चंदेल-काल में 8वीं-9वीं शती के मध्य बुंदेली लोकभाषा ने जन्म लिया था, पर चंदेलों की राजभाषा संस्कृत थी। इस कारण राजदरबार की तरफ से लोक गायकी को देर से प्रश्रय मिला और लोकसंगीत उपेक्षित रहा। इस समय संस्कृत नाटक-’प्रबोध चंद्रोदय‘ और ‘रूपकषटकम्‘ चर्चित रहे, लेकिन उनमें निम्नवर्गीय पात्रों की भाषा प्राकृत थी। Chandel Kalin Lok Sangeet चंदेल कालीन लोक संगीत की दृष्टि से चन्देल-काल में निम्न प्रकार की गायनशैलियाँ लोक में प्रचलित थीं –
1 – कथागायन की प्राचीन शैली, जो संस्कृत से प्राकृत में होती हुई लोकभाषा में आई थी और 15 वीं-16 वीं शती में उत्कर्ष पर रही।
2 – प्राकृत की गाहा या गाथा शैली, जो बौद्ध काल में पाली प्राकृत से होकर लोक से जुड़ गयी और बाद में श्रृंगारपरक वर्णनों के लिए प्रसिद्ध हुई।
3 – मुक्तक छंदों की चारण गायनशैली, जो ओजपरक होकर पूरे राजपूत-काल में उत्कर्ष पर रही, लेकिन रण और राजदरबार से उसका संबंध घनिष्ठ रहा।
4 – शास्त्रीय संगीत की परिनिष्ठित गायनशैली, जिसके लिए चंदेलनरेश परमर्दिदेव को पार्श्वदेवकृत ’संगीतसमयसार‘ में प्रमाणस्वरूप उद्धृत किया गया है।
5 – लोकगायकी की लोकगायनशैली, जिसमें दिवारी गीत और देवी के भजन या पँवाड़े जैसे पुराने स्वरसंदर्भ वाले गीत गाये जाते थे।
लोकगायनशैली में सबसे पहले दोहा पर आधारित दिवारी गीत, सखयाऊ फाग और राई गीत गाये गये। फिर गाहा या गाथा पर आधारित देवी गीतों, देवीपरक लोकगाथाओं और आल्हा गाथाओं का विकास हुआ। दिवारी का लोकसंगीत तार सप्तक की ऊँचाई पर तो कुछ देर के लिए रहता है।
मौनियों के साथ घुटनों तक धोती और वक्ष पर ढीला कुर्ता एवं बण्डी पहने तथा सिर पर पगड़ी या साफा बाँधे कई लोकगायक दिवारी गाने का संकल्प किये तैयार रहते हैं। उनके साथ वादकों का दल होता है, जो पारम्परिक गायकी में ढोल, नगड़िया, झाँझ और रमतूला वाद्यों को बजाकर संगत करते हैं। कुछ भागों में मृदंग, टिमकी, मंजीर और कसावरी का प्रयोग होता है।
गायक दल द्वारा दिवारी गीत गाये जाने पर पहली पंक्ति की यति में ढोल का धौंसा घोष करता है, परन्तु दूसरी पंक्ति के अंत में गायक के साथ नर्तक दल का सामूहिक स्वर कुछ क्षणों तक तार सप्तक की ऊँचाई पर खड़ा रहता है। दिवारी गीत मूलतः चरागाही गीत है, जहाँ चरवाहा गायों-भैंसों के झुण्ड लिए अकेला घूमता है।
हिंसक पशुओं से रक्षा के लिए सभी चरवाहे अपने-अपने अस्तित्व का बोध इसी गीत से कराते रहते हैं। यह तभी संभव है, जब उनके गीत की टेर तारसप्तक स्वरों और विलम्बित लय में हो। पंक्तियों के आरम्भ और मध्य में ’अरे‘, ’ओ‘ एवं अंत में ’रे‘ का प्रयोग टेर को तारत्व प्रदान करता है। इसके अलावा इस अंचल की ओजस्विनी प्रकृति भी तारत्व के लिए उत्तरदायी है।
देवीपरक गीत और गाथाएँ दो प्रकार की थीं-एक तो वे, जिनकी विषयवस्तु भक्तिपरक थी और दूसरे वे, जिनमें देवी का रूप ओजपरक था और वे असुरों या म्लेच्छों के विरुद्ध युद्ध लड़कर उनका संहार करती थीं। प्रकट है कि दोनों के लोकसंगीत में बहुत अंतर था। भक्तिपरक देवीगीत या भगत का गायन मध्य लय और कहरवा ताल में होता है।
कुछ बिना वाद्य के गाते हैं और कुछ वाद्यों को अनिवार्य मानते हैं। स्त्रियाँ उसे ढोलक और मंजीरा के साथ गाती हैं, जबकि पुरुष उसे मृदंग, टिमकी और झूला के साथ गाते हैं। दूसरी देवीपरक लोकगाथा वीर रस परक होने से मध्य से द्रुत लय में झूलती रहती है और कहरवा ताल लगता है।
इसी का अनुसरण ’आल्हा‘ की गायन शैली में हुआ। ’आल्हा‘ लोकमहाकाव्य पूरे उत्तर भारत में गाया जाता है। साथ ही बुंदेलखण्ड में उसकी गायनशैली क्षेत्रगत भिन्नता से महोबा, सागर, दतिया और पुँछी-करगवाँ की विशिष्ट शैलियों में बँटी
हुई है। इनमें महोबा की गायनशैली सबसे पुरानी है। दतिया और पुँछी-करगवाँ की गायनशैली व्यक्तिपरक है। सागर की लोकगायकी का स्वर मंद्र हो गया है और उतना जोश अब नहीं रह गया।