जब पहली बार Chhatrasal Aur Shivaji मिले और एक दूसरे के विचारों को जाना तो उनकी खुशी का ठिकाना ना रहा शिवाजी ने छत्रसाल को उपदेश दिया…। हे पराक्रमीराजा, तुम अपने शत्रुओं का नाश करो और विजय प्राप्त करो । अपने देश पर अधिकार करके फिर उस पर अपना राज्य जमाओ। बादशाही सेना को परवाह मत करो। कपटी तुर्क लोगों का विश्वास न कर मुगलों का नाश करो। जब तुम्हारे ऊपर मुगल आकमण करेंगे तब मैं तुम्हारी सहायता करूँगा और तुम्हारा स्वतंत्र होने का प्रण रखूँगा।
औरंगजेब के अन्यायपूर्ण शासन से प्रजा असंतुष्ट हो गई और मुगल साम्राज्य के भिन्न भिन्न भागों में नए राज्य स्थापित होने लगे। दक्षिण में औरंगजेब के अत्याचारी साम्राज्य के नाश कर देने का बीड़ा मराठों ने उठाया । इस प्रांत में मुसलमानों ने अपना राज्य जमा लिया था, परंतु राजस्व इत्यादि वसूल करने का काम महाराष्ट्र के सरदारों के हाथ में था और ये सरदार देशमुख कहलाते थे।
इन देशमुख को वेतन-स्वरूप जागीरें दी गई थी जिनके द्वारा ये अपना निर्वाह करते थे। दक्षिण की बीजापुर नामक मुसलमानी रियासत में शाहजी भोंसले नामक एक जागीरदार थे। छत्र पति शिवाजी महाराज इन्हीं के पुत्र हैं ।
शिवाजी का जन्म विक्रम-संवत् 1684 में हुआ। शाहजी भोंसले जिस समय बीजापुर राज्य की ओर से करनाटक जीतने गए थे उस समय शिवाजी, दादाजी कोनदेव के पास रहे। ये दादाजी शाहजी के मित्र थे और शाहजी की ओर से उनकी पूना की पैतृक जागीर की देख-रेख करते थे । शिवाजी ने बाल्यकाल में सैनिक शिक्षा इन्ही से पाई।
बाल्यकाल से ही इनका उद्देश्य यवन-सत्ता का अंत कर स्वतंत्र हिंदू राज्य की स्थापना करने का था। शिवाजी ने इसी उद्देश्य से सेना एकत्र करना आरंभ किया। महाराष्ट्र के मावली लोग शिवाजी को इस कार्य के लिये विशेष करके योग्य जान पड़े और शिवाजी की पहली सेना इन मावलियों की ही थी ।
ये लोग जंगल के रहने वाले थे और वचन के बड़े पक्के और सत्यनिष्ठ थे। मावलियों की सहायता से शिवाजी ने बीजापुर राज्य के किलों का लेना आरंभ कर दिया। इन किलों में अपना प्रधान किला शिवाजी ने राजगढ़ में बनाया । यह कार्य शिवाजी ने इतनी शीघ्रता से किया कि बीजापुर की सेना इनके कार्य में हस्तक्षेप करने नही आ सकी । |इसके पश्चात् शिवाजी ने एक समय बीजापुर राज्य का खजाना मार्ग में लूट लिया । इसमें 300000 पेगोडा अर्थात 18 लाख रुपए थे ।
बीजापुर राज्य सें शिवाजी के पिता शाहजी का बहुत मान था, परंतु जब शिवाजी के इन कार्यों की खबर बीजापुर दरबार में पहुँची तब राजा ने शाहजी को इन सबका दोषी समझा। शाहजी वि० सं० 1706 में कैद कर लिए गए और बीजापुर के राजा ने शिवाजी को खबर दी कि यदि बीजापुर के सब किले बीजापुर राज्य को वापिस न किए जायेंगे तो शाहजी मार डाले जायेंगे ।
शिवाजी को इस समय सब काम छोड़कर शाहजी को बचाने का प्रयत्न करना पड़ा। उन्होंने इसकी युक्ति भी शीघ्र ही सोच ली । उस समय दिल्ली के बादशाह शाहजहाँ और बीजापुर राज्य सें अनबन हो गई थी। शिवाजी ने शाहजी के कैद की बात शाहजहाँ को लिखा और उससे सहायता माँगी । शाहजहाँ ने सहायता देने का केवल वचन ही नहीं दिया बल्कि शिवाजी को पाँच हज़ारी मनसब भी दिया और बीजापुर के शासक को लिखा कि शाहजी का छोड़ दे ।
शाहजहाँ से युद्ध करने के लिये बीजापुर राज्य तैयार नही था इसलिये बीजापुर दरबार ने शाहजी को वि० सं० 1710 में छोड़ दिया और शाहजी की जागीर, जो करनाटक में थी, वह भी शाहजी को दे दी । शिवाजी अपने पिता को इस प्रकार मुक्त कराके थोड़े दिन शांत रहे ।
जब शिवाजी ने देखा कि शाहजी करनाटक में सुरक्षित हैं और बीजापुर एकाएक उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता तो शिवाजी ने फिर अपना कार्य आरंभ कर दिया। इस लिये बि० सं० 1716 में बीजापुर के मुसलमान शासक अलीआदिलशाह ने अपने अफजल खाँ नामक सरदार को, शिवाजी को हराकर उससे सब किले छीन लेने के लिये भेजा। इस समय ये परतापगढ़ में रहते थे।
शिवाजी ने अफजल खाँ की फौज का पहले सामना नही किया और किसी बहाने उसे अलग बुलाकर ले गए और मल्लयुद्ध करके उसे मार डाला । फिर उसकी सेना को हराकर उन्होंने भगा दिया । इसके पश्चात् शिवाजी का आतंक सारे देश में फैल गया और बीजापुर के शासक ने शिवाजी से युद्ध करना ठीक नही समझा और उनसे संधि कर ली। इस संधि के अनुसार जो गढ़ शिवाजी ने ले लिए थे वे शिवाजी के पास रह गए ।
बीजापुर राज्य से संधि होने के पश्चात् शिवाजी के पास बहुत से गढ़ हो गए और उनके पास बहुत सी सेना हो गई। अब उन्होंने समझ लिया कि वे मुगलों से भी सामना कर सकते हैं। यह सोचकर उन्होंने मुगलों के राज्य पर आक्रमण करना और खजानों की संपत्ति लूटना आरंभ कर दिया।
वि ० सं० 1714 में शाइस्ताखाँ मुगलों की ओर से दक्षिणी प्रदेश का सूबेदार था। वह शिवाजी को हराने और शिवाजी के कार्य को बंद करने के उद्देश्य से बड़ी सेना लेकर पूने में पहुँचा। जिस स्थान में वह ठहरा था वहीं, रात्रि के समय, शिवाजी भी कुछ सैनिकों का लेकर पहुँच गए और उन्होंने शाइस्ताखाँ को मार डाला ।
इसके पश्चात् शाइस्ताखाँ की फौज भगा दी गई। वि० सं० 1720 में शिवाजी ने सूरत को लूटकर बहुत सा धन प्राप्त किया । इसके पश्चात् शिवाजी ने छत्रपति शिवाजी महाराज के रूप मे बि० सं० 1731 में अपना राज्याभिषेक करवाया ।
शिवाजी महाराज का यश सारे भारतवर्ष में फैल रहा था और उसका वर्णन सुनने से छत्रसाल को बड़ी प्रसन्नता होती थी। शिवाजी महाराज की स्वतंत्रप्रियता का वर्णन सुनकर छत्रसाल के हृदय में शिवाजी महाराज के प्रति प्रेम उत्पन्न होता था। देवगढ़ के युद्ध के पश्चात् मुसलमानों का व्यवहार देख कर छत्रसाल मुसलमानों से बहुत असंतुष्ट हो गए थे। इसलिये चतुर और स्वदेशाभिमानी छत्रसाल ने धर्मभक्त श्री शिवाजी महाराज की सहायता से मुगलों का साम्राज्य नष्ट करने का विचार किया।
छत्रसाल के उद्देश्य में उनके भाई अंगदराय ने भी सहायता दी । ये दोने पहले दैलवारे गए और वहाँ छत्रसाल ने अपना ब्याह परी के परमारों की बेटी देवकुँवरि के साथ किया। देवकुँवरि के साथ छत्रसाल की सगाई चंपतराय के समय में ही हो गई थी। इसी कारण ब्याह कर लेना इस समय बहुत आवश्यक समझा गया। ब्याह करने के पश्चात् छत्रसाल अपनी रानी देवकुँवरि और अपने भाई अंगदराय के साथ पूना को रवाना हुए।
