छतरपुर जिले की तहसील बिजावर में स्थित ग्राम पिपट में Kavi Lallumal Chaurasiya का जन्म 30 दिसम्बर 1943 को श्री चंदूलाल जी चौरसिया के घर हुआ। इनकी माताश्री का नाम स्व. श्रीमती मूलाबाई था। इनकी शिक्षा पिपट, बिजावर तथा छतरपुर में सम्पन्न हुई।
जिनकी कारी है घरबारी, बड़े भाग हैं भारीं।
निर्भय हाट बजारन जावै, न तनकउ लाचारी।।
हंसी मजाक करै न कोउ, न सीटी न तारी।
घर के काम एक से चलबैं का गोरी का कारी।।
इस छंद में कवि ने काले रंग की स्त्री की विशेषताएँ बताई हैं, उन व्यक्तियों के भाग्य बहुत उच्च हैं जिनकी पत्नी काले रंग की हैं, वे बिना किसी भय के बाजार जाती हैं, उनके अंदर किसी प्रकार की लाचारी नहीं रहती, उनसे कोई भद्दे मजाक नहीं कर सकता, न सींटी और न ही ताली बजाता है। आगे कवि चौरसिया जी कहते हैं कि गृहस्थी का कार्य एक से चलता है और वह चाहे गोरी हो या फिर काली, रंग महत्वपूर्ण नहीं है, कार्य महत्वपूर्ण है।
पर गओ जरुअन के संग रैबो, कां लौ सीखें सैबो।
कानी अपनौ टेँट न देखें, पर पर फुली बतैवौ।
बड़ौ सहज धजरी कौ लाला, करिया सांप बनैवौ।
कैसे सधें दोउद इक संगे, हंसबौ गाल फुलैबौ।।
कवि चौरसिया कहते हैं कि जो हमें ईर्ष्यालु लोगों के साथ रहना पड़ गया। अब कहाँ तक सहन किया जाये ? काना व्यक्ति अपनी आँख का टेंट नहीं देखता बल्कि दूसरों की फुली निहारते हैं अर्थात् अपनी बड़ी गलती को न देख दूसरों की छोटी-छोटी गलतियों को खोलते हैं। आजकल व्यक्तियों ने तो झूठ बोलने में हद कर दी है वे अपने तर्कों (कुतर्कों) के माध्यम से धज्जी को भी विषधारी साँप साबित कर देते हैं। एक साथ दो असंभव काम नहीं हो सकते हैं चाहे हँस लो या फिर गाल फुला दो, एक कर सकते हैं।
गुइयां ससरे नौने रइयो, कुल की राखें रइयों।
सास ननद जो कांय कछू तो, दो बातें सुन लइयो।।
तऊ पैं करै अनर्गल तौ फिर, स्वामी सैं कै दइयो।
ई पै भी न माने तौ फिर, दो को चार सुनइया।।
जब बेटी मायके से ससुराल जाती है तो उसको मायके में अपनों द्वारा किस तरह की सीख दी जाती है उसके बारे में कवि बताते हैं कि बेटी! ससुराल में अच्छी तरह से रहना। अपना और अपने इस कुल की मान-मर्यादा का ख्याल रखे रहना, कोई कुछ कहने न पाये। सास व ननद तुमसे अगर कुछ कहे भी तो उनकी कुछ बातें सुन लेना, इसके बाद अगर वे अनाप-सनाप कहे तो फिर पति से कहना अगर इसके बाद भी न माने तो यदि वे दो बातें कहें तो तुम उन्हें चार बातें सुना देना।
इक दिन खाली पिंजरा रैहैं, चलौ सुआ उड़ जैहै।
रंग रोगन सब जन कौ धन हैं, कछू काम न दैहै।।
कैसउ बन्द किबरियाँ करियो, छिन भर न रुक पैहै।
अपनी मन मरजी कौ मालिक, मरजी सें चल दैहौ।।
इस छंद में कवि चौरसिया जी शरीर की नश्वरता एवं आत्मा को भव-बंधन से मुक्त मानते हुए कहते हैं कि एक दिन खाली पिंजरा रह जायेगा और सुआ रूपी जीव उड़ जायेगा। अर्थात् यह नश्वर शरीर भर बचेगा और प्राण निकल जायेंगे। सभी लोग धन दौलत को भी सब कुछ मानते हैं जबकि यह कुछ काम नहीं देगा उस समय कितने ही यत्न से शरीर की सभी खिड़कियाँ बंद कर ले लेकिन प्राण तो क्षणभर नहीं रुकेंगे, वह अमर है, अविनाशी है और अपनी मर्जी का मालिक है। उसकी जब भी इच्छा होगी, चला जायेगा।
अंखियाँ दरसन खां छुछुआतीं, बात करैं चुचुआतीं।
जां ताँ भेद हिया के बरवस, बिन बोलें खुलबातीं।
मंत्र बिना करिया काटे के, कठिन मैर फुरबातीं।
महा मेघ सौं बरसें तऊं पै, कंडा सौं धुंधुआतीं।।
कभी-कभी इन नेत्रों की विचित्र स्थिति हो जाती है, नायिका अपनी सखी से कहती है कि उनके (पति) दर्शन के लिए मेरी आँखें बहुत खोजते हुए तड़पती हैं और बातें करते हुए अश्रु बहाती है। कैसा भी भेद क्यों न हो ? हृदय कितना भी मना करे लेकिन आँखें न बोलकर भी सब कुछ कह जाती हैं। बिना काले साँप के उसे ही और बिना झाड़फूँक के ये मैर (राज) खोलती हैं। जिस प्रकार कंडे में आग लगी हो और बहुत तेज बारिश हो तो ऐसे में धुँआ तो निकलता ही रहता है, उसी प्रकार ये आँखें उनके (पति) बिना विरह में दिनरात जलती रहती है।
अंखियां जब काहू सें लगतीं, पके खता सीं दगतीं।
स्थिर रांय केन्द्र बिन्दु पे, नांय मांय न भगतीं।
मनभावन की झांई देखबे, रात दिना जे जगतीं।
ऐसी बिह्बल होयं लगी में, बेर बेर खुद ठगतीं।।
आँखों की हालत बताते हुए कवि कहते हैं कि जब किसी से नजर लड़ती है तो पके हुए फोड़े जैसी दर्द देती है। बिलकुल एकटक होकर उन्हें निहारती रहती है, इधर-उधर नहीं जाती। मन को अच्छे लगने वाली की सूरत देखने के लिए वे रात दिन बराबर जगती रहती है। इस तरह नजर लड़ने से वे विह्वल हो जाती है और बार-बार खुद ठगती रहती है।
कवि लल्लूमल चौरसिया का जीवन परिचय
शोध एवं आलेख -डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)