Homeबुन्देलखण्ड की लोक संस्कृतिबुन्देलखंड के लोक नृत्यKandra-Bundelkhand Ka Lok Nritya काँड़रा / कानड़ा-बुन्देलखण्ड का लोक नृत्य  

Kandra-Bundelkhand Ka Lok Nritya काँड़रा / कानड़ा-बुन्देलखण्ड का लोक नृत्य  

Kandra-Bundelkhand Ka Lok Nritya काँड़रा या कानड़ा मूलतः जातिगत नृत्य हैं धोबी समाज के लोग इसे करते है। इसलिए कहीं-कहीं ये नृत्य धुबियाई नृत्य भी कहलाता है। इस समाज में वैवाहिक अवसरों पर काँड़रा किया जाता है बल्कि कुछ समय पूर्व तक तो विवाहों में यह अनिवार्य रूप से किया जाता रहा है।

वर्तमान में यह प्रायः लुप्तप्राय नृत्य हैं। समाज की वैवाहिक रस्मों में जैसे मेहर का पानी भरने अथवा दुल्हे की रछवाई निकलने पर, द्वारचार, टीका, भाँवर पड़ाई, विदाई आदि अवसरों पर, वैवाहिक संस्कारों के अलावा जन्म के समय भी इस नृत्य का आयोजन होता था ।

कानड़ा पुरुष प्रधान नृत्य है – कानड़ा नाचने वाला प्रधान नर्तक होता है। कानड़ा का विशेष वाना (पोषाक) होता है। नृत्य में रूचि रखने वाले युवक को परम्परानुसार वाना दे दिया जाता हैं। नृत्य की पोषाक या वाना मध्यकाल की प्रतीत होती है, क्योंकि उस समय राजे- महाराजे इसी तरह के बागे पहनते थे।

कानड़ा नर्तक सफेद रंग का कलीदार बागा धारण करता है। वह सिर पर राजसी पगड़ी या साफा पहनता हैं। पगड़ी पर कलगी, कन्धों पर रंगीन कलात्मक कंघिया, गले में ताबीज, कमर में फैंटा, कंधे से कमर तक सेली, कमर में रंग-बिरंगे बटुए लटकते रहते हैं। दोनों बाजुओं में बाजूबंद, पैरों में बड़े-बड़े घुंघरू, चेहरे पर हल्का मेकप, आँखों में काजल या सुरमा।

कानड़ा नर्तक सुसज्जित होकर ऐसा प्रतीत होता है कि उस नर्तक के रूप में कोई राजा- महाराजा हो अथवा मोरपंख लगाकर कृष्ण हो। नर्तक नृत्य के लिए सुसज्जित होता है तो उसे कानड़ा बनना कहा जाता है।

इस नृत्य को घूम-घूमकर नाचा जाता है। घेरे को बुन्देली में कोण भरना कहा जाता है और इस नृत्य को भी घेरे में नाचते हैं। इसलिए इस नृत्य का नाम काड़रा नृत्य पड़ा। काँड़रा नृत्य का प्रमुख वाद्य सारंगी या केकड़िया हैं। इस वाद्य को काड़रा नर्तक स्वयं बजाता है। मुख्य गायन भी वही करता हैं। अन्य वाद्यों में खंजड़ी, मृदंग, तारें, झूला तथा लोटा प्रयुक्त होते हैं।

गायक जब कथा गायन करता  है  तब बीच-बीच  में उसे  संवाद भी बोलने पड़ते हैं। दोहा, साखी, विरहा, गारी, भजन, भगत प्रायः सभी तरह के गायन इस नृत्य में किया जाता है। विभिन्न श्रृंगार, हास्य, वीर, शांत,करूण, रसयुक्त लोकगीत, धुनों के  आधार  पर  विरहा,  रामपुरिया,  बधाई,  आदि नामों  से इस नृत्य को जाना  जाता  है।

इस नृत्य में ‘बिरहा’ गीत गाते हैं। कांडरा-नर्तक’ के हाथों में वाद्ययंत्र के रूप में केकड़ी होती है साथ ही म॒दंग, कसावरी, लोटा व टिमकी प्रमुख वाद्य बजाए जाते हैं पहले साखी फिर बिरह मीत गाते है बाद में लय तेज कर देते हैं –

ए जी बड़े हुए तो बीरन कया हुआ जैसे पेड़ खजूर
अरे पंछी खो छाया नहीं बीरन फल लागे अत दूर
अरे मोरी कही नईं मानी मुगल ने जब झींकत घुड़ला पलाने लए
पलाने लए बइयत मे ह गए असवार
अरे यही बाय पै कउठआ पर गओ दाहिने पै फिसर गई जान मुगल ने 
जब माता के रई ‘बायरों भइया बहन छुडला बात
अरे तिरिया बाला लै गई स्वामी तिरिया पाएं ऐबात, मुगल ने मोरी कही मानी

राई और बेड़िया -एक परिचय 

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

admin
adminhttps://bundeliijhalak.com
Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

error: Content is protected !!