सिन्धु घाटी में मातृमूर्ति की पूजा के प्रमाण मिले हैं। बुंदेलखण्ड में अटवी की वन्य संस्कृति के कारण मूर्तिपूजा का प्रचलन देर से हुआ। जनपद-काल में उसके प्रचलन के साक्ष्य मिलते हैं। गुप्त-काल से पुराणों की रचना प्रारम्भ हुई थी। धीरे-धीरे वैदिक संस्कृति के प्रसार के साथ-साथ पौराणिक कथाओं का प्रवेश भी इस जनपद में हुआ था। Chandel Kalin Lok Murtikala के अनेक प्रमाण मिलते हैं ।
चंदेल कालीन रूपककार वत्सराज के रूपकों में पौराणिक कथाओं के संकेत स्पष्ट हैं (त्रिपुरदाह, श्लोक 7, पु. 91, किरातार्जुनीय, श्लोक 2, पृ. 1, श्लोक 24, पृ. 8, श्लोक 29, पृ. 9), जिनसे सिद्ध है कि चंदेल-काल में पुराणों की कथाएँ प्रचलित हो चुकी थीं और अनुष्ठानों में लोकमूर्तियों का प्रयोग होने लगा था।
लोकमूर्तियों का अनुष्ठानों में प्रयोग प्रतीकात्मक रहा है, इसलिए उसमें कला की बारीकियों का प्रश्न नहीं है। बुंदेलखण्ड में आनुष्ठानिक लोकमूर्तियाँ गोबर और मिट्टी से बनायी जाती हैं। विवाह में गोबर के गणेश बनाकर पूजे जाते हैं। दिवारी में भैयादोज को गोबर की दोज बनाकर कथा कही जाती है।
गोबर की मूर्तियाँ घर की स्त्रियाँ ही सीधे उभार देकर बनाती हैं। दोज में लोककथा के अनुसार कुटनारी, पिसनारी, पनहारी और रुटहारी तथा बीच में दो बाई और उनके दोनों ओर लड़का-बहू और नीचे साँप-बिच्छू बनाये जाते हैं। घर के बाहर एक ओर कुछ दूर पर अड़रिया-पड़रिया बनती है, जिसमें कथा कहकर दूध डाला जाता है।
कुछ परिवारों में दोज दीवार पर लिखी जाती है और कुछ में कपड़े पर हल्दी से। नौरता में दानव या दैत्य और गौरा क्वाँरी कन्याएँ मिट्टी से बनाती हैं। नौरता की गौर की मूर्ति कुछ लम्बी, सुडौल और सुंदर मुखवाली बनती है, जैसा कि गीत से प्रकट है कि उसकी सुन्दरता की प्रतियोगिता होती है।
इस प्रकार क्वाँरी कन्याएँ मूर्ति को सुन्दर बनाना सीखती हैं। नौरता का सुअटा सभी कन्याएँ मिलकर बनाती हैं। उसे वे राक्षस जैसा रूप देती हैं। इस कारण उसका मुख भयानक क्रूरता की अभिव्यक्ति से गुँथा होता है। वह एक हाथ में नंगी तलवार ऊपर की ओर उठाये और दूसरे में ढाल लिए अपना ओज प्रदर्शित करता है। उसके वस्त्रों के लिए काले रंग का प्रयोग होता है।
सुअटा की काया चबूतरी के ऊपरी भाग से कुछ दूरी पर दीवाल से चिपककर उभरी हुई काफी हृष्ट-पुष्ट रहती है। उसके ऊपर दायें तरफ सूर्य और बाएँ तरफ चन्द्र भी मिट्टी से उभरे हुए बनते हैं, जो लोकमूर्ति के प्रतीक हैं।
जबलपुर के दुर्गावती विश्वविद्यालय के संग्रहालय में 11 वीं शती की एक गणेश जी की मूर्ति मिली है, जिसका क्रमांक 11/234 है। लम्बे आयताकार सपाट मुख पर ऊपर सँकरा आयताकार मस्तक, जिसमें चिन्तन की प्रतीक दो रेखाएँ अंकित हैं। दोनों कान कुछ आयताकार नीचे की ओर सँकरे है, जिनमें पड़ी रेखाएँ उत्कीर्ण हैं।
मुख के निचले भाग से जुड़े बिन अँगुलियों के दोनों हाथ और वर्तुल सूँड़ एक हाथ के सहारे टिकी हुई है। किनारों पर कुछ गोलाई लिए आयताकार पेट तथा उसी से निकले दो लम्बे आयताकार सीधे सपाट पाँव, जिनके छोर पर रेखाओं से चरणों की अँगुलियाँ कटी हुई हैं। पूरी मूर्ति भदेस है, पर सूँड होने से गणेश की पहचान बनती है।
कटनी से 11 कि.मी. पश्चिम में बिलहरी नाम का एक कस्बा है, जिसका प्राचीन नाम पुष्पावती था। उसके तपसी मठ के द्वार पर मैंने 6 फीट 2 1/2फीट के आयताकार चौका में हनुमान जी की लोकमूर्ति थी। 70 वर्ष पूर्व यह मूर्ति एक गड्ढे से निकाली गयी थी। गोल मुख में आँखें, नाक और मुँह स्थूल रेखाओं से निर्मित थे और उसके ऊपर एक रेखा के विभाजन से मुकुट का रूप दिया गया था। कान त्रिभुजाकार और कुछ बड़े। पैर और हाथ रेखाओं से कटे हुए। कोई सजधज और अलंकरण नहीं। यह मूर्ति 11वीं-12वीं शती में निर्मित प्रतीत हुई है।
महोत्सवनगर (महोबा, उत्तर प्रदेश) में प्राप्त 11वीं-12वीं शती की तीन मूर्तियाँ मिली हैं। पहली मूर्ति गोखागिरि पर्वत पर ’आदि देवी‘ की अर्थात् मातृका मूर्ति है, जो ग्रेनाइट के शिलाकार प्रस्तरखण्ड पर क्षरण की स्थिति में है। आधे मस्तक पर बिखरे बाल, बीच में बीज आभूषण का गोलाकार उभार और आयताकार मुख में दीर्घ आँखों के सिवा नाक, मुँह और ठोड़ी केवल चिह्नित हैं। हाथ-पैर गोलाकार और कोंचों एवं चरणों की अंगुलियों का अंकन नहीं। वक्ष पर दो गोलाकार स्तनों का उभार, जो पेट को भी ढँके रहता है। कटि पर चपटी करधौनी एवं आधी पिंडलियों तक वस्त्र की सीमा के लिए पत्थर का कटाव। पैरों के बगल में दो बौने भक्त चिह्नित। पूरी मूर्ति भदेस रूप में उत्कीर्ण।
दूसरी मूर्ति गोखागिरि के पठार पर बने ख्याल मंदिर में प्रतिष्ठित बाल हनुमान की है, जो ’पठवा के हनुमान‘ के नाम से दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। उनकी पूजा प्रतिदिन पुजारी साधु द्वारा की जाती है। सिन्दूरी लेप के कारण अन्य अंगों के उभार भले ही दब गये हों, पर एक शिलाखण्ड पर मुख की अभिव्यक्ति बालरूप के अनुरूप है। पीछे पूँछ का स्पष्ट उभार है।
तीसरी मूर्ति एक चट्टान के सामने के भाग में उत्कीर्ण है। उसमें एक स्त्री नृत्यरत है, जबकि वैरागी पुरुष नृत्य के आकर्षण में न बँधकर भाग जाने की मुद्रा में है। स्त्री के मुख पर केशराशि, आँखें, नाक, मुँह और कान अंकित हैं, पर मुखमुद्रा का पता नहीं चलता। उसका एक हाथ नृत्य की मुद्रा में ऊपर उठा है और दूसरा पैर भी ऊपर-नीचे हैं। पुरुष घुटनों तक धोती पहने है, जैसी बुंदेलखण्ड में प्रचलित थी। उसके दोनों हाथ किसी के ध्यान में जुड़े हैं। सिर के बाल जटाओं की तरह जूड़ेनुमा बँधे हैं।
खंगार नरेशों की राजधानी गढ़ कुण्डार थी, जिसे सबसे पहले खूबसिंह ने 12 वीं शती के अंतिम दशक और 13 वीं शती के प्रारम्भिक दशक के लगभग निर्मित करवाया था। गढ़ कुण्डार से लगभग 3 कि.मी. दक्षिण में पहाड़ पर ’गजानन्द‘ माता का मंदिर स्थित था, जिसे गढ़ गुण्डार के राजा खूबसिंह ने 12 वीं शती के अंतिम दशक में बनवाया था। अब मंदिर खण्डहर हो गया है, लेकिन माता का चौका मौजूद है।