धावड़ी घाट Dhavdi Ghat को कुछ लोग ‘धायड़ी घाट’ और कुछ लोग ‘धारा क्षेत्र’ भी कहते हैं । यह धारा क्षेत्र खण्डवा जिले के पुनासा नामक कस्बे से लगभग पन्द्रह किलोमीटर उत्तर में है तथा नर्मदा सागर बाँध से नर्मदा पर पश्चिम में है। उत्तर तट पर देवास जिले के बागली कस्बे तरफ से भी यहाँ जाया जाता है। पुनासा तरफ से जाने वाला मार्ग दुर्गम है । बागली तरफ का मार्ग सुगम है।
पुनासा से धावड़ी घाट तक वन की सुरम्य छटा देखते बनती है। सागौन और अंजन के पेड़ इस क्षेत्र के बहुत महत्वपूर्ण वन्य सदस्य हैं। सागौन तो मध्यप्रदेश के जंगलों का सोना है और अंजन स्पात ।पहले अंजन की लकड़ी से रेल्वे के स्लीपर बनते थे । जब तेज गर्मी पड़ती है सागौन निपात हो जाता है, पर अंजन हरियाता है । धावड़ा, टेमरू और अचार (चिरौंजी) के पेड़ इस वन परिवार के दूसरे ढंग के कमाऊपूत हैं।
धावड़ा से गोंद, टेमरू से तेंदूपत्ता तथा टेमरू फल और अचार से चिरौंजी मिलती है । कभी यह क्षेत्र इन वस्तुओं से भरा-भरा रहता था। अब इन पेड़ों की संख्या कम होती जा रही है। ये सहज प्राप्त होने वाले जंगली मेवे दुर्लभ होते जा रहे हैं। राम ने इन मेवों के सहारे पूरी चौदह वर्ष की अवधि में आहार प्राप्त किया था। बीच-बीच में आँवला झाँक – झाँककर अपनी उपस्थिति से राही को वन्य-यात्रा में संग-साथ होने का भान कराता रहता है ।
पहाड़ी रास्ते में पत्थरों का संसार बिछा है। रास्ते के कभी दायीं ओर तथा कभी बायीं ओर गहरी खाई दिखायी देती है। खाइयों से शिखरों तक पत्थरों और मिट्टी से बनी विशाल कार्डशीट पर वृक्ष चित्र – से खड़े हैं। खाइयों और शिखरों के हिंडोले में झूलते हुए नर्मदा के दक्षिण तट पर पहुँचते हैं। यहाँ दक्षिण तट अपेक्षाकृत उत्तर तट के अधिक ऊँचा है। दक्षिण तट पर पुराना शिव मंदिर है।
नीचे दूर नर्मदा है। शिव किनारे पर बैठे हैं । विरागी शिव । जंगल में मंगल मनाने वाले शिव। वनवासी शिव । उस पार मछुआरों का तीस-चालीस टपरियों का छोटा सा गाँव है । ये वनवासी जाति के कोरकू हैं। यहाँ से ही उत्तर तट पर लगभग पन्द्रह किलोमीटर दूर सीतावन या सीतामढ़ी है। लोक विश्वास है कि सीता स्वर्गारोहण के समय इसी स्थान पर धरती में समायी थी । यहाँ अभी भी एक विशाल दरार धरती में पड़ी हुई है। सीता ने इसी में पृथ्वी- समाधि ली थी।
ऐतिहासिक दृष्टि से और वाल्मीकि आश्रम की स्थल- सुनिश्चितता की दृष्टि से यह प्रामाणिक न हो, लेकिन लोक ने राम और सीता को सदैव निकट पाया है। हर क्षेत्र के लोगों को लगता है कि राम-सीता- लखन वन-मार्ग से हमारे क्षेत्र से निकले हैं । यहाँ रहे थे । यहाँ बसे थे । यहाँ ठहरे थे। यह लोक की अपने राम के प्रति अटूट आस्था और आत्मीयता है । राम इन लोगों के मन में इतने गहरे समाये इसलिए कि वे वनवासियों की तरह ही खान-पान और आचार-व्यवहार करते हुए वन अवधि में रहे। यह नैकट्य उन्हें संघर्ष में अटूट बनाये रखता है।
मंदिर के पास से ऊबड़-खाबड़ मार्ग से नर्मदा में पैदल ही उतर सकते हैं। तट से जल दूर है। तट से जल तक चट्टानों का सौन्दर्य बिछा है । चट्टानें समतल हैं। रात में दरी बिछाकर लेटने का सुख अपूर्व है। यहाँ रेत नहीं है। यहाँ पत्थरों और जल की आपसदारी ‘सुन्दर’ की रचना करती है। चट्टानों की कठोर और अनुर्वरक भूमि पर पानी की फसल उगाती है । मछरियों की तिरान से जल को रंग देती हैं । चट्टानों की कटान से अनगढ़ में तराश पैदा करती है। पहाड़ों के महल में जल अपनी नरम छैनी-हथौड़ी से नक्कासी कर रहा है।
धारा क्षेत्र में नर्मदा अनेक धाराओं में विभक्त होकर चट्टानों पर से नीचे गिरती है। एक धारा बहुत मोटी और तीव्र है, जो उत्तर तट की ओर से गिरती है। इसे वहाँ के लोग ‘धौंस’ कहते हैं। दूर से ही इन धाराओं के गिरने की आवाज सुनायी देती है । पानी के गिरने की भी गर्जना होती है । एक धमक होती है। पक्की काली और थोड़ी ललाई लिए विशाल चट्टानों पर से नर्मदा यहाँ दूर से उछलती-कूदती आती है और छपाक से छलाँग लगाती है ।
इसने अपनी साधना के मार्ग को एकनिष्ठता से पूरा किया। यह रूकी नहीं । रूकना नहीं जानती। पहाड़ों और जंगलों में रेवा ने अपने रव से कलरव पैदा किया है। इसने चट्टानों पर पानी के निशान छोड़े हैं। पानी की धार नरम जरूर है, पर यह पत्थर को काटती अवश्य है। नर्मदा ने धावड़ी घाट में पानी के कटाव से अनेक कुण्ड बनाये हैं। इन कुण्डों में जो पत्थर कटकर गिरते हैं या जो पाषाण तल में पड़े हैं, नर्मदा उन्हें अपने जल – हाथों से शिव के स्वरूप में बदल देती है। शिव ने नर्मदा को जन्म दिया।
शिव कन्या यहाँ अपने पत्थरों को सैकड़ों शिव के स्वरूप से प्राणित कर रही है । कुण्ड में लगभग पच्चीस-तीस फीट ऊपर से जल धाराएँ गिरती हैं । यहाँ लगभग बावन कुण्ड हैं। जिनमें नर्मदा जल गिरता है। गर्मी में पानी कम होने से केवल 10-12 कुण्डों में ही पानी गिरता है । गिरकर पानी तल में गोल-गोल घूमता है, फिर आगे बढ़ता है। पानी के हाथों की उन घुमावदार मुद्राओं से अनगढ़ पाषाण शिव का रूप पा लेता है। कंकर शंकर बन जाते हैं। जिन्हें स्थापित करते समय प्राण प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती। वे साक्षात् शिव रूप हैं ।
नर्मदा ने धारा क्षेत्र में पत्थरों को शिव का आकार दिया है। जो चट्टानें कमजोर थीं,उन्हें जल ने अपनी नरम किन्तु अचूक रचनात्मकता से काटकर बहा दिया। चूर-चूर कर दिया। किनारे कर दिया । धरती पोली हो गयी । पानी गहरा गया। जल की गंभीरता उसकी गहराई में अपनी शालीनता देखने लगी । नर्मदा का जो जल प्रपात में गिर भारी शोर करता है । मार्ग में आने वाले को नष्ट करके, तोड़ करके, सब कुछ को बहा ले जाने की हुमड़ी मारता दिखाई देता है, वही जल कुछ क्षणों बाद शांत, गंभीर, मंथर और विश्राम करता-सा लगता है।
नर्मदा ने यहाँ प्राकृतिक नहर बना दी है । पत्थरों की कगारों में से नर्मदा प्रपात में से दक्षिण मुखी होती है। और फिर पश्चिम की ओर चली जाती है। आगे पहाड़ के उच्च शिखर को विभाजित करती हुई बीच में से सरपट निकल जाती है। नर्मदा ने देर करना तो सीखा ही नहीं । अवढरदानी शिव की यह चपल कन्या धरती पर अनवरत् कर्म की प्रतीक बन गयी है। इसके घाट घाट पर चाहे बड़े – बड़े नगर और तीर्थ न हों, लेकिन इसके तटों पर जहाँ भी व्यक्ति ने श्रद्धावश स्नान – आचमन किया, वहाँ-वहाँ घाट और तीर्थ बन गये हैं। यह वनवासियों और गरीब-गुरबों के स्नान को पर्व का दर्जा देने वाली नदी है।
उत्तर तट से आकर या दक्षिण तट से नाव से नर्मदा को पारकर उस पार बड़ी धौंस के पास जाने पर लगता है, जल की गति के सामने विज्ञान संचालित यंत्रों की गति कृत्रिम है। बल्कि पानी की गति ने ही विज्ञान को गति दी है। यह पानी ही आदमी के भीतर अभिमान और स्वाभिमान बनकर तैर रहा है। चेहरों से झलक रहा है। गिरती हुई जलधारा का सौन्दर्य बड़ा मोहक है। टकटकी लगाकर देखते रहें, तो जल की गति, गिरने की आवाज और दूधिया धार के बीच में अपनी लघुता का असली भान होता है, एक गुमनाम अनुभूति पूछती है-प्रकृति की गति और विस्तार के बीच तुम कहाँ हो ?
मदहोश कर प्रकृति की रम्यता में हमको छार- छार कर देने वाली अनुभूति नर्मदा के उस झरते सौन्दर्य के सामने प्रणाम की मुद्रा में खड़ाकर देती है। उस सौन्दर्य को बस देखते रहना अच्छा लगता है । प्रपात से उड़ती फुहारें पड़ती हैं। तन्द्रा टूटती है। देखते-देखते कपड़े नम होने लगते हैं। मन भीग जाता है। मुख धुल जाता है अनुभव होता है हम बच्चे हैं और माँ ने सुबह-सुबह हमारा मुँह धुला दिया है । दूधिया धार से फुहारें उठती हैं उन पर धूप पड़ती है । इन्द्रधनुष बन जाते हैं। बिन बादल और बिन बरसात, नर्मदा अपने ही जल- आँगन में इन्द्रधनुष बनाती है । रम्यता के इन्द्रधनुष । सौन्दर्य के इन्द्रधनुष । मनुष्य और जल के रिश्तों के इन्द्रधनुष । एकान्त वन प्रदेश में भी उत्सव मनाते चलने के इन्द्रधनुष । धूप और पानी मिलकर शून्य में जीवन के रंग भरते रहते हैं।
उन्हीं इन्द्रधनुषी जल-कुण्डों में कल्याणकारी शिवलिंग बनते हैं। उन शिवलिंगों को कुण्डों से निकालने का काम उत्तरी किनारे पर बसे धारा क्षेत्र गाँव का ज्ञानसिंह नामक व्यक्ति करता है । वह गिरती जल धारा के साथ कुण्ड में डुबकी लगाता है और साथ में शिव को हथेली पर थामें ऊपर आ जाता है। छोटे-बड़े कई आकार के पत्थर शिवलिंग वह निकालकर देता है। यह काम वह बचपन से करता आ रहा है । इस काम में उसके एक कान में पानी जाने की वजह से उस कान से सुनाई देना बन्द हो गया । पैंतालीस पचास वर्ष का यह प्रौढ़ युवा तैराकी और गहरे पानी में डुबकी लगाने में माहिर है।
ज्ञानसिंह कहता है कि नर्मदा नगर से महेश्वर तक उसे नर्मदा की गहरायी मालूम है । धारा क्षेत्र में जहाँ यह प्रपात है, नर्मदा दस-पन्द्रह फुट गहरी है। लेकिन कुण्ड से थोड़ी दूर पर ही अथाह है। ऐसे ही ओंकारेश्वर में ज्योतिर्लिंग मंदिर के पास नर्मदा की थाह नहीं है । फिर वह कहता है – माई की थाह कौन ले सका है ? यह कहीं एकदम उथली है। कहीं पाताल -फोड़ गहरी है। नर्मदा माँ है । यह सबको पालती है । सबको पोषती है ।
ज्ञानसिंह आगे कहता है-वह छोटा था । माँ विदा हो गयी । पिता ने दूसरी शादी कर ली। सौतेली माँ बहुत मारती थी । बहुत दुःख देती थी। परेशान होकर एक दिन नर्मदा में छलाँग लगा ली। मैया ने बचा लिया। आया था डूबकर मरने, पर नर्मदा मैया ने बचा लिया । तल में गया, तो शिवलिंग हाथ लगा । शिव को साथ लेकर ऊपर आया । बच गया। बस तब से आज तक शंकर को शांकर में से निकाल रहा है।
उससे पूछा – शिव की इन मूर्तियों को निकालने का कितना पैसा लेते हो? उसने कहा- वह भगवान को नहीं बेचता । वह इसे व्यवसाय नहीं बनाना चाहता । जो श्रद्धानुसार दे दे, उसी में संतोष है । इतने जोखिम भरे काम को वह सहज भाव से करता है और नर्मदा की पाषाण रचित अप्रतिम कला को जन-जन को सौंप देता है । आज के इन्टरनेट युग में यह सब दुर्लभ है । परन्तु यह भी सच है कि मेकलसुता का तीरवासी ज्ञानसिंह यह सब निस्पृह भाव से कर रहा है।
ज्ञानसिंह कहता है-यह धारा क्षेत्र बाणासुर की तपस्या स्थली रहा है। वह रोज मिट्टी के शिवलिंग बनाता था । पूजा – अर्चना के बाद उन्हें नर्मदा के जल में सिरा देता था। ऐसा कई वर्ष तक बाणासुर ने किया। उसकी इस साधना से शिव प्रसन्न हो गये । वे कैलाश से धारा क्षेत्र में आये और बाणासुर से वरदान माँगने को कहा । बाणासुर ने शिव की भक्ति के साथ यह माँगा कि जितने भी पार्थिव शिव उसने नर्मदा में फेंके हैं, वे सब पत्थर के हो जायें और वे प्राणसिक्त हों, ताकि उन्हें अन्यत्र स्थापित करते समय प्राण-प्रतिष्ठा की आवश्यकता न हो। तथास्तु कहकर शिव कैलाश लौट गये ।
बाणासुर अपनी राह चला गया। नर्मदा-तीरी नाविक उन पार्थिव शिवों को अनास्था की भूमि पर पूरी आस्था के साथ रोप रहा है। शिव यहाँ से पाषाण रूप में निकलते हैं। किसी पर जनेऊ उकेरी है । किसी पर सर्प । किसी पर त्रिपुण्ड । किसी पर सर्पों के कई-कई वलय । चमत्कार है नर्मदा का । ऐसा नर्मदा के सम्पूर्ण प्रवाह क्षेत्र में केवल धारा क्षेत्र में ही होता है । यह पत्थरों में राह बनाती है और राह दिखाती भी है ।
ज्ञानसिंह डुबकी लगाने के पूर्व दोनों हाथ जोड़कर अभ्यर्थना करता है-‘हे निरंजनी ! रक्षा करना’ मेरी आँखों में चमक जाग जाती है। एक बिलकुल अपढ़ व्यक्ति के पास से नर्मदा का नया नाम मिल गया- ‘निरंजनी’ । कितना सुन्दर और अर्थगर्भित शब्द है यह । निरंजनी का अर्थ है-बिना काजल वाली, आँखों में अंजन न लगाने वाली, दोष रहित, निर्मल । नर्मदा में ये सब गुण हैं। वह कुँआरी है । उसका जल निर्मल है।
वह प्राकृतिक रूप से तो शुद्ध है ही। वह भारत की अन्य नदियों की अपेक्षा अभी भी प्रदूषण मुक्त है। वह शुचिता से जीवन को श्रृंगारित करने वाली अमरकण्ठी है। धावड़ी घाट ‘धावा’ से बना है । यहाँ के वनवासी बहुत पहले लूटपाट किया करते थे। धावा को निमाड़ी बोली में ‘धाड़ा’ भी कहा जाता है । डाका पड़ने को धाड़ा कहते हैं । लूट के लिए पीछे भागने तथा खदेड़ने की क्रिया को धावा कहा जाता है। धावा और धाड़ा से मिलकर ही धावड़ी बना है। वर्तमान में इसे धारा क्षेत्र कहा जाने लगा है।
यहाँ के निवासी खेती करने, मछली मारने और नाव चलाने का काम करते हैं। धीरे-धीरे ये आधुनिकता से परिचित हो रहे हैं। ग्राम ने आधुनिक विकास की रोशनी देख ली है । शहरों से सम्पर्क होने लगा है। लेकिन यह अभी भी पर्यटन स्थल के रूप में विकसित नहीं हो पाया है। ओंकारेश्वर के पास बँधने वाले बाँध में यह सुरम्य प्रपात डूब जायेगा। यही रंज है।
शोध एवं आलेख -डॉ. श्रीराम परिहार