्य और तुल्य त्रिवलीनहूके सुरन सुढ़ीनहैं |
कालीकवि कायल मृड़ाल भुज नालनतें लोचन विशालनतें घायल सुमीनहें ॥
वारनतें सकुच सिवारन गई हैं पैठ हारनतैं
तुमुल तरंग तरलीन हैं
क्षीण छवि मधुप महीन मधु बोलनतें
अमल कपोलनतें कमल मलीन हैं ।।
पूरबको भागहै सुहाग गजभामिनीको
यामिनीको राग अनुराग कुमुदीनको ॥
सागरको पूत दूत काम नटनागरको
तिलक उजागर है गिरिश प्रवीनको ॥
कालीकवि काम कामिनीकी किंकिणीको
नग चिंतामणि चोकस चकोर तरुणीन को ॥
सारहै सुधाको वसुधाको सरदार
पूनाको शृंगार है अंगार विरहीन को ।।
डा. भागीरथ सिंह तकदीर कहते हैं… छबि – छबि रत्नम् की –
छवि रत्नम् ‘ महाकवि काली की वह रुचिर रचना है जिसमें नायिका के अंग प्रत्यंग का वर्णन सांगरुपक एवं पूर्णोपमाओं से अलंकृत कर किया गया है । बिहारी की सतसई के दोहे नाविक के तीर विष बुझे होते हुए भी निशाना चूक सकते हैं । पर अमोघ रामबाण निशाना चूकना ही नहीं जानते । ” नाविक के तीर ज्यों बिहारी रचे दोहरे तो काली कृत दोहरे अमोघ रामवाण है । ‘ अत्योक्ति नहीं ।
निम्न दोहे दर्शनीय है । काली कवि नायिका की मुस्कान चित्रित करते हैं.. ।
आज लड़ैती लाल के , ढिंग बैठी मुसकात ॥
चटक दुपरिया में रही , छिटक जुन्हैया रात ॥
मुस्कान में कितनी उज्जवल और शीतल काँति है जो खरी दोपहरी में भी चांदनी रात की छटा बिखेरती हुई प्रकाशित होती है । इसी प्रकार तिल वर्णन भी देखिये –
कै कपोल अनमोल तिल ,कै अलि कमल समेत ।
कै सुवर्ण के पर्ण मणि , नील वर्ण छबिदेत ॥
कपोल पर तिल है या कमल पर मधुपायी भ्रमर अथवा सुवर्ण पत्र पर रखा हुआ बहुमूल्य रत्न नीलम । ( संदेहः तुल्ययोगिता ) | उपरोक्त दोहों की कला और कला की सजीवता कवि के स्तर को स्पष्ट करती है ।
(साहित्यालंकार भागीरथ सिंह ‘ तकदीर ‘ उरई)
छवि रत्नम के दोहे और दृष्टव्य हैं –
कूकत जहां गोपीन के भमर बिलोचन गुंज ।
विलसत रहें मुकुंद को हंसन कुंद की कुंज ॥१ ॥
पावस रैन अचन्दिनौ मसि मलिन्दिनी माल ।
रविनन्दिनी फनिंदनी बेणी बरन बिशाल ॥ २ ॥
वस्तुतः समस्त चराचर छंदोमय है। गति और लय के साथ संसार सतत संसरित होता रहता है। महाकवि पण्डित कालीदत्त नागर की संपूर्ण काव्य साधना में छांदिक शास्त्रीयता है। उनकी रचनाओं में जहाँ श्रंगार की सौंदर्यबोधी परमोज्जवल परंपरा है तो वहीं भक्ति की विलक्षण भाव वाग्धारा भी है जो केवल और केवल लोकमंगल के समर्पित है।
मेरी अपनी समझ कहती है अपने संपूर्ण होने का जो बोध मनुष्य को साहित्य में होता है , वह एक असीम समग्रता है , समग्र अनुभव है , खण्ड – खण्ड नहीं है , अखण्ड है वह , अंत नहीं , अनंत है वह । हम उसे एक पवित्र स्मृति की भाँति अपने अंतःकरण में संजोए रहते हैं।यह एक अपूर्व और अद्वितीय आनंद है जो अकथ है, शब्दातीत है।
महाकवि पं. कालीदत्त नागर की दिव्य रचनाधर्मिता हमें यही संदेश देती आरही है। जहाँ अपना सत्य संपूर्ण मनुष्यता का अखण्डित सत्य है। जो हमें आंतरिक रूप से मनुष्यत्व से साक्षात्कार कराता है , देवत्य की ओर ले जाता है।
सन 1832 में बुंदेखण्ड के उरई (जालौन ) में जन्मे महाकवि पं.कालीदत्त नागर ने अपना समूचा जीवन जगत जननी माँ भगवती की साधना एवं साहित्य सृजन को समर्पित कर दिया था। वे रीतिकालीन परंपरा के वरिष्ठ आचार्य थे। अपने जीवनकाल में वे मसिधर्म का निर्वाह पूरी निष्ठा से करते रहे। 26 अक्टूबर 1909 को परलोकगामी हुए कालीकवि उस काल के लब्धप्रतिष्ठित साधक व छंदाचार्य के रूप में समूचे देश में विख्यात रहे।
कीर्तिशेष कालीकवि की पुण्यतिथि (26 अक्टूबर ) पर हमें उनकी साहित्य साधना के चिरंतन सत्य को आत्मसात करते हुए आज के साहित्य में जो असत् भदेसताएँ , असहिष्णुताएँ व अवाँछनीयताएँ उत्पन्न हो गयीं हैं , उन्हें दूर करने के भगीरथ प्रयास करने के लिए संकल्पित हों , ऐसी विशुद्ध मानसिकता हमें सृजित करनी होगी। खण्ड – खण्ड हो रही सृजनधर्मा संस्कृति की अखण्डित अस्मिताओं की पुनर्स्थापना करनी होगी…। यही सच्ची श्रद्धांजलि है महाकवि काली के श्रीचरणों में….।
“महाकवि काली कला शोध केन्द्र ” के निदेशक व वरिष्ठ साहित्यकार डा.अरुण नागर अपने मार्गदर्शक पूजनीय कालीकवि से प्रेरणा लेकर साहित्य , कला , संस्कृति के उन्नयन के लिए समर्पित होकर विगत चार – पाँच दशकों से कार्य कर रहे हैं। उनकी साहित्यसेवा में मानवधर्मी आलोक का स्वर्णिम उजास है जो नित्य लोकमंगलकारी बीज बोने में संलग्न है। संभवतः यही अर्थ भी है साहित्य का…।
आलेख
डा. रामशंकर भारती
25 अक्टूबर 2021 झाँसी