बुन्देली लोक विधा Jhulana ki Fag में डेढ़ कड़ी होने के कारण इसे डिढ़-खुरयाऊ भी कहते हें। खुर शब्द फाग के चरण का संकेत करता है। प्रथम चरण में अहीर छंद या दोहे के सम चरण के पूर्व दो मात्राएँ जोड़ी गई हैं, जिससे प्रतीत होता है कि वह राई के प्रथम चरण का विकास-रूप है। दूसरी पंक्ति अधिकतर चैपाई (16 मात्राएँ) के पहले तीन मात्राएँ लगाने से बनी है। वैसे इस नियम का कड़ा बंधन लागू नहीं होता। बिलवारी से प्रभावित होने पर अरे हां, भलाँ सखीं री आदि का योग हो जाता है।
ब्याहन आये राजाराम,
जनकपुर हरे बाँस मंडप छाये। अरे हाँ, हरे।
झूला जैसी लयगति से शायद उसे झूलना की फाग नाम से पहचाना जाने लगा। लेद के तालों पर आश्रित होने से बाद में उसे लेद की फाग भी कहा गया। गायकी में कुछ व्यापकता मिलने पर यह फागरूप कई कड़ियों का लम्बा होता गया, अतएव इसे डिढ़-खुरयाऊ कहना उचित नहीं है।
ढुँड़वा लैयो राजा अमान,
हमारी खेलत बेंदी गिर गई। अरे हाँ, हमारी।
सखी री मोरी कौना सहर की जा बिंदिया,
भलाँ, कहना की धरी है रबार, हमारी।
सखी री मोरी झाँसी सहर की जा बिंदिया,
भलाँ, पन्ना की धरी है रबार, हमारी।
सखी री मोरी कैसें गिर गई जा बिंदिया,
भलाँ, कैसें है झरी जा रबार, हमारी।
सखी री मोरी खेलत बिंदिया गिर गई,
भलाँ, गिरतन झरी है रबार, हमारी।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल