बुन्देली के सिद्धहस्त कविवर Govind Singh Yaduvanshi का जन्म पन्ना में देव प्रबोधनी एकादशी सम्वत् 1935 को हुआ। इनके पिता जी का नाम श्री खलक सिंह तथा माता जी का नाम श्रीमती यशोदा देवी था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा पन्ना में ही हुई, बाद में आपने डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से बी.ए. किया। शिक्षा पूरी करने पर शिक्षक के रूप में नौकरी की।
बुन्देली के सिद्धहस्त कविवर श्री गोविन्द सिंह यदुवंशी
श्री गोविन्द सिंह यदुवंशी में कविता लिखने की प्रवृत्ति बचपन से ही रही। इनका खजुराहो पर आधारित बुन्देली खण्डकाव्य ‘घुँघरू बिन ककरन के बोलें’ अप्रकाशित हैं। ये अच्छे गीतकार हैं। इनकी रचनाओं का प्रसारण आकाशवाणी से भी होता रहता है। अब आप सेवानिवृत्ति के बाद पन्ना में ही रहते हैं।
कीने जे चँदा सूरज से, मंदिर इतय उतारे।
कामधुरी पै दुनिया नच रइ, खजुराओ के द्वारे।
काम रूप राजा चंदेला, रति रूपा महरानी।।
ग्यान धियान विग्यान कला में रानी चतुर सयानी।
चंदेलों के राज कैया को, ढुलन न पाओ पानी।।
नचना चौमुखनाथ अजयगढ़ कालींजर वरदानी।
पबई कलेहन माइ कालिका मइहर मातु भुमानी।।
उत्तर से दक्खन लौ चंदेलन ने विजय ध्वजा फहराई।
घोड़े रये रौदते उनके दुस्मन थी जिनकी तरुणाई।।
उनके बान आग उगलत रय, बरसाउत रये अंगारे।
काल नचाउत रये ढाल पै, बाजत रये नगारे।।
कवि कहता है कि चन्द्रमा और सूर्य के समान इन मंदिरों को किसने यहाँ अवतरित करा दिया कि आज खजुराहो से काम केन्द्रित हो चक्कर लगा रहा है। चंदेल राजा काम के रूप में और महारानी रति के रूप में प्रतिष्ठित है। ज्ञान, ध्यान और विज्ञान की कला में महारानी बहुत निपुण हैं। चंदेलों की प्रजा के पेट का कभी पानी नहीं डुला अर्थात् कभी कोई तकलीफ नहीं हुई।
सिद्ध स्थान कालिंजर, अजयगढ़ और नचना से लेकर पवई, कलेहन, मैहर की शारदा देव के मंदिर की सीमा रेखा मानते हुए उत्तर से दक्षिण दिशा चन्देलों के गीत का झंडा फहराता रहा। उनके घोड़े शत्रु की युवा शक्ति को सदैव परास्त करते रहे। उनके बाणों में चमत्कारिक शक्ति थी और ढाल पर काल को रोकने की कला थी। उनके विजय के बाजे बजते रहते थे।
काये बने इतय मंदिर बाहर नग्न रूप मनियारे।
ऐसे मंदिर कउँ न देखे जे दिखे जगत से न्यारे।।
कैसी नोनी बनी पुतरिया, तनक सरम तौ नइयां।
देखत बने न ईकी धारा, लुगवा लैय कन्इया।।
ऐसे बोल न बोलो प्यारी, जग भर सें जा न्यारी।
काया रास रंग में डूबी माया रइत उघारी।।
जिनके मन में पाप बसत है बेई उन्ना पहरत।
जिनके तनखों छूत लगत है बेई दिन भर सपरत।।
ऐसौ कौन जनम नारी कौ जो न तनक लजाबे।
ऐसौ को जोगी ई जग में भोगिह जोग बतावे।।
दर्शक नायिका कहती है कि ये मंदिर के बाहरी भाग में क्यों स्थित है और इनमें मूर्तियों के नग्न चित्रण क्यों किये गये हैं ? देखो, यह कितनी सुन्दर मूर्ति है किन्तु इसको तनिक भी लज्जा का भाव नहीं है, इसकी दशा कहते नहीं बनती, इसको पुरुष गोदी में लिये है। नायक कहता है- हे प्यारी! ऐसे शब्दों का प्रयोग मत करिये।
ये मंदिर संसार भर से अलग हैं और अनूठे हैं। शरीर सांसारिक क्रिया (रास के आनंद) में लिप्त रहता है किन्तु माया आवरण रहित होती है। जिसके मन में पाप होता है वही कपड़े पहिनता है। जिनके शरीर को अस्पृश्यता लगती हो वही पूरे दिन स्नान करता है। नायिका कहती है कि ऐसी नारी का जन्म व्यर्थ है जिसमें तनिक भी लज्जा न हो और ऐसा कौन योगी है ? जो भोग को ही योग की संज्ञा देता है।
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)