Homeबुन्देलखण्ड का सहित्यईसुरी की फागेंIsuri Ki Sanyog Shringarik Fagen ईसुरी की संयोग श्रंगारिक फागें

Isuri Ki Sanyog Shringarik Fagen ईसुरी की संयोग श्रंगारिक फागें

Bundelkhand के महाकवि ईसुरी ने संयोग श्रंगारिक फागों मे जहां नायिका के शरीर शौष्ठव का वर्णन किया है। वही नायिका ने नेत्रों की व्याथा का सौंदर्यबोध का वर्णन भी किया है। नायिका श्रृँगार में नेत्रों के सम्बंध में तरह-तरह की उपमाएँ दी हैं। Isuri Ki Sanyog Shringarik Fagen श्रृँगार रस की उत्कृष्ट पराकाष्ठा है।

 महाकवि ईसुरी की संयोग श्रंगारिक फागें

खो रजऊ खां पटियां पारें, सिर सब यार उगारैं।
मोतिन मांग भरी सेंदुर सें, बेंदा देत बहारें।
ठाड़ी हती टिकी चैखट से सहजऊ अपने द्वारें।
काम कमर में सिर कटबे खां, खोंसे दो तरवारें।
मानों रूप कनक कसबे खां, कनक कसौटी धारें।
सोने के गुम्मट पै ईसुर, पंखा काग पसारें।

महाकवि ईसुरी ने नायिका का शारीरिक सौंदर्य का वर्णन किया है, नायिका ने किस तरह केशों (बाल) को सम्हाला है, किस तरह से मोतियों  से सिंदूर लगाया है, और किस तरह बिंदी लगाई है।अपने दरवाजे की चौखट पर टेक लगाये हुई खडी है। कामुकता से भरी हुई ऐसी नज़र आती है जैसे कमर मे दो तलवारें  बांध रखी हों…..!

पतरे सींकों जैसे डोरा, रजऊ तुमारे पोरा ।
बड़ी मुलाम पकरतन धरतन, लगना जाय मरोरा ।
पैरावत में दैया मैया, दाबन परे ददोरा ।
रतन भरे से भारी हो गए, पैरत कंचन बोरा ।
ईसुर कऊ कां देख ऐसे, नर नारी के जोरा।

महाकवि ईसुरी ने नायिका के शरीर शौष्ठव का वर्णन किया है। नायिका के शरीर के बारे मे बताते हैं कि दुबला-पतला शरीर, अगर कोई उसका हाथ पकड ले तो अपने आप मुड जायेगा। उसी पर आभूषण धारण करने के बाद जो सुन्दरता में चार-चाँद लगे हैं, उसका चित्रण ईसुरी की फाग में देखते बनता है।

अखियाँ जब काऊ सें लगतीं, सब-सब रातन जगतीं।
झपती नई झींम न आवै, का उसनीदें भगतीं।
बिन देखे से दरद दिमानी, पके खता सी दगतीं।
ऐसो हाल होत हैं ईसुर पलकन पलतर दबतीं।

 नायिका ने नेत्रों की व्याथा का सौंदर्यबोध का वर्णन,कि नायिका अपने नायक की याद मे सो नही पाती,उसका दर्द ऐसा है जैसे पके हुये फोडे मे पीडा होती है। नायिका श्रृँगार में नेत्रों के सम्बंध में कवियों ने तरह-तरह की उपमाएँ दी हैं। भृकुटि कटाक्ष, रतनारे नयन, कजरारे नयन, तिरक्षे नयन, मृगनयनी इत्यादि शब्द नेत्रों की उपमा में बहुत प्रयुक्त हुए हैं, किन्तु ईसुरी ने नेत्रों की जो उपमाएँ दी हैं, नेत्र श्रृँगार का जो वर्णन किया है, वह अद्वितीय है।

ऐसे अलबेली के नैना, मुख से कात बनें ना ।
सामें परै सोउ छिद जैहै, अगल-बगल बरकें ना।
लागत चोट निसानै ऊपर, पंछी उड़त बचैं ना।
जियरा लेत पराये ईसुर, जे निर्दई कसकें ना।

 नेत्रों की प्रशंसा में महाकवि ईसुरी  का श्रंगार अलग है। नायिका के नेत्रों का वर्णन शब्दों से नही की जा सकता। उसके नेत्रों की चोट से कोई बच नहीं सकता जो सामने आ गया उसको तो छेद ही देंगे पर जो बगल से निकल रहा है वह भी नहीं बच पाएगा। जिसको नायिका के नैनों की चोट लग गई वह किसी भी कीमत पर बच नहीं सकता। यह नैना जो दूसरों की जान ले लेते हैं उन्हें दर्द नहीं महसूस होता…?

छूटे नैन बान इन खोरन, तिरछी भौंय मरोरन।

इन गलियन जिन जाओ मुसाफिर,हैं अंखियां रनजोरन।
नोकदार बरछी से पैने, चलत करेजे फोरन।
ईसुर हमने तुमसे कैदई, घायल डरे करोरन।

महाकवि ईसुरी ने नायिका संयोग श्रंगार वर्णन में नायिका के भौंहे तिरछी करते ही इन नैनो से जो बाण निकलते हैं वह गली-गली लोगों को घायल करते हुए जाते हैं। वह बर्छी (एक प्रकार का हथियार) की तरह नोक  दार हैं और कलेजे को चीरते हुए चले जाते हैं। ईसुरी कहते हैं कि तुमने इस तरह से करोड़ों लोगों को घायल कर दिया है।

अंखियां पिस्तौलें सीं भरकें, मारत जात समर कें।
दारू दरस लाज की गोली, गजकर देत नज़र सें।
देत लगाय सैन को सूजन, पलकी टोपी धर कें।
ईसुर फैर होत फुरती में, कोउ कहां लो बरकें।

महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri ने की इस फाग में जहाँ श्रृँगार रस की उत्कृष्ट पराकाष्ठा का उपयोग हुआ है, वहीं अतिशयोक्ति अलंकार का भी पूर्णता के साथ प्रयोग किया गया है। वे नेत्रों का पिस्तौल, तलवार और बाण की उपमा देते हुए श्रृँगार वर्णन करते हैं। तुम्हारे नयना पिस्तौल की गोली की तरह भरे हुये है और सम्हल-सम्हल के मार रहे हैं।वो नशीली और शर्मीली आखें लोगो को ऐसा मारती हैं कि घायल लेटा ही रहा जाता है। पलकों से मारने का तरीका बहुत अलग है। और इतनी फूर्ती से मारती है कि  कोई कहां तक बचे…।

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गोरी तोरे नैन उरजैला, छले छबीले छैला।
गैलारन पै चोट करत हैं, बांदें रात चुगैला।
हँस मुस्कान दाउनी सी दयं, करौ गांव दबकैला।
इनसे जस न हुइये ईसुर, आगें अपजस फैला।

हम खां नैनन की संगीनें, हँसके मारी ईनैं।
पूरे लगे दूर नौ भाले, मैया घाव उछीनैं।
नैयां घाव मलम पट्टी के, दवा रकाय खां पीनैं।
हार हकीम गए हिम्मतकर, सिंयत बनेना सीने।
ईसुर श्याम दरद नई जानें, जो लो जग में जीने।

कड़तन मारी नैंन तलवारें, रजऊ ने अपने द्वारें।
आवौ जान गई पैलां सें, ठाड़ी हतीं उबारें।
दुबरी देह दसा के ऊपर, हिलत चलीं गईं धारें।
उत ईसुर को कोउ हतो न, तक लओ पीठ उगारें।

महाकवि ईसुरी  ने नायिका के नैनों की सुन्दरता के वर्णन में उपमा अलंकार का बड़ा सटीक प्रयोग किया है।

इनके अजब सिकारी नैना, छैल छड़कते रैना।
भौंय कमान बान चितबन सी, लएं रात दिन सैना।
परत दाब चाव न चूकैं, पंछी उड़त बचैना।
छिपे रात घूंघट के भीतर, वे भौंचक उगरैना।
पर हियरा के लेन ईसुरी, वे निरदई कसके ना।

महाकवि ईसुरी कहते हैं कि रजऊ के नैन बड़े सिकारी हैं, तुम इनसे बच के रहना। इनकी भौंह कमान की तरह तथा हेरन बाण जैसी नुकीली है। इनका दांव पड़ते ही ये शिकार कर देंगे। ये चूकते नहीं हैं। ये यद्यपि घूँघट में छिपे हुए रहते है, किन्तु इनकी मार बड़ी भयानक एवं घातक है।वे कहते हैं कि अलसाए से दिखने वाले ये नयन भी बड़ी फुरती से वार करते हैं। उनकी मार से चोटिल हुए करोड़ों लोग तड़प रहे हैं।

तेरी आलसयुत हँस हेरन, करत मोल बिन चेरन।
चंचल चपल नेत्र तुव लगकर, घायल हो गए ढेरन।
मम तन चोट घालवे को भये, तोरे नैन अहेरन।
ईसुर ई हेरन चितवन पै, घायल भये करोरन।

जिन सहृदयों को इन नैनों के बाण लग जाते हैं, उनकी पीड़ा भुलाए से भी भूल नहीं पाते हैं।
हम खां बिसरत नहीं बिसारी, हेरन हंसन तुमारी।
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी।
भौंह कमान बान से ताने, नजर तिरीछी मारी।
ईसुर कात हमाई कोदों, तनक हेर लो प्यारी।

रूप श्रृँगार… संयोग श्रृंगार में नायिका का कटीले नैनों से हंँस-मुस्कराकर देखना कभी भुलाया नहीं जा सकता। उस पर भी पतली कमर, इकहरी देह, सुडौल स्तनों वाला सीना, कमान जैसी खिंची भौहें तथा तिरछी हेरन वाली निगाहैं जिस किसी की ओर एक बार देख लेती हैं, वह कभी उसे भुला नहीं सकता। महाकवि ईसुरी  की फागों में श्रृँगार की यह पराकाष्ठा काबिल-ए-तारीफ है। वे नायिका नेत्र श्रृँगार के वर्णन में यहाँ तक कह गए हैं कि…।

तुमने नैन कसाई कीने, पाप पुरातन लीने।
बरनी डोर डार के बांदे, काठे में सिर छीने।
वे बेजान जान से मारे, कटा छटा के बीने।
इनके हात काय काजर दै, गवां वगुरदा दीने।
ईसुर जनम जिए जे जखमी, जखम खाय है दीने।

गहने रूप श्रृँगार वर्णन करते-करते महाकवि ईसुरी  उपदेशक बन जाते हैं और वे नायिका से कहते हैं….।
बांके नैन कजरवा आंजौ, बलम बिना ना साजो।
दुलहिन घरै दिखइया को है, वो परदेश बिराजो।
आई बड़ी बड़न कें ब्र्याइं, अपने कुल कौ लाजौ।
साजौ नईं लगत है ईसुर, बे औसर की बाजो।

हे सुन्दरी ! तुम्हारा पति बाहर गया है, तुम इन सुन्दर कटीली आंखों में काज़ल आँजकर किसे दिखाना चाह रही हो! तुम बडे़ कुल-खानदान की बेटी हो, ऐसा अनावश्यक व्यवहार करके तुम अपने कुल को कलंकित करने वाला उपक्रम क्यों करती हो? साज-श्रंगार उचित समय पर ही ठीक लगता है। जब तुम्हारा नायक तुम्हारे पास नहीं है तो यह श्रंगार किसके लिए है? ये बेमतलब का है जो उचित नहीं लगता। जिस तरह बेअवसर पर बाजे बजें तो वे उत्साह उमंग नहीं देते हैं, बल्कि क्रोधाग्नि प्रज्ज्वलित करते हैं।

महाकवि ईसुरी  ने नायिका नयन सुन्दरता के वर्णन में इस तरह किया है, जिसकी व्याख्या कर पाना कठिन है। यही कारण है कि ईसुरी का श्रृँगार वर्णन शाश्वत माना जाने लगा।
लख इन नयनन की अरुनाई, रहे सरोज छिपाई।
मृग शिशु निज अलि भयखां, तजके बसे दूर बन जाई।
चंचल अधिक मीन खंजन से, उन नई उपमा आई।
ईसुर इनको कानों बरनों, नयनन सुन्दरताई।

महाकवि ईसुरी  ने अपनी फागों के माध्यम से सचेतक की बखूबी भूमिका निभाई है। देखें इस फाग में वे कैसे सुझाव दे रहे हैं …।
जो कोऊ नयनन को बरकाबै, जियरा में सुक पावैं।
तिरछे नयन चले घूंघट में, चोट चपेट जमावैं।
भीतर पेटे लगी कतन्नी, ऊपर घाव न आवैं।
ईसुर नर से नारी भारी, ऊसुई पेस न पावैं।

महाकवि ईसुरी  नायिका को इंगित कर सम्पूर्ण नारी जाति को भी दीक्षित करते हुए कहते हैं….।
बांकी रजऊ तुमारी आंखें, रओ घूंघट में ढाकें।
हमने अबै दूर सैं देखी, कमल फूल सी पाखें।
जिनखां चोट लगत नयनन की, डरे हजारन कांखें।
जैसी राखें रई ईसुरी, ऊसई रइओ राखैं।

बिगरन बारे नयन नसाने, की के नईयां जाने।
हेरन लगे-लगे न बरके, चलत न लगै निशाने।
भरे उमंग उपत के उरझे, बरबस अनुआ ठाने।
अनियानी नोकन ने यारी, कोऊ धरन की हाने।
ईसुर खान जगत अपजस की, कीरत नईं अमाने।

ऐसे अलबेली के नैना, बिना लगे माने ना।
लेती आन उपत के खूदों, मानुष गैल निमै ना।
बाने बांद हार गए इनसे, सोमें कोऊ बरकै ना।
ईसुर प्रान जात नाहक में, लेना एक न देना।

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महाकवि ईसुरी  ने नेत्रों की महिमा या श्रंगार वर्णन जिस तरह से किया है, इसकी तुलना अन्य कवि से कर पाना कठिन है। वे कहते हैं कि नायिका के नयन ऐसे लुभावने हैं कि हर कोई इनकी परिधि में आ फँसता है। कितनी भी कोशिश करें, किन्तु उनसे बच पाना बड़ा मुश्किल होता है। ये नेत्र स्वयं अपना जाल फैला कर फँसाने में माहिर होते हैं। आप सामने पड़ने से कितने ही बचो, किन्तु बच पाना कठिन है, ये फँसा ही लेते हैं। जो इनके चक्कर में एक बार फंस गया तो फिर मुक्त हो पाना कठिन ही नहीं, असम्भव हो जाता है।

अखियाँ मित्र बिगर ना मानें, मौत कपट की ठाने।
छेकें खोर मित्र के लाने, दो बातें मोय काने।
लम्बी खोर दूर लौ तकती, मिलहैं कौन ठिकाने।
ईसुर कात दरस दो जल्दी, नईं भए जात दिमाने।

संयोग श्रृँगार में कठिन आकर्षण बड़ा महत्त्वपूर्ण माना गया है। नायक-नायिका की सुन्दरता उसके आव-भाव हंँसन-हेरन, चलन-मटकन आदि क्रियाआंे से इतना आकर्षित हो जाता है कि वह उसके बिना एक पल भी रहना नहीं चाहता। ईसुरी की फागों में श्रृँगार के एक से बढ़कर एक बड़े सटीक उदाहरण देखने को मिले हैं। यह कवि की सफलता दर्शित करता है। बुन्देली में ईसुरी की सानी का कोई दूसरा कवि दिखाई नहीं देता है।

नायिका श्रृँगार में वस्त्राभूषण और रूपसज्जा का बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान है। ईसुरी ने रसराज के संयोग श्रंगार पक्ष का अपनी फागों में बड़ी सफलता के साथ निर्वाह किया है।

चलतन परत पैजना छमके, पांवन गोरी धन के।

सुनतन रोम-रोम उठ आवत, धीरज रहत न तनके।
छूटे फिरत गैल-खोरन में, ये सुख्तार मदन के।
करवे जोग भोग कुछ नाते, लुट गए बालापन के।
ईसुर कौन कसाइन डारे, जे ककरा कसकन के।

श्रृँगार रस में ऋतु वर्णन का भी बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। अनेक कवियों से ऋतुराज वसन्त का अपनी रचनाओं में बड़ी सुन्दरता के साथ वर्णन किया है। वसंत के आगमन पर मानव मन में जो उत्साह, हर्ष और गुदगुदी उठती है, उसकी मनोहारी रागात्मक अभिव्यक्ति ईसुरी की फागों में झलकती है। एक किशोरी की अभिलाषाओं का चित्रण ईसुरी ने बडी बारीकी से किया है।

ये दिन गौने के कब आवें, जब हम ससुरे जावें।

बारे बलम लिवौआ होकें, डोला संग सजावें।
गा-गा गुइयां गांठ जोर के, दोरे लौ पौंचावें।
हाते लगा सास ननदी के, चरनन सीस नवावें।
ईसुर कबै फलाने जू की, दुलहिन टेर कहावें।

 महाकवि ईसुरी  की इस फाग में बुन्देली लोक जीवन की कुछ प्रथाओं की सुन्दर झलक देखने को मिलती है। संयोग श्रृँगार में उज्ज्वल भविष्य की कल्पनाओं का संजोना, शामिल करना बड़े हुनर का काम होता है। जब कवि नायिका के मन में उठने वाली उमंगों, मन में आने वाली सुखद हिलोरों की कल्पना करता है तो उसके साज श्रृँगार एवं सहायक उपक्रम चार चांद लगा देते हैं।

जैसे- उपरोक्त फाग में नायिका सोचती है- पति डोला सजाकर साथ लायेगा, मैं उसमें बैठकर ससुराल जाऊँगी, विदा के समय नायक के साथ गाँठ बाँधकर सखी-सहेलियाँ द्वारे तक पहुँचाने आयेंगी। ससुराल पहुँच कर लोकाचार होंगे, जिनमें द्वार पर पहुँचकर हत्ता (तेल और हल्दी के लेप में हथेलियाँ डुबोकर द्वार के दोनों और भित्ति पर छाप लगाना) लगाकर सास और ननद के चरणों में शीश झुकाकर गृह प्रवेश करेगी। नायिका को सबसे सुखद अनुभूति तब होती है, जब उसे फलाने की दुल्हिन कहकर पुकारा जाता है (नायक का नाम लेकर नायिका को उसकी पत्नी के रूप में सम्बोधित किया जाना।

बुन्देली लोक संस्कृति में नारियाँ अपने पति का नाम नहीं लेती है। इस फलाने जू शब्द में हिन्दुस्तानी नारी के शील और सौजन्य की बड़ी मनोहारी अभिव्यक्ति होती है। महाकवि ईसुरी  उस बालिका की मनोदशा का सुन्दर चित्रण कर बुन्देली लोकमूल्यों की झलक देकर बुन्देली साहित्य में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिख गए है। यहाँ ईसुरी की उन फागों का उल्लेख करना अत्यधिक प्रासंगिक है, जिनके द्वारा वे ग्रामीण नारियों के श्रृँगार का वर्णन कर लोकाभूषणों, गहनों तथा वस्त्र सज्जा के माध्यम से श्रंगार को जीवटता प्रदान करते है।

बनवा लेव पुंगरिया तड़के, आज पिया से अड़के।
ऐसी सखियां कोउ न पैरें, गांव भरे से कड़के।
हीरा-मोती खूब जड़े हों, भई मोल में बढ़के।
कहें ईसुरी प्यारी लाने, धुरी भुंसरा जड़के।

इसके पहले बुन्देली गहनों का विवरण है, जिनमें पुंगरिया नाक में पहनने का एक आभूषण होता है। ईसुरी बुन्देली माटी में जन्में पले-बडे़ होने के कारण बुन्देली संस्कृित का उन्हें पूर्णरूपेण ज्ञान था। सच्चा कवि वही माना जाता है, जो समकालीन परिप्रेक्ष्य की झलक अपने रचना संसार में समाहित करके सृजन धर्मिता का निर्वाह करे।

महाकवि ईसुरी को बुन्देली का महाकवि इसी आशय के साथ स्वीकारा गया है कि उन्होंने बुन्देली सभ्यता, संस्कृति, रीति-रिवाज, संस्कार, तीज-त्योहारों आदि सभी को अपनी रचनाओं में समाहित किया है। उनकी फागें बुन्देली जनजीवन की आत्मा बनकर उभरी हैं।

दूर से नौनी लगत ना मुंईयां, भलो पैर लो गुइयां।
गोल गाल गोरे छवि बारे, कऊं बंग है नइयां।
गाड़ी बैठी मोटी डांड़ी, भई पुंगरिया मइयां।
रजऊ रंगीली निकरी ईसुर, अकती खेलत खंइयां।

इस फाग में महाकवि ईसुरी ने नाक के गहनों का उल्लेख कर दुर और पुंगरिया गहने का नायिका की सुन्दरता में कितना अहम योगदान है, उसका वर्णन कर बुन्देली तीज- त्योहारों के अवसर पर गहने पहनने की प्रथा की ओर इशारा किया है। यहाँ अक्ती पर्व का उल्लेख आया है। बुन्देली लोकजीवन में अक्षय तृतीया को अकती कहते हैं, जो बैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है । नायिका के श्रंगार वर्णन में ईसुरी महारत प्राप्त कवि माने गए हैं। उन्होंने नारी सुन्दरता में गहनों, वस्त्रों तथा साज-श्रृँगार का बड़ा ही मनोहारी चित्रण किया है

लै गई प्रान पराये हरकें, मांग में सेन्दुर भरकें।

एक टिबकिया नैचें दैकें, टिकली तरे उतरकें।
तीके बीच सींक मिल बेंड़ी, कै गई भौंह पकरकें।
ईसुर बूंदा दए रजऊ ने, केसर सुधर समरकें।

सांकर कन्नफूल की होते, इन मोतियन की कोते।
बैठत उठत निगत बेरन में, परे गाल पै सोते।
राते लगे मांग के नैंचें, अंग-अंग सब मोते।
ईसुर इनको देख-देख कें, सबरे जेबर जोते।

जहाँ महाकवि ईसुरी  ने अपनी फागों में गहनों को समाहित कर बुन्देली साज-श्रृँगार का उल्लेख किया है, वहीं वस्त्रों के महत्त्व की नारी श्रृँगार में भूमिका का भी बड़ी सिद्दत से चित्रण किया है।

सैंया बिसा सौत के लाने, अंगिया ल्याये उमाने।
ऐसे और बनक के रेजा, अब ई हाट बिकाने।
उनने करी दूसरी दुल्हिन, जौ जी कैसे माने।
उए पैर दौरे से कड़ने, प्रान हमारे खाने।
मयके से न निंगत ईसुर,जो हम ऐसी जाने।

ऐसी क्या काऊ की गोरी, जैसी प्यारी मोरी ।
दाड़िम दसन सुआ सम नासा, सब उपमा है फोरी।
छू न कड़ी तनक चालाकी, चाल चलन की भोरी।
ईसुर चाउत इन खां ऐसे, जैसे चन्द्र चकोरी।

नायिका की सुन्दरता, हँसन-हेरन बोलन सभी का वर्णन कर ईसुरी ने श्रृँगार रस का बडे़ ही सलीके से निर्वाह किया है। वे कितनी बारीकी से कह जाते हैं।

इनकी बोलन भौतउ साजी, सुने होत मन राजी ।
कड़ते बोल कोकिला कैसे, दवा कौन खां माजी।
रोजउं-रोजउं हँसती रातीं, बोले से कओ आंजी।
ईसुर कभऊं काउ पै ना भई, मौं से ये इतराजी।

ऐसी हँस-हेरन मुनियां की, मौत भई दुनियां की।
बरबस जात मुठन ना पकरी, ना कांधे पनियां की।
डारे जात गरे में फांसी, गगर भरे पनियां की।
ईसुर पाप गठरिया बांधे, सिरजादी बनिया की।

