वरिष्ठ रंगकर्मी और अभिनेत्री समता सागर द्वारा लिखित और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक वरिष्ठ रंगकर्मी संजय श्रीवास्तव द्वारा निर्देशित नाटक “गुड़िया की शादी” Gudiya Ki Shadi का मंचन देखना एक अद्भुत अनुभव है । शास्त्रीय नाट्य परिभाषा के अनुसार यह एक सुखांत नाटक है । कथा वस्तु बहुत ही सहज और सरल है।
अहं, द्वन्द और प्रेम के उलझे धागों को सुलझाती प्रस्तुति
बुन्देलखंड के एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की एक चेहरे से कुरूप दिखने वाली लड़की गुड़िया की शादी मुश्किल से तय हो पाई है। एक पुरुष प्रधान, दहेज प्रधान समाज में लड़की, यानि एक अघोषित बोझ होने का दंश और ऊपर से कुरूप होने का कलंक । यह सब एक बिटिया को परिवार और समाज में जीवन पर्यंत ताने और उलाहनाएं दिलाने के लिए पर्याप्त होता है । ऐसे में भूलवश गुड़िया की भौहें भी साफ़ हो जाती हैं । पूरा परिवार घबरा जाता है कि अब गुड़िया की शादी टूट न जाए ।
ऐसी परिस्थितियों में परिजनों और रिश्तेदारों के आपसी द्वन्द, स्वार्थ और अहम के टकरावों का ताना-बाना भी देखने को मिलता है । नाटक सुखांत है, अतः अंत में सब ठीक होता है, लेकिन सब कुछ ठीक होने की प्रक्रिया स्वाभाविक और संभाव्य होना ही इस नाटक की शक्ति है । दरअसल लेखिका ने गुड़िया की भौहों के रूपक में सभी पात्रों का सहज, स्वाभाविक तथा झूठ, कपट और अहंकार के आवरण से मुक्त जीवन को निहित किया है ।
हमारे जीवन में जन्म से लेकर ही हमें कुछ आवरण सिखाये जाते हैं, जो कालांतर में हमारे जीवन को अस्वाभाविक और कठिन बना देते हैं । उनके कारण हमारा व्यवहार भी नियत्रित हो जाता है और हम तनावपूर्ण जीवन जीते रहते हैं । यह नाटक हमें सहज होने का पाठ पढ़ाता है । एक संवाद है, जहां गुड़िया कहती है कि उसे जोर से पेशाब आई है, क्या वह पेशाब करने जा सहती है? इस पर उसे डाँटा जाता है कि बाथरूम नहीं बोल सकती !! बस यही मर्म है हमारे जीवन को आवरणमय बनाने की प्रक्रिया का, जिसे लेखिका ने बखूबी रेखांकित किया है ।
आर्थिक विपन्नता भी कुरीतियों की जकड़न बढ़ा देती है । ऐसे में माता, पिता भाई, बहन, भाभी और सभी रिश्तेदारों की नकारात्मक बातें और ताने गुड़िया की नियति बन गये थे । यह एक स्थाई और चिर शास्वत समस्या है, जिसका समाधान प्रथम दृष्टया असंभव प्रतीत होता है । लेकिन लेखिका ने सकारात्मकता की शक्ति को समाधान के रूप में स्थापित किया है, जो कथानक में पूरी तरह से विश्वनीय भी लगता है । गुड़िया के ऊपर किसी के तानों और जली-कटी बातों का कोई असर नहीं होता है ।
उसके चरित्र में एक निश्छलता और स्पष्टता है । जीवन को वह सीधे दो दूनी चार के गणित से जीना जानती है । यही कारण है कि कथाक्रम के दौरान एक एक करके पात्र उसके संपर्क में आते हैं, और अपने भ्रम, द्वन्द और मिथ्या आवरणों को न सिर्फ़ पहचान पाते हैं बल्कि उनसे मुक्त होने का मार्ग भी पाते हैं । गुड़िया की सहजता और जीवन के प्रति ईमानदारी ही वह जीवन दर्शन है, जो कहानी में सभी की राह आसान बना देता है । नाटक देखकर सहज विश्वास होने लगता है कि हम सभी के जीवन में भी यही सूत्र कारगर होगा ।