उन दिनों में दक्षिण का मार्ग बहुत मुशिकिल भरा था। मार्ग में भी उत्तर की ओर से आने वाले सैनिकों की जाँच के लिये शिवाजी महाराज की ओर से चौकियाँ थीं। छत्रसाल इन सबको पार कर अपना पूरा परिचय किसी को न देते हुए शिवाजी महाराज के राज्य में पहुँचे। शिवाजी महाराज से भेंट भीमा नदी के किनारे जंगल के समीप हुई। हिंदू धर्म की रक्षा और हिंदू स्वतंत्रता का बीड़ा उठाने वाले ये दोनो वीर एक दूसरे को देखकर बड़े प्रसन्न हुए। इसके पहले दोनो ने एक दूसरे की कोर्ति सुनी थी और दोनों के ह्र्दय से परस्पर मिलने को उत्कंठा हो रही थी।
इस दिन उनकी वह इच्छा पूर्ण हुई और मिलने में उन दोनों को जो आनंद हुआ ! उसे कहना असंभव है। इन दोनों में शिवाजी महाराज उम्र में बहुत अधिक थे ओर उन्हेंने अपना राज्य भी जमा लिया था। वे छत्रसाल की बीरता और चातुर्य को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। छत्रसाल की स्वतंत्रप्रियता, अद्वितीय स्वाघर्माभिमान और अप्रतिम साहस देखकर शिवाजी महाराज की छाती गद-गद हो गई। उन्होंने छत्रसाल को प्रेम के साथ आलिंगन किया और बहुमूल्य उपदेश दिया। उस उपदेशामृत का सार छत्रप्रकाश नामक ग्रंथ में है। वह उपदेश इस प्रकार था…।
हे पराक्रमीराजा, तुम अपने शत्रुओं का नाश करो और विजय प्राप्त करो । अपने देश पर अधिकार करके फिर उस पर अपना राज्य जमाओ। बादशाही सेना को परवाह मत करो। कपटी तुर्क लोगों का विश्वास न कर मुगलों का नाश करो। जब तुम्हारे ऊपर मुगल आकमण करेंगे तब मैं तुम्हारी सहायता करूँगा और तुम्हारा स्वतंत्र होने का प्रण रखूँगा।
जब जब मुगलों ने मुझसे युद्ध किया, देवी भवानी ने मेरी सहायता की । देवी भवानी की कृपा से मैं मुगलों की विशाल शक्ति से बिलकुल नहीं डरता । कपटी मुसलमानों के कई सरदार मेरे सहायक बनकर मेरे पास आए और उन्होंने धोखे से मेरे ऊपर कई वार करने चाहे परंतु मैंने, उन पर अपनी तलवार चलाकर, उनका नाश किया । इसलिये तुम जल्दी अपने देश बुंदेलखंड को वापिस जाओ । सेना तैयार करो और मुसलमानों को बुंदेलखंड से मार भगाओे।
सदा अपने हाथ में नंगी तलवार लिए युद्ध के लिये तत्पर रहो । इश्वर अवश्य ही तुम्हें विजय देगा । गो-ब्राह्यणों का पालन करना, वेदों की रक्षा करना और समरभूमि में शौर्य दिखलाना ही क्षत्रियों का धर्म है। इसमें यदि मृत्यु हुई तो स्वर्ग मिलता है और यदि विजय हुई तो राज्य और अमर कीर्ति मिलती है। इसलिये तुम अपने देश में जाकर विजय प्राप्त करो ।
शिवाजी महाराज का यह उपदेशमृत पान करके छत्रसाल का हृदय उत्साह और हर्ष से भर गया। इसके पश्चातशिवाजी महाराज ने अपनी तलवार छत्रसाल को भेंट दी और आशीर्वाद देकर बिदा किया। छत्रसाल ने बुंदेलखंड में आकर सेना एकत्र करके मुसलमानों का बुंदेलखंड से निकाल कर स्वतंत्र हिंदू राज्य स्थापित करने का निश्चय कर लिया ।
बुन्देलखण्ड में अंग्रेजों सर संधियाँ
आधार – बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी