कर्मवाद का सिद्धांत हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग था। Karm Aur Punarjanam के कार्यों का अविज्ञात रूप था और यद्यपि जैन धर्म की भांति हिन्दू धर्म के अन्तर्गत यह कोई तात्विक पदार्थ या श्रेणी नही थी । यह विचार किया जाता था कि उसका संचय होता है और वह व्ययशील है।
भारतीय संस्कृति मे कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धांत
Theory of Karma and Reincarnation in Indian Culture
कर्म के द्वारा ही जन्म का दैवी, मानवी, पाशविक अथवा राक्षसी शरीर प्राप्त होता था और कोई पूर्व कर्म मनुष्य के चरित्र, वैभव, सामाजिक वर्ग, सुख और दुख के अधीन नहीं था। प्रत्येक सत्कर्म का सुफल आज हो या कल सुख होता था और प्रत्येक असत्कार्य का परिणाम दुख होता था।
हिन्दू धर्म ने पुनर्जन्म से मुक्ति का भाव, जो लगभग समस्त भारतीय विचारधारा में व्यापक है, परंपरा से प्राप्त किया। मुक्ति की अवस्था की कल्पनाएं अथवा मुक्ति और उसे प्राप्त करने के साधनों के सम्बन्ध में विस्तृत भिन्नता थी। यह माना गया कि संसार जो एक शरीर से दूसरे शरीर तक की यात्रा है और बहुधा सतत गतिमान चक्र है।
आत्मा शरीर से भिन्न वस्तु है, जो मरणोपरांत परलोक को जाती है, इस सिद्धांत का आभास वैदिक ऋचाओं में मिलता है…….एक मंत्र में कहा गया है कि व्यक्ति का एक अंश जन्म रहित और शाश्वत है तो अन्यत्र जीवात्मा को कर्मफल भोक्ता बताया गया है। उपनिषदों के आधार पर जो कर्मफलवाद का सिद्धान्त ज्ञात होता है उसके अनुसार मनुष्य जैसा कर्म करता है उसे वैसा फल भोगना पड़ता है।
इसलिए मनुष्य को अपने कर्मों को सुधारना चाहिए। कर्म के सुधरने से मनुष्य का अगला जन्म अच्छा होगा और उस जन्म में भी जब वह अच्छे कर्म करेगा, तब उसका तीसरा अगला जन्म और भी अच्छा होगा। इस प्रकार जन्म जन्मान्तर तक साधना करते करते उसकी मुक्ति हो जाएगी अर्थात वह जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो जाएगा।
बुद्ध ने भी वैदिक धर्म के जन्मान्तरवाद और कर्मफलवाद को यथावत स्वीकार किया। उनका मत था कि जीवन दुख है और मनुष्य को यह दुख भोगने के लिए बार बार जन्म लेना पड़ता है। वह अपने कर्मों के अनुसार उत्तम या अधम योनि में जन्म लेता है और उन जन्मों में जैसा काम करता है, जैसा संस्कार अर्जित करता है, वे संस्कार उसे नया जन्म लेने को विवश करते हैं। इस प्रकार जन्म मरण का प्रवाह लगातार चलता रहता है।