नाटक के निर्देशक संजय श्रीवास्तव पिछले ढाई दशक से क्रमशः दिल्ली और मुंबई में निवास ज़रूर कर रहे हैं, लेकिन उनका जन्म बुंदेलखंड के टीकमगढ़ ज़िले और उच्च शिक्षा सागर ज़िले में हुई है । ऐसे में बुंदेलखंड सदैव उनके अवचेतन में स्थापित रहता है । इस नाटक के निर्देशन में उन्होंने अपने अंदर समाहित बुन्देलखंड को उद्घोषित करते हुए आदरंजलि दी है । संवाद, वेश-भूषा, चरित्र, सेट, प्रॉप्स, संगीत, गीत, पात्रों के हाव-भाव और सूक्ष्म मनोभाव, सब कुछ बुंदेलखंड का सशक्त प्रतिनिधित्व करता है । निर्देशन में इतनी महीनता संभवतः संजय के तीन दशक के रंगकर्म का प्रतिसाद है। सेट पर बुंदेलखंड के पुराने घरों का आर्किटेक्ट उतारा गया है ।
अटारी, दालान, जलघरा, आले, मढ़ा आदि देखना सुखद था । नाटक के दौरान प्राचीन बुंदेली वाद्य यंत्र रमतूला का प्रयोग किया गया है । नाटक का प्रवाह इतना तरल है कि दर्शक निष्प्रयास ही कथाक्रम से जुड़े रहते हैं । जब एक संवाद आपकी भावना के मर्म को छूता है तो फ़ौरन दूसरा आपको गुदगुदा जाता है । पात्रों की वेश-भूषा और शारीरिक भाषा बुंदेली परिवेश का सच्चा प्रतिनिधत्व करती है । यह कार्य निर्देशक के लिए निश्चित तौर पर चुनौतीपूर्ण रहा होगा ।
विवाह संस्कार से जुड़े बुंदेली गीत बन्ना -बन्नी, गारी, रैया, बिदा गीत, लाला हरदौल का न्योता गीत आदि इस नाटक में सुनना रोमांचित कर देता है । बेटी का विदाई गीत “कच्ची ईट बाबुल देहरी न धरियो, बेटी न बियाहियो परदेस मोर लाल, मोर खेलत के पुतरा-पुतारिया नदी में दैयो सिराय मोर लाल ” आँखों को सजल कर देता है । सास, बहू, ननद, बुआ की स्त्री सुलभ बातें, पिता और भाई की भूमिकाएँ, दरोग़ा का रौब, फूफा का रूठना और मान जाना यह सब कुछ इतनी बारीकी से गढ़ा गया है कि देखते ही बनता है । विवाह वाले घर की इतनी सारी गतिविधियों से आज की नई पीढ़ी संभवतः पूरी तरह से परिचित ही नहीं है । तनाव के माहौल में भी पात्रों की क्रियाएँ, प्रति क्रियाएँ एक सहज और स्वाभाविक हास्य उत्पन्न करती हैं ।
प्रस्तुति में सभी कलाकार नये थे, लेकिन अपनी भूमिकाओं से पूरा न्याय करने में सफल रहे । कुछ पात्र बुंदेलखंड पृष्ठभूमि के नहीं थे, लेकिन उनके द्वारा बुंदेलखंडी बोली में बोले गए संवाद सुनना एक सुखद अनुभव रहा । गुड़िया, फूफा और बड़ी बहू ने विशेष तौर पर प्रभावित किया । नाटक का सेट प्रस्तुति को जीवंत बना रहा था ।
संगीत पक्ष सशक्त रहा और बुंदेलखंड के विवाह संस्कार के गीतों के मर्म को छू कर निकला । प्रकाश संयोजन दृश्यों के अनुरूप रहा । जीवन में रिश्तों और संबंधों के प्रति सादगी और ईमानदारी नाटक की मुख्य विषय वस्तु है । जिसे निर्देशक ने बहुत सहजता से रेखांकित किया, लेकिन साथ ही बुंदेली माध्यम वर्गीय परिवारों का समग्र जीवन चित्र मंच पर खींचना निर्देशकीय सफलता का असली सोपान है । बुंदेलीभाषा, लोकाचार, लोकरीत, लोकगीत-संगीत-नृत्य, लोक विन्यास, कला, संगीत संस्कृति आदि के संरक्षण के लिए किए जा रहे कई प्रयासों से यह नाटक भारी प्रतीत हुआ ।
भोपाल के रविंद्र भवन के मंच पर दिनांक 4 एवं 5 जुलाई को आयोजित लगभग पौने दो घंटे की अवधि के इस नाटक के दौरान पूरा सभागृह दर्शकों से खचाखच भरा रहा । लगभग हर मिनिट लोगों के ठहाके आ रहे थे। कुछ संवादों और दृश्यों पर लोग अपने आँसूँ पोंछते भी देखे गये । पौने दो घंटे का समय कैसे बीता, पता ही नहीं चला । बाहर निकलते हुए दर्शकों के मन में जीवन के प्रति एक स्पष्टता थी, भले अगले घंटे वह विलुप्त हो जाये, लेकिन उसे दर्शकों के मन में जगाने में नाटक पूरी तरह से सफल रहा ।
साभार
आशीष चौबे