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ग्रामीण नायिका-चार बजे सें चलै चकिया स्वर चारु चुरीन में गाउतीं नौनीं

ग्रामीण नायिका

चार बजे सें चलै चकिया स्वर चारु चुरीन में गाउतीं नौनीं।
प्रात सों सूर्य की स्वर्णछटा बिच, घूँघट घाल कें डारें ठगौनीं॥

दौनी चलीं करिवे कर दौनी ले औ कटि बीच कसें करदौनीं।
पैज न काहु सों पाँवन पैजना गाँवन बीच चली है सलौनीं ॥

प्रातः चार बजे से आटा पीसने की चक्की चलने की आनंददायक ध्वनि आने लगी और चक्की के मुँह दाना डालते हुए सुन्दरी मोहक स्वर में गा रही है। प्रातःकाल सूर्योदय की स्वर्णिम किरणों के फैलने तक के मध्य काल में घूँघट डाले-डाले ठगौनी उरैन डालती हैं। इसके बाद गाय का दूध दुहने के लिये हाथ में दौनी (गाय का पैर बांधने की रस्सी) लेकर और कमर में करधौनी पहिने हुए जाती हैं। गाँव के बीच में जाती हुई कमनीय सुन्दरी के पैरों में पड़े पैजनों (पैरों का आभूषण) की किसी से बराबरी नहीं हो सकती।

चीकने हाँतन-चीकनो गोबर लीपत है अँगना अँगना।
लीपत है करकें करकें, थपथोरत में खनके कँगना॥

चारु से चौक में चौक सुचारु लगी ढिक पोतनी कौ पुतना।
भोरी सी गोरी यही जनवै सजना के लिये ही सदा सजना॥

ग्रामीण नायिका अपने चिकने हाथों से प्रांगण में चिकने गोबर का लेपन कर रही है। लेपन की क्रिया वह युक्ति से हाथ कड़ा करके करती है। इसमें थपथपाने (गोबर हाथ से निकालने हेतु धरती पर पटकना पड़ता है) से हाथ में पहिने हुए कंगन आपस में टकराकर मधुर ध्वनि करते हैं। सुन्दर प्रांगण में रुचि-रुचि कर उत्तम चौक बनाने के लिये वह सुन्दरी सफेद माटी से किनारें बना रही है। वह भोली-भाली यौवना यह जानती है कि सभी श्रृँगार एवं साज-सज्जा अपने प्रियतम के लिये ही किये जाते हैं।

हाथन बीच लसै कलशा, सिर पै गगरी पै धरी गगरी।
मंद सी चाल अमंद चले दृग हेरत है अपनो मग री॥

डगरी भर देखत है धनिया धनिया बस देखत है डग री।
द्वारे पै घूंघट खोलै तौ लागत शोभा समूल परै बगरी॥

ग्रामीण नायिका पानी भरकर लाती है। उसके हाथों के बीच एक कलशा सुशोभित है और सिर के ऊपर एक घट के ऊपर दूसरा घट रखे हुए है। वह धीरे-धीरे चल रही है किन्तु उनके नयन तीव्रता से चल रहे हैं, वह अपना सीधा मार्ग देख रही है। मार्ग में सभी लोग उस सुन्दरी को देख रहे हैं किन्तु वह केवल अपना रास्ता देखती है। घर के द्वार पर जब उसने अपना घूँघट खोला तो ऐसा प्रतीत होता था मानो सम्पूर्ण रूप से सुन्दरता यहाँ बिखर गई हो।

मंडित मोद मठा मद मोरिवे को महि पै रखि कै मटकी।
भावनों लागै सुभावनों तापै कड़ैनियाँ की छवि हू छटकी॥

हाथ चलैं तौ बजैं चुरियाँ सँग डोलै किनारी हू घूँघट की।
डोलन देख कें डोलै जिया मटकी हित नारी फिरै मटकी॥

आनंद विभोर हुई नायिका दही मथने के लिये जमीन पर मटकी (बड़ा घट) रखती है। मथने की क्रिया करते समय वह बहुत अच्छी लग रही है और मथानी में लिपटी रस्सी का छिटक कर घूमना अनोखी शोभा दे रहा है। जब मथते समय हाथ चलते हैं तो उसकी चूड़ियाँ मधुर ध्वनि में बजती हैं और घूँघट की किनार भी साथ में घूँमती हुई मनोहर लगती है। सुन्दरी मथानी को सम्हाल कर चलाती है ताकि मटकी में मथानी टकरा न जाय इसके लिये उसे स्वयं घूमना पड़ता है इस डोलने की शोभा को देखकर हृदय में भी कम्पन होने लगता है।

रोटी पै साजी सी भाजी धरी पुनि भाजी पिया हित घाल कछौटा।
जूनरी रोटी पै चूनरी ढाँकि कैं हाथ लियें जलपान कौ लोटा॥

भाल दिठौनों औ काजर आँख में काँख में दावै सलोनो सौ ढोटा।
मेंड़न पै फुँदकात चली अली नाहीं किशोर सनेह कौ टोटा॥

ग्रामीण नायिका रुचिकर बनी भाजी को रोटी (चपाती) पर रखकर अपने प्रियतम को देने भागती है। ज्वार की रोटी पर अपनी चुनरी ढाँके हुए है और हाथ में पानी भरा लोटा लिये है। अपनी बाँह के बीच में अपने छोटे से सुन्दर पुत्र को लिये है जिसके माथे पर काजल का काला दिठौना और आँखों में काजल लगा हुआ है। वह खेत में ऊँचे किनारों पर कूदती-इठलाती चली जा रही है उसकी तरुणाई और स्नेह में किसी प्रकार की कमी नहीं है।

देख्यो धना के धनी नें धना कों सुआवै चली पग देत उतालें।
मैन जगायिवे पैजना बोलत नेह जगायवे घूघटा घालें॥

प्रेम बढ़ायिवे कों जलपान औ नेह कौ गेह सुछौना सम्हालें।
आवत है हिय में हुलसी जिय में जुग जानो परेवा से पालें॥

प्रियतम ने अपनी प्रियतमा को देख लिया है, जो शीघ्रता से पग रखते हुए आ रही है। कामदेव को जागृत करने के लिये उसके पैजना (पैरों के आभूषण) मधुर ध्वनि कर रहे हैं और हृदय में स्नेह की तरंगें उत्पन्न करने के लिये घूँघट डाले हुए हैं। प्रेम को अधिकाधिक अभिव्यक्त करने के लिये हाथ में जलपान की सामग्री है और साथ में सम्हाल कर बेटे को लिये हुए हैं जो दोनों के लिये स्नेह का घर (केन्द्र बिन्दु) है। वह हृदय में उल्लास लिये हुए और छाती में दो परेवा से पाले हुए आ रही है।

रचनाकार – पद्मश्री डॉ अवध किशोर जड़िया का जीवन परिचय

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