लाल फाग Lal Fag ’लाल‘ से जुड़ने वाली लाल फाग 17 वीं शती की है। यह ’लाल‘ ब्रजी का है या बुंदेली का, यह तो शोध की बात है, लेकिन वह फाग के चरणों के साथ जुड़कर एक नई लोकधुन का आविष्कार कर गया, जो आज तक फाग गायकी की प्राण बनी हुई है। लाल फाग पद शैली की फाग से जन्मी है, शायद पद शैली के शास्त्रीय बन्धन से मुक्ति और नये फागशास्त्र की प्रतिष्ठा दोनों के लिए।
पद के हर चरण में ’लाल‘ लगने पर लाल फाग बन जाती है। टेक को विभाजित कर उसे दुहराते हैं और बाद में ’लाल‘ का योग कर देते हैं। यदि पद की टेक है। ’कट गई झाँसी वाली रानी‘ तो इसे ’झाँसी वाली रानी कट गई झाँसी वाली रानी लाल‘ के रूप में ढाल देते हैं और इसी को दुगुन-तिगुन में गाते हैं।
फिर अंतरा की पहली अद्र्धाली को दुहराकर कर दूसरी अद्र्धाली में टेक का कुछ अंश मिलाकर उसी लय में गाते हैं। कभी-कभी जब अंतरा का तुकान्त नहीं मिलता, तब लाल तुकान्त का काम करता है।
दोई नैनों के मारे हमारे,
जोगी भये घरबारे लाल।
जोगी भये घरवारे हमारे,
जोगी भये पिय प्यारे लाल।
अरे, जोगी भये पिय प्यारे हमारे जोगी,
भये घरवारे लाल।
अंग भभूत बगल मृगछाला,
सीस जटा लपटाने, हमारे।
हाँत लयँ कुंडी बगल लयँ,
सोटा घर-घर अलख जगाबें, हमारे।।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल