Dhimaryai-Bundelkhand Ka Lok Nritya जातिगत नृत्य है। ढ़ीमर जाती के लोग इसे करते हैं इसलिए इसका नाम ढ़िमरयाई नामकरण हुआ । बुंदेलखंड में निवासरत ढीमर जाती का काम पानी से सम्बंधित रहा है, जैसे घरों में पानी भरना या जलाशय से मछली पकड़ना। इसलिए व्यवसाय का आधार जल ही है, चाहे वह पीने के लिए हो अथवा जल-मछली के पकड़ने को । ढ़िमरयाई नृत्य में जो गीत प्रयुक्त होते है उनमें जल और मछली का चित्रण जरुर होता है-
ढीमर मरे तो शंकर जी होय रेऽऽ
ढिमरानी अरे सो गोरा पार्वती होय रे ऽऽ
एक तो उनकी लरका-वारे मरतई नाईयां रेऽऽ
मर जाए तो शालिग्राम की बटईंयां होय रेऽऽ
ढीमर के खुल गए भाग फंस गई जल मछली
मोड़ा-मोड़ी के खुल गए भाग फंस गई जल मछली
ढ़ीमर जब शाम को थके हारे लौटते थे, तब अपनी थकान दूर करने के लिए गुनगुनाते थे, नाचते थे। ढ़िमरयाई नृत्य में गीत, कथा, संगीत, पदचालन, मुद्राएँ, वेशभूषा, अनुष्ठान आदि जुड़ते चले गए और ढ़िमरयाई एक सम्पूर्ण लोकनृत्य की संज्ञा पा गया। इस नृत्य में सारंगी या रैकड़ी वादक की प्रमुख भूमिका होती है या उसकी भागीदारी को देखकर यह कहा जा सकता है कि यह नृत्य व्यक्तिगत नृत्य है।
एक व्यक्ति जो कि सारंगी का वादन करता है, नर्तन भी वही करता है तथा प्रमुख गायक भी वही होता है। इसलिए इस नृत्य को व्यक्तिगत कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। नृत्य में प्रमुख नर्तन एक व्यक्ति ही होता है, अन्य तो उसके सहायक होते है। ऐसा व्यक्ति जो बहुमुखी प्रतिभाओं का धनी हो वही इस नृत्य को कर सकता है।
इसके अलावा खंजड़ी वादक, लोटा वादक, तारे या झीका, मृदंग तथा सहगायक नृत्य में होते है। वादक जो कि प्रमुख नर्तक होता है वह धोती, कुरता, जैकेट, साफा पहने होता है, पैरों में घुंघरू बंधे रहते हैं। ढ़िमरयाई नृत्य चक्करदार नृत्य है, इसके अलावा भी कई तरह की नृत्य मुद्राएँ होती हैं।
बुंदेलखंड की परंपरा के अनुरूप ढिमरयाई नृत्य में गीतों की श्रृंखला ईश्वरीय पदों से होता है जिसको सुमरनी कहा जाता है।
सदा भुवानी दायनी।
सन्मुख रहत गणेश ।।
पांच देव रक्षा करे।
सो वरमा विष्णु महेश।।
पानी को रोजगार ढीमर तोरे पानी को ।
चार घिंनौची भरत्ते पानी सो चार घिंनौची भरत्ते पानी।
चार घिंनौची भरत्ते पानी सो आना मिलत्ते चार,
आना मिलत्ते चार तुमाई सौं आना मिलत्ते चार,
ढीमर तोरे पानी को
पानी को रोजगार ढीमर तोरे पानी को।
चार रोटी को करत कलेऊ सो चार रोटी को करत कलेऊ ।
चार रोटी को करत कलेऊ सो तनक चुआ दई दार,
तनक चुआ दई दार तुमाई सौं तनक चुआ दई दार,
ढीमर तोरे पानी को
पानी को रोजगार ढीमर तोरे पानी को।
पानूं भरबे गई छबीली सो पानूं भरबे गई छबीली।
पानूं भरबे गई छबीली सो बीच में मिल गए यार,
बीच में मिल गए यार तुमाई सौं बीच में मिल गए यार,
ढीमर तोरे पानी को
पानी को रोजगार ढीमर तोरे पानी को।
हास-परिहास युक्त इस गीत को सुनकर हमें भले ही आन्नद आ जाय लेकिन इस गीत में पानी भरने वाली इस जाति की आर्थिक अवस्था का नग्न चित्र उपस्थित हुआ है आर्थिक विपन्नता ने इनकी स्त्रियों की सच्चरित्रता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।
एक दूसरे गीत में आंगन में अनमनी खड़ी: गोरी से रसिया प्रश्न करता है कि तेरे बाजूबंद, कंगन व मोहन माला काहे की है वह उत्तर देती है कि सोने के बाजूबंद, चांदी कंगन तथा रूपे की मोहन माला है। भला यह तो बताओ यह तीनों आभूषण तुम्हें किसने दिए हैं। वह कहती है कि देवर ने बाजूबंद, ननद ने कंगन तथा मेरे ससुर ने मोहनमाला दी है फिर तुम्हारे ये तीनो गहने टूटे कैसे ? वह कहती है खेलने में बाजूबंद,निहुरने में कंगन तथा पति से लिपटने में मेरी मोहनमाला टूट गई है ।
काहे दिल डारें गोरी ठाड़ी अंगना
काहे के तोरे बाजूबंदा काहे के कंगना, काहे की तोरी मोहनमाला जपरई अंगना।
सोने के मोरे बाजूबंदा चांदी के कंगना, रूपे की मोरी मोहनमाला जपरई अंगना।
कौना लै दये बाजूबंदा कौना ने कंगना, कौना लै दई मोहनमाला जपरई अंगना ।
देवरा नै दए बाजूबंदा ननदी ने कंगना, ससुरा ने लै दई मोहनमाला जपरई अंगना।
कैसे टूटे बाजूबंदा-कैसे के कंगना, कैसे टूटी मोहनमाला जपरई अंगना।
खेलत टूटे बाजूबंदा-निहुरत में कंगना, लिपटत टूटी मोहनमाला जपरई अंगना।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल