बुंदेलखंड में मान्यता के अनुसार Dulha Dev का पूजन विवाहोत्सव में प्रमुख रूप से अनिवार्य है। कहते है कि यह विवाह की विघ्न बाधाओं को हरने वाले देवता है, विवाह से अंत तक इनकी मनौती मानी जाती है। जब तक लड़का-लड़की, दूल्हा-दुल्हन के भेष में रहते हैं। इनके संरक्षण में रहते हैं, हर ग्राम में दूल्हा देव का चबूतरा हैं, सूक्ष्म रूप से इन्हें वह सारी सामग्राी चढ़ाई जाती हैं जो दूल्हा के पहनावे में आती है एवं विवाह के पूर्व प्रथम निमंत्रण इन्ही का किया जाता हैं। पीला, केसरिया, सफेद व लाल रंग का इनका बाना हैं।
मान्यता के अनुसार ये हरदौल जू के भनेज दामाद थे एवं उनके पूजन के प्रथम पूज्य माने गये हैं। किसी-किसी ग्राम में हरदौल का एवं दूल्हा देव का चबूतरा एक ही स्थान पर आस-पास पाया जाता हैं एवं एक ही साथ पहले दूल्हा देव की ओर बाद में हरदौल जी की पूजा की जाती हैं।
कहते है कि हरदौल जी को उनके बड़े भाई जुझार सिंह ने उन्ही की भाभी के हाथों जहर दिलाकर मरवा दिया क्योंकि उन्हें अपनी पत्नि एवं छोटे भाई के चरित्र पर संदेह हो गया था। छोटे भाई हरदौल ने जानते हुये जहर मिला भोजन करके भाभी की मर्यादा को पूज्य बनाया।
इन्ही की बहिन कुन्जा ने अपनी बेटी की शादी में रोते हुए भाई को याद किया और हरदौल अपनी भनेजन की शादी में आभा के रूप में प्रकट हुए एवं दूल्हा के हठ करने पर उन्होंने दर्शन दिये। अपने भनेज दमाद को बारह गांव भी दिये, जहां आज भी हरदौल की पूजा नही होती। कहते है फकीरी संतों और महापुरषों के गांव नही होते पर उनके नाम पर गांव बनाये जाते हैं। बुंदेलखण्ड क्षेत्र में हरदौल के चबूतरें हर गाँव में मिलेगें।
देवर भाभी के पवित्र प्रेम की गाथा एवं भाई-बहिन का अमर प्यार आज भी यहां स्मरण किया जाता हैं और आज भी जो गांव उन्होंने अपने भनेज दमाद को दिये, वहां न तो हरदौल के चबूतरें मिलेगें और न वहां इनका पूजन होता हैं जैसे- राव, रायली, पठा, चंदावली, डेरा सकेरा, हरा परेरा इत्यादि ग्रामों में इनका पूजन उनके दमाद को दिया जाता हैं। हरदौल की कथा आज भी उतनी ही ताजी और स्मणीय है जितनी उनके समय में थी और सदा रहेगीं।