मथुरा बृंदावन से वापस आकर महाकवि ईसुरी एक वर्ष तक चित्रकूट में रहे और वहाँ अनेक सतसंगों के माध्यम से मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की लीलाओं को सुना गुना और फिर फागों में गढ़ा। Isuri Ke Ram ने उन्हे अलौकिक ज्ञान से परिपूर्ण कर दिया।
बुन्देलखंड के महाकवि ईसुरी के राम
जिनके रामचन्द्र रखवारे, को कर सकत दवारे।
धर नरसिंग रूप कड़ आये, हिरनाकुश कौ मारे।
राना ज़हर दियों मीरा को, पीतन प्रान समारे।
मसकी उतै ग्राह की गरदन, झट गजराज निकारे।
ईसुर बचा लई है जिनने, सिर से गाज हमारे।
महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri ने कहा है कि जिनके ऊपर Isuri Ke Ram जी की कृपा है, उनका कोई भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता। वे जिसकी रक्षा करते हैं, उसका कभी अनर्थ नहीं हो सकता। श्री भगवान ने प्रहलाद की रक्षा के लिए नरसिंह रूप धारण किया और खम्बा फाड़कर बाहर आकर प्रहलाद के प्राण बचाए। मीरा को उनके देवर राणा ने ज़हर देकर मारने का प्रयास किया, मीरा ज़हर पी गईं, किन्तु उनके ऊपर जहर का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
ग्राह ने गजराज की गर्दन पकड़ ली और उसे मार डालने के प्रयास करने लगा, किन्तु वह गजराज का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया। उसी परमपिता परमेश्वर ने ईसुरी की रक्षा की है। बडे़-बडे़ लोग उन्हें बदनाम करने तथा बेइज्जत करने के लिए प्रयत्नशील रहे हैं, किन्तु ईसुरी का भी कुछ भी नहीं बिगाड़ सका।
महाकवि ईसुरी ने सीता स्वयंवर के धनुष भंग, परशुराम जी का कोप, सीता के द्वारा राम को वरमाला पहनाने के बाद राम विवाह का सुन्दर वर्णन किया है।
जिन खौं ब्याई जानकी जाने, शम्भु शरासन ताने।
भरन लगी कंचन की मंचे, झरन लगे मैदाने।
समाचार लिख दिए नृपति ने, न्यौते करे रमाने।
दुकन लगे महिपाल ईसुरी, बजने लगे सेहाने।।
महाकवि ईसुरी ने कैकेई द्वारा राजा दशरथ से दो वर मांगने तथा राम को वनवास और भरत को अयोध्या की राजगद्दी देने के प्रसंग पर बड़ी सुन्दर फागें कही हैं।
राजा राज भरत जू पावें, रामचन्द्र वन जावें।
कैकेई बैठी कोप भवन में, जौ वरदान मंगावें।
करदो अवधि अवध के भीतर, चैदई बरसै आवें।
आगे कुंआ दिखात ईसुरी, पाछें बेर दिखावें।
बन खां पठे दए दोउ भइया, काये कैकेई मैया।
पिता पठे सुरधाम बोर दई, रघुवंसिन की नइया।
हती सुमित्रा कौसल्या के, एकई एक डरइया।
ईसुर परी अवध में कारी, को पतभांत रखइया
वनवास के दौरान सीता जी का अपहरण हो गया। इस प्रसंग पर सीता हरण के लिए मारीच का कपट मृग बनना, राम का मृग के पीछे जाना, मारीच के द्वारा श्रीराम की आवाज़ में आर्तपुकार लगाना तथा सीता जी द्वारा लक्ष्मण को श्रीराम की सहायता हेतु जाने का आग्रह करना तथा लक्ष्मण जी द्वारा धनुष रेखा के भीतर सीता को रक्षित करने वाली बातों को महाकवि ईसुरी ने अपनी फागों में बांधा है।
हो गओ हरन जानकी जीकौ, चारों कौन किसी कौ।
खेंचत गए धनुष की रेखा, जीके बाहर झीकौ।
काट कुड़ौल काल बस मईयां, लगो रावने नीकौ।
ढूंड़न चले गए लक्ष्मण जी, बाट करो हैं काकौ।
ईसुर अशुभ भओ दसकंदर, धरतन रथ पै छीकौ।
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जब राम जी ने लछमन को वहाँ आते देखा तो वे समझ गए कि लछमन के साथ धोखा हुआ है। सीता जी निश्चय ही संकट में होंगी। वे शीघ्र पंचवटी की ओर दौडे़, किन्तु वहाँ पर सीता जी नहीं मिलीं। राम सीता के विरह में व्याकुल हो, उनकी खोज में जुट गए।
तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में लिखा है।
जीवन प्रान जानकी मेरे, बेई आंखन हम हेरे।
हिरा गई बनखण्ड विषे में, ज्वाब न देवें टेरे।
राजिव नैन भरे अंसुअन कें, परे दिनन के फेरे।
बिछुरन पर गई बेग सिया की, परमेसुर खा घेरे।
भल आई की बात ईसुरी, कबै विधाता टेरे।
रावण बडे़ घमण्ड में सीता का हरण कर बड़े मद में जा रहा है। वह भगवान शिव की कृपा मानकर कह रहा है कि प्रभु शिव ने उसे तथा उसके राक्षसों को घर बैठे भोजन भेज दिया है। वह श्रीराम को तुच्छ प्राणी मान रहा है।
रावन राम ना मोसें बांचे, अभिमानी ने सांचे।
जा रामा कौ जोग जुरत तौ, बे दसकंधर बांचे।
सूरवीर की खात हटे जिन, नहीं बेर खा बांचे।
जिनके जियत जिमी के ऊपर, नजरन ककरा नाचे।
ईसुर और देव न ध्याये, सेवा का शिव सांचे।
रावन राम न मोसें गाए, प्रानई चाय गमाये।
वे तपसी दोउ बीर जिनन की, सीता खां हर ल्याए।
बन्दर रीछ सहायक जिनके, जात हमाएं खाए।
ऐसी मरजी करी शंभु ने, घर भोजन पहुंचाए।
नर कैसे दो बालक ईसुर, अवधपुरी से आए।
रावण ने सीता जी का हरण कर अशोक वाटिका में रखा था। उसने राक्षसियों को निर्देश दिए कि वे सीता को प्रताड़ित कर उसे रावण से राग-बिहार करने के लिए राजी करें। जब यह खबर मंदोदरी को लगी तो उसने रावण को समझाने का प्रयास किया। उस प्रसंग से सम्बन्धित ईसुरी ने फाग कही…।
तुमने मोरी कही न मानी, सीता ल्याए बिरानी।
जिनकी जनकसुता रानी है, वे हरि अन्तरधानी।
हेम कंगूर धूल में मिल जें, लंका की रजधानी।
लै कैं मिलो सिकाउत जेऊ, मंदोदरि सियानी।
ईसुर आप हात हरिए जी, आनी मौत निसानी।
पीतम परे सिया को हरबो, तुम रावन न भरमो।
तुम हर लाए नार पराई, देख मारबो मरबो।
तुमने चाहो जगत मात खां, पाप की नज़र नज़रबो।
संवत सन आचई ईसुरी, राज विभीषण करबो।
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रावण अपनी हठ पर अड़ा हुआ था। मंदोदरी और विभीषण ने बहुत समझाया, किन्तु उसने एक भी नहीं सुनी और सीता-राम को नहीं लौटाई। फलतः युद्ध छिड़ा। राम ने वानर सेना लेकर लंका पर चढ़ाई कर दी। चारों तरफ से लंका को घेर लिया। लक्ष्मण-मेघनाद का भयंकर युद्ध हुआ। मेघनाद ने लक्ष्मण को शक्ति मार कर घायल कर दिया। लक्ष्मण बेहोश पड़े हैं। राम बड़े दुखित होकर विलाप कर रहे हैं। महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri ने इस प्रसंग को अपनी फाग में लिया है।
रोयें लक्ष्मन खां रघुराई, विपत कटावन भाई।
मुख देवे कौं संग पठवा दए, हरष सुमित्रा माई।
मोरे हेतु बरस चैदा इन, बनई विपत मजयाई।
मोरे हेत खेत रन जाके, सकत सामने खाई।
ईसुर एक अपोंच बता गओ, शत्रु को वैद दवाई।
राम को विलाप करते देख वानर सेना बड़ी दुःखी थी। विभीषण के सुझाव पर हनुमान लंका के राजवैद्य सुषैन को ले आए। सुषैन ने लक्ष्मण को देखा और द्रोणाचल पर्वत से संजीवनी बूटी मंगाने का सुझाव दिया। द्रोणाचल पर्वत हिमालय पर्वत माला का एक भाग था। राम जी ने हनुमान को यह कार्य सौंपा।
जो कऊं बीत जामनी जैहै, का कोऊ मोसें कैहै।
मरे धरे लक्ष्मण हम देखे, जियत राम न रैहै।
सुनतन विपत अवध में परहै, जनक सुता तज दैहै।
फिर पाछूं के मूर संजीवन, लयें जात को खैहै।
ईसुर हनुमान है हूंके, थोरी रात अबैहै।
हनुमान जी द्रोणाचल पर्वत पर गए, किन्तु वे संजीवनी बूटी पहचान नहीं पा रहे थे। अतः उन्होंने द्रोणाचल पर्वत को ही उठा लिया। वे उसे लेकर आ रहे थे कि भरत जी ने उनपर बाण चला दिया। हनुमान जी भरत का बाण लगने से द्रोणाचार्य सहित जमीन आ गिरे।
राम नाम लेकर आह भरी तो भरत जी समझ गए कि ये तो श्रीराम सेवक है। उन्होंने हनुमान जी को उठाया, परस्पर समाचार जाने, हनुमान ने युद्ध का हाल बताया और कहा कि मुझे सुबह होने के पूर्व युद्ध स्थल पर पहुँचना है। लक्ष्मण के प्राण संकट में हैं। भरत जी बड़े दुखी हुए और उन्होंने हनुमान जी को विदा किया।
वैद्य सुषैन ने संजीवन बूटी लक्ष्मण जी को सुंघाई। लक्ष्मण तत्काल उठ बैठे। लक्ष्मण ने मेघनाद से भयंकर युद्ध किया और उसे मार गिराया। मेघनाद की पत्नी सुलोचना उसके साथ सती हुई।
सत्ती हुई सुलोचन रानी, मेघनाद संग स्यानी।
कटी भुजा ने कलम पकरकें, कई रनखेत कहानी।
चढ़ विमान पै चली राम लौ, सुमरत सारंग पानी।
सिर दओ सोई प्रीत अंतस की, परब्रह्म पहिचानी।
इन्द्रजीत संग जरी ईसुरी, रावन की रजधानी।
राम-रावण युद्ध में राम ने लंका पर विजय पाई और विभीषण को लंका का राज्य सौंपकर उनका राजतिलक किया। महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri ने इस प्रसंग पर जो फाग कही।
जिनमें लंक विभीषण पाई, धन्य-धन्य रघुराई।
सोने पलंग फली स्वामी खां, विधि दई बनी बनाई।
जटल राशि लगी कंचन की, सेवन खां सिवकाई।
घूमन लगे निशान नोवदें, सुख संवद सानाई।
भजले राम नाम इक ईसुर, ऐसी होत कमाई।
इस तरह राम-रावण युद्ध में अन्याय और अत्याचार पर राम ने विजय प्राप्त की। रावण का सर्वस्व नष्ट हो गया। महाकवि ईसुरी ने अपनी फाग में कहा है…।
को रओ रावण के पन देवा, बिना किए हर सेवा।
करना सिंधु करौ कुल भर को, एक नाव कौ खेवा।
काल फंद अवधेश छुड़ाए, जै बोलत सब देवा।
बाकन लगे काग महलन पै, भीतर बसत परेवा।
ईसुर नास मिटानत पावत, पाप करे को मेवा।
मनतें भजत काए नई रामें, आए आखिरी कामें।
सुआ पढ़ाउत गनका तर गई, सोंरी लेते नामें।
नाम लेत रैदास चले गए, चला चाम के दामें।
अपने जन की बेई निभावत, पठे दये सुर धामें।
ते नई भजत ईसुरी जाने, तोउ नरक के गामें।
अतः राम नाम बड़ा प्रतापी है। यदि मनुष्य अपना भला चाहता है तो राम नाम भजन करना चाहिए।
लै ले राम नाम है सच्चा, लगै न दुख कौ दच्चा।
वरत अगन में कूदत आए, मनजारी के बच्चा।
हिरनाकुस प्रहलाद के लाने, कौन तमासो रच्चा।
ईसुर लै लै नाम चले गए, मीरा दोला फच्चा।
जी की लगी राम से दुरिया,कसें पराई पुरिया।
घंटा बजो भोग जब लागो,आई बसोर बसुरिया।
सब भगतन में शामिल चइये, ओई में भक्ति पतुरिया।
तुलसी भये सुनेर ईसुरी, भक्त माल को गुरिया।
सांस्कृतिक सहयोग के लिए For Cultural Cooperation
संदर्भ-
ईसुरी की फागें- घनश्याम कश्यप
बुंदेली के महाकवि- डॉ मोहन आनंद
ईसुरी का फाग साहित्य – डॉक्टर लोकेंद्र नगर
ईसुरी की फागें- कृष्णा नन्द गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’
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