Kanchan Kunwari कंचन कुँवरि

भक्ति चन्द्रिका श्रीमती कंचन कुँवरि का जन्म दतिया में संवत् 1951 वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीया (पुष्य नक्षत्र) में हुआ था। Kanchan Kunvari के पिता जी करइया के जागीरदार श्री दीवान गजराज सिंह परमार थे। माता जी महाराजा दतिया की छोटी बहन श्रीमती उमराव जू राजा थी।

भक्ति चन्द्रिका श्रीमती कंचन कुँवरि एक समर्पित भक्त कवियित्री

कंचन कुँवरि बाल्यावस्था से ही धार्मिक प्रवृत्ति की थी। इनका विवाह बिजावर नरेश सवाई महाराजाधिराज श्री सावन्त सिंह बहादुर जू देव के साथ हुआ। इनकी सासु श्रीमती महेन्द्र महारानी वृषभान कुँवरि ने श्री कनक भवन नामक अयोध्या में प्रसिद्ध मंदिर बनवाया था। इन्होंने भी अयोध्या में सरयू के किनारे रिणमोचन घाट पर कंचन भवन बनवाया।

इनके जीवन में अनेक विलक्षण भक्ति संबंधी घटनायें घटित हुई। यह एक समर्पित भक्त कवियित्री थीं। इन्होंने अपने आराध्य राम की लीलाओं के अनेक पद, सवैया, कवित्त, फाग, रसिया, गजल, दोहा, चौपाई छंद रचे। जो ‘श्री काँचन कुँज विनोदलता’ शीर्षक से संवत् 2018 में प्रकाशित हुए। इनके छंद बिजावर तथा अयोध्या में भक्तों के साथ आम जनता भी बड़े ही चाव से गाती है।

पद

मैया गोद खिलावै ललना।

लै उछंग कबहूँ दुलरावै कबहुँ झुलावै पलना।
कबहुँ उमंग हिय कर गहि निज कर चलन सिखावैं अँगना।।

कबहूँ जात द्वार लौ लालन आवत धाय घुटरना।
जननी झपट लेत कनियाँ तब मचल जात सुख भरना।।

विविध भाँति तब मातु मनावत कहि कहि मधुरे बचना।
कंचन कुंवर विहँसि अंचल गहि लगे पान पय करना।।

माता अपने पुत्र को गोद में खिला रही है। उमंग में लेकर कभी उसे दुलारती है, तो कभी पलना में झूला झुलाती है। कभी उमंग से हाथों में लेकर हृदय से लगातीं हैं। तो कभी अपने हाथों से पकड़कर आँगन में चलना सिखाती हैं। कभी दरवाजे तक जाकर घुटनों के बल चलकर बालक आता है। जब सुख रूपी निर्झर का वेग बढ़ जाता है तो माँ झपट कर उसे पकड़ लेती हैं। मीठी-मीठी बातें करके विभिन्न प्रकारों से माता को मनाते हैं। कँचन कुँवर कहती हैं कि बालरूप में राम हँसकर माँ का आँचल पकड़कर पयपान करने लगे।

सखी सो वरवस सिय पहँ आई।।

विह्नल गात बात अटपट कह तन मन सुध विसराई।
गहि कर पूंछत नवल अली सब काह भयो तुहि माई।।

तब धरि धीर कहत इत आये श्याम गौर दोउ भाई।
जिनहिं बिलोक विवस भईं सजनी रूप राशि सुखदाई।।

जिह्ना नैन नहीं जो देखै नैनन गिरा न पाई।
कंचन कुँवरि थकित गति मति भई कहौं कौन विधि गाई।।

सखी सीता के पास विवश हो आकर हाथ पकड़कर पूछती है कि व्याकुल चेहरा, अटपटे वचन और तन-मन की सुधि बिसराने वाली स्थिति क्यों हो गई है? सखी तुझे क्या हो गया है? तो इस पर धैर्य धारण कर सीता कहती हैं कि यहाँ पुष्पवाटिका में श्यामल और गौर वर्ण के दो भाई आए हैं। जिनके सुखकारी रूप सौन्दर्य को देखकर मैं सखी, विवश हो गई हूँ। उनको देखकर जीभ से कोई वचन नहीं निकले, नेत्रों की पलकें नहीं गिरीं। कंचन कुँवरि कहती हैं कि सीता जी की गति व मति दोनों थक जाती हैं।

कहत सिय पिय से मोद भरी।।

अब रितु राज सुहावन आवत चहुँ दिशि धूम परी।
साज समाज बसंत खेलिये मो हिय चाह खरी।।

अतर अबीर गुलाल अरगजा केशर घोर धरी।
कंचन कुंवर लाल सुन हर्षे हँस बलिहार करी।।

सीता जी प्रेम के अनुराग सहित प्रिय राम से कहती हैं कि अब ऋतुराज बसन्त का आगमन हो रहा है जिससे घरों दिशाओं में उसी की धूम है। समस्त समाज बसन्त के साथ क्रीड़ारत है इसलिए मेरे हृदय में भी यह चाह है कि मैंने इत्र, अबीर, सिन्दूर, अरगजा व केशर का घोल जो बना रखा है उसका उपयोग हो। कंचन कुँवरि कहती हैं कि यह सुनकर राम जी प्रसन्न हो हँस देते हैं।

रसिया

रसिया रस फैल करैं बांके।
घेरत नवल नारि इकली कर डारत नव योवन डांके।।

पिचकारिन रंग मार भिजावत कर हो हो मद रस छाके।
बर बस लाय हिये सुख पावैं घूंघट खोल वदन ताके।।

लख यह हाल सकल सखियन ते पुनि पुनि सिय स्वामिनि भाखैं।
है कोइ बीर अली मम दल में गहि लावै रघुवर जाके।।

बोली चन्द्रकला तेहि अवसर सिय पद कमल सीस नाके।
कंचन कुँवर जो आयसु पाऊँ पल में पेश करूं लाके।।

रसिया (राम) रस के सुन्दर प्रहार कर रहे हैं। नई नारी को घेरकर उसके यौवन पर डकैती डालते हैं। पिचकारियों के रंगों की मार से सभी को भिगो देते हैं सभी रस में मदमस्त हो छक (तृप्त) जाते हैं। जबरदस्ती पकड़कर, घूंघट खोलकर, मुख को देखकर, सौन्दर्य दर्शन कर सुख पाते हैं। सभी सखियों की इस दशा को देखकर सीता जी कहती हैं कि री सखियों! मेरे दल में कोई ऐसा वीर है जो राम जी को पकड़कर ले आये। इस पर अवसर पाकर चंद्रकला सखी सीता के चरणों में शीश झुकाकर कहती है कि यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं एक क्षण में पकड़कर उनको आपके सामने हाजिर कर दूँगी।

रसिया सोइ श्यामल रंग रंगौ।।
रूप सुधा की पियत बारुनी मस्त भयो रस प्रेम पगौ।।

जाकौ मन अनुराग भरौ नित युगुल चरन से ध्यान लगौ।।
नेह नगर में होरी खेले सोई सखी जेहि भाग जगौ।।

तन की तनक समार ताहि ना मन प्रीतम छबि जाल ठगौ।।
कंचन कुँवर धन्य सोइ जननी परम सनेही मोर सगौ।।
(समस्त पद श्री ब्रजराज सिंह के सौजन्य से)

हे रसिक! तुम भी साँवरे (राम) के रंग में रंग जाओ। सौन्दर्य रूपी अमृत का पानकर मदिरा पान के जैसे मस्त होकर प्रेम रस में सराबोर हो जाओ। जिसका मन प्रेम के आपूरित हो नित्य दोनों के चरणों में ध्यान लगायेगा, वह प्रेम की नगरी में होली खेलेगा। इसी से सखी, उसका भाग्योदय होगा। शरीर की थोड़ी सी सुध नहीं रहती है जब वह प्रियतम के रूप जाल में ठग जाती है। कंचन कुँवरि कहती हैं कि हे सखी! वह धन्य है जिसके मन में श्रेष्ठ प्रेम है, वही मेरा सगा है।

बुन्देलखण्ड के साहित्यकार 

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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