चंदेल अभिलेखों और सिक्कों पर राम और हनुमान को महत्व दिये जाने का अर्थ है कि चंदेलनरेश रामकथा से भली भाँति परिचित थे। 1442 ई. में कविवर विष्णुदास द्वारा रामायन कथा जैसा प्रबंध लिखे जाने से भी स्पष्ट है कि Chandel Kal Men Ram की कथा का प्रचलन लोक में था।
इसी समय जैन कवि रइधू ने पद्मपुराण की रचना की थी। जैन रामकथा की दो परम्पराएँ रही हैं। एक बाल्मीकी रामायण का अनुगमन करती है, तो दूसरी उससे भिन्न है। दो ग्रंथ अधिक महत्व के रहे हैं- एक स्वयंभू का ’पउम चरिउ‘ और दूसरा पुष्पदन्त का ’महापुराण‘। दूसरी परम्परा और ’महापुराण‘ में भी सीता को रावण और मंदोदरी की कन्या माना गया है। ‘महापुराण‘ दसवीं शती की रचना है। विचित्र बात यह है कि बुंदेली के दिवारी लोकगीतों में भी महापुराण की इस मान्यता को स्वीकार किया गया है।
लंका कइये मायको और मंदोदरी मायँ रे,
रावण कइये पिता हमाये कौना देउँ सराप रे।
कैसें कइये मायको और मंदोदरी मायँ रे,
कैसें रावन पिता तुमाये इत्ती देउ बताय रे।
सामाजिक समरसता और एकता के लिए संस्कारपरक गीतों की रचना में प्रवृत्त हो गये थे। भक्ति-आंदोलन का उत्तर भारत में नेतृत्व करने वाले रामानंद जी ने जाति या वर्ग-गत भेदभाव को बहिष्कृत कर सभी को रामभक्ति का पाठ 14 वीं शती में ही पढ़ाया था। वस्तुतः तुर्कों के आक्रमणों, धर्मपरिवर्तन और कट्टरता के कारण आम आदमी का जीवन अस्थिर, निराश और भयाक्रान्त हो गया था, जिसकी वजह से उसे ऐसे आश्रय की तलाश थी, जो उसे स्थिर आस्था, आदर्श और सुरक्षा दे सके।
रामचरित में सब कुछ था- रामराज्य, पारिवारिक एकता, मर्यादा, चरित्र की दृढ़ता, संघर्ष की ऊर्जा आदि, इसीलिए उसका प्रचार-प्रसार जल्दी और व्यापक रूप में हुआ। इस अंचल का सांस्कृतिक केन्द्र गोपगिरि (ग्वालियर) था। तोमरों का राज्य 1402 ई. से शुरू हुआ था, पर उसका स्थायित्व और सांस्कृतिक वैभव 1424 ई. से मानना उचित है। उस समय नाथ संतों और जैन मुनियों का प्रभाव अधिक था, वैष्णव भक्ति का बहुत कम।
रामायन कथा के रचयिता विष्णुदास नाथ मत के थे, परन्तु उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों को देखकर राम-कथा और महाभारत-कथा को चुना था। महाभारत-कथा में (रचना-काल 1435 ई.) कवि कहता है-
मलेच्छ बंस बढ़ रह्यो अपारा। कैसें रहै धरम कौ सारा।।
कैसो कलि कैसो आचार। कैसो चलन चल्यो संसार।।
ये दो प्रमुख समस्याएँ कवि के सामने थीं, जिनके उपचार के लिये उसने महाभारत और रामायन-कथा लिखी। निश्चित है कि आचार और चलन के संस्कार के लिए राम का जीवन आदर्श था। इसी प्रकार लोककवियों ने भी सोचा था कि संस्कारों और आचरण की सुरक्षा तभी हो सकती है, जब वे ’राम‘ से जोड़ दिये जायँ। इस प्रकार संस्कारपरक लोकगीतों के लिए रामकथा का माध्यम अपनाया गया। देसी संगीत की नयी धारा भी 15 वीं शती में प्रवाहित हुई, जिसने काव्य को संगीत के माधुर्य से भर देने का एक आंदोलन ही प्रारम्भ कर दिया था। कुछ लोकगीत प्रचलन में पहले से आ गये थे, जिन्होंने पदकाव्य को जन्म दिया था।
जनमें राम सलोना अबध में, जनमे राम सलोना।
रानी कोंसिल्या के लाल भये हैं, राजा जसरथ के छोना।
रघुराज बना बन आबै री।
नबल किसोर लाल जसरथ को सबई के मन भाबै री।
अनब्याही सब ब्याही सबको चित्त चुराबै री।
1517 ई. के लगभग ग्वालियर के तोमरों का पतन हो गया था, पर भक्ति-आंदोलन ने एक आन्तरिक ऊर्जा उद्वेलित कर दी थी। 1528 ई. में राम-जन्मभूमि का मंदिर ध्वस्त किये जाने के बाद अयोध्या के रामभक्त चित्रकूट चले गये थे, जिससे रामभक्ति का केन्द्र चित्रकूट हो गया था।
1531 ई. में बुंदेलों ने ओरछा को बसाकर राजधानी बनाया और 1539 ई. ओरछे का किला बनकर तैयार हुआ। 1554 ई. में ओरछा की गद्दी पर मधुकर शाह बैठे, जो बहुत धार्मिक थे। इस तरह रामभक्ति का परिवेश तैयार हो चुका था। तुलसी ने लोकगीतों को परखकर रामलला नहछू लिखा था।
उनका मन समाज में अच्छे लोकगीतों का प्रचलन कर एक सांस्कृतिक सम्पूर्ति करना चाहता था। रामकथा को केन्द्र में रखकर उन्होंने और भी लोकगीत रचे थे, पर उनमें केवल रामलला नहछू ही सुरक्षित रह सका। नहछू सोहर गीत में लिखा गया है।
बुंदेलखण्ड में सोहर गीत प्रमुखतः जन्म-समय और सहजतः भौंलोटनी, दसटौन, मुण्डन, अन्नप्राशन, उपनयन (बड़ा मुण्डन) आदि के समय गाये जाते हैं। उपनयन (बड़ा मुण्डन= बड़ो मूड़नो) के लिए तुलसी ने सोहर लिखा था।
इस सोहर ने राम, कौशिल्या, दशरथ, नाउन आदि सभी पात्र लोक के पुत्र, माता, पिता, नाउन आदि लोकपात्र ही हैं, जो लोकव्यवहार के अनुरूप कार्य करते हैं। पुत्र, माता और पिता के स्थान पर राम, कौशिल्या और दशरथ का प्रयोग लोकगीत में ही नहीं, लोकसंस्कृति में भी एक मर्यादा और एक नया संस्कार स्थापित कर देता है, जिससे सांस्कृतिक कृत्यों और उत्सवों में एक नया आन्दोलन खड़ा हो सका।
एक ओर है तुलसी की रामचरित मानस की रचना और दूसरी ओर है महारानी गणेशकुँवरि का अयोध्या से राम को ओरछा लाकर उन्हीं को राज्य का शासन सौंपना। चित्रकूट तो नींव था, आत्मतत्व था। रामचरित मानस के बाद रामकथा का प्रसार और रामभक्ति की जाग्रति ने लोकगीतों की रचना को इतनी प्रेरणा दी कि उनके जगत का कोना-कोना राममय हो गया।
इस कालखण्ड में संस्कारपरक, भक्तिपरक, उत्सवपरक और कथापरक गीत रचे गये। इन रामपरक गीतों में संस्कारपरक प्रधान थे। तुलसी ने रामचरित मानस में बुंदेलखण्ड की ज्यौंनार के समय स्त्रियों द्वारा गायी जाने वाली गारियों की एक रीति का स्पष्ट उल्लेख किया है-
पंच कौर कर जेंबन लागे। गारि-गान सुनि अति अनुरागे।
जेंवत देयँ मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरू नारी।
पुरुष और स्त्री का नाम लेकर गारी गाना और उसे सुनकर समधी, संबंधियों और बरातियों का प्रेम से विभोर होकर भोजन करना विवाह-संस्कार का एक अंग है। आचार्य केशव ने तो रामचंद्रिका में एक गारी ही रच दी है, जिसमें राम के पिता दशरथ को विप्रों द्वारा त्यागी पृथ्वी को अपनी पत्नी बनाना कहा गया है। विप्र भूदेव (पृथ्वी के देव) हैं और दशरथ भूपति (पृथ्वी के पति) हैं। दोनों शब्दों की व्यंजना से गारी की रचना हो गयी है। लेकिन लोकगीत की सहजता ही कुछ अधिक तीखी है…
हमनें सुनी अबध की नारीं दूर रयें पुरसन सें।
खीर खाय सुत पैदा करतीं लाला बड़े जतन सें।
जनकपुर में