पैरें छूटा कौन तरा के, भौजी संग हरा के।
अस कुसमाने कार विजाने, खुब रए गेर गराके।
डरवाये रेशम के गुरिया, बीच-बीच रह ताके।
ईसुर गरे गरो लेवे खां, गुलूबंद गजरा के।

नारी श्रृँगार में जितना महत्त्वपूर्ण स्थान गहनों-कपडों का है, उतना ही महत्त्व है गुदने का। महाकवि ईसुरी ने नारियों के गुदने Tetoos का भी बड़ी सुन्दरता के साथ वर्णन किया है। गुदना Tetoos लोकजीवन का पुराना व्यापक शौक है। ऐसी मान्यता है कि इसका प्रारंभ वात-व्याधि की चिकित्सा के रूप में हुआ।

बुन्देली जनजीवन में गुदने का व्यापक प्रचार है। ग्रामीण जनजीवन में गुदने Tetoos की अलग ही मान्यता है। इन्हें अनिवार्यता के रूप में स्वीकारा गया है। गुदना देह के विभिन्न अंगों में विभिन्न प्रकार से गोदे जाते हैं और महिलाएँ बड़ी रुचि के साथ गुदवाती हैं। नारियाँ अपने भाई- बहन तथा प्रिय के नाम भी अपने शरीर पर गुदवा लेती हैं। ईसुरी की फागों में भी गुदनों को देखिये।

गोदे गुदनारी ने गुदना, मिली हमारे जिदना।
जबरई बांह पकरकें मोरी, कर दए छिदना-छिदना।
अंसुआ गिरे आग के ऊपर, भीज गए दोउ जुबना।
देखी की दिखनौस बरै वा, घरी आई थी उदना।
गिरी तमारो खाय ईसुरी, रईतन मान की सुदना।

गोदौ गुदनन की गुदनारी,सबरी देय हमारी।
गालन पै गोविन्द गोदवे, कर में कुंज बिहारी।
बइयन भात भरी बरमाला, गरे में गिरवर धारी।
आनन्द कन्द गोद अंगिया में,मांग में भरौ मुरारीं।
करया गोद कन्दइया ईसुर, औठन मदन मुरारी।

महाकवि ईसुरी के साहित्य में श्रृँगार रस की प्रधानता उनकी साहित्यिक सक्षमता को प्रतिपादित करने वाली है। वे जीवन के हर परिदृश्य को श्रृँगार की चासनी में पगकर अपने श्रोताओं को देते थे, जिसका रसास्वादन आज उनके पाठक ले रहे हैं और उनकी फागों को गाने वाले फगवारे। ईसुरी की कई फागें ऐसी हैं जिनमें शाश्वत श्रृँगार देखने को मिलता है।

देखी पनहारिन की भीरें, कुआं वेर के नीरें।
ऐसी चली आउती जातीं, गैल मिलै न चीरें।
दो-दो जनी एक जोरा सें, घड़ा एंचती धीरें
ईसुर ऐसी-देखी हमनें, दई की खाईं अहीरें।

महाकवि ईसुरी   पनहारियों को पानी भरने के लिए आते-जाते देखकर उनके उस दृश्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि पनहारिने झुण्ड की झुण्ड पानी भरने के लिए आती-जाती हैं। रास्तों में चल पाना मुश्किल है। जब वे कुँआं से पानी निकालती हैं तो घड़ा को रस्से से बाहर खींचते वक्त दो-दो पनहारियाँ उसे साथ-साथ खींचती हैं। दूध-दही खाकर हस्ट-पुष्ट शरीर वाली अहीर जात की नारियाँ बड़ी लुभावनी लगती हैं। ईसुरी नायिका के प्रति उत्पन्न आकर्षण का चित्रण करते हुए कहते हैंl

तुमने नेह का जादू कीन्हा, हिया परायी लींना।
परगओ मंत्र मोहनी मोपै, बातन में पड़ दीना।
गिरदी खात रात दिन औरत,अब कल परत कहीं ना।
ईसुर आप भई मुंदरी हैं, मोखां करी नगीना।

पैरे फिरें लाख परदनियां, परधीली सी धनियां।
जगमगात पोत को गजरा, झिलमिलात दरपनियां।
लगा जोत जरवीली लागी, माथे पै मोहनियां।
ईसुर खात चली गई झोंका, ठनकारें पैजनियां।

 इसी तरह नायिका के प्यार में तड़पते नायक की मनोदशा का जितना प्यारा चित्रण महाकवि ईसुरी  की फागों में देखने को मिलता है, उतना किसी अन्य कवि की रचनाओं में नहीं।

जिदना लौट हेरती नइयां, बुरऔ लगत है गुइयां।
सूक जात मौं बात कड़त ना, मन हो जात मरैयां।
दुविदा होत तौन के डारो, तुम ही जान करइयां।
ईसुर पानी भरन चली गई कछवारे की कुइयां।

तिल की तिलन परन में हलकी, बांय गाल पै झलकी।
कै मकरन्द फूल पंकज पैं, उड़ बैठन भई अलकी।
कै चूं गई चन्द के ऊपर, बिन्दी जमुना जलकी।
ऐसी लगी ईसुरी दिल में, कर गई काट कतल की।

दुल्हिन जो नई बेंदी दैहें, छैलन मन लग जै हैं।
अमल अनन्द अनोखे मौंकों, नाका नाक बने हैं।
जाके लगे एक दिन धोकौ, सब खुल कान गमें हैं।
ईसुर भाल लाल रंग देखें, हाल बचन नई पैं है।

महाकवि ईसुरी ने नायिका के रूप-श्रृँगार एवं अंग-प्रत्यंग वर्णन में सामाजिक मर्यादाओं को ताक पर रख दिया और उस हद तक जाकर फागें लिख दी, जिन्हें सार्वजनिक रूप पर गाया जाना आसान नहीं हैं। इसके कुछ उदाहरण देखिये, किन्तु ये श्रृंगार की दृष्टि से साहित्यिक विधान में खरी उतरती हैंl

जुबना नोकदार प्यारी के, बने बैसबारी के।
इनने रेजा इतने फारे, गोटा और जारी के।
चपेरात चोली के भीतर, नीचे रंग सारी के।
ईसुर कात बचन ना पावें, मसक लेव दारी के।

जुबना दए राम ने तोरें, सबकोई आवत दोरें।
आएं नहीं खांड़ के घुल्ला, पिएं लेत ना घोरें।
का भओ जात हात के फेरें, लएं लेत न टोरें।
पंछी पिए घटी न जातीं, ईसुर समुद्र हिलोरें।

राती बातन में भरमाएं, दबती नइयाँ छाएं।
आउन कातीं आईं नइयां कातीं थीं हम आएं।
किरिया करीं सामने परकें, कौल हजारन खाएं।
इतनी नन्नी रजऊ ईसुरी, बूढ़न कों भरमाएं।

महाकवि ईसुरी नायिका राग में डूबे लोगों के दिल की बातें उजागर करते हुए कहते हैं….।
दिन भर देबू करे दिखाई, जामें मन भर जाई।
लागी रहो पौर की चैखट, समझें रहे अबाई।
इन नैनन भर तुम्हें न देखें, हमें न आवे राई।
ईसुर तुम बिन ये जिन्दगानी,अब तो जिई न जाई।

महाकवि ईसुरी  ने उपरोक्त फाग में कहा है कि हर नायक चाहता है कि उसकी नायिका उसकी आँखों के सामने रहे। वे कहते हैं कि नायक जब तक अपनी नायिका को जीभर के देख नहीं लेता है, तब तक उसके जी में चैन नहीं रहता है। यह ईसुरी के संयोग श्रृँगार रस की उत्कृष्टता का उदाहरण है।

सांस्कृतिक सहयोग के लिए For Cultural Cooperation

संदर्भ-
ईसुरी की फागें- घनश्याम कश्यप
बुंदेली के महाकवि- डॉ मोहन आनंद
ईसुरी का फाग साहित्य – डॉक्टर लोकेंद्र नगर
ईसुरी की फागें- कृष्णा नन्द गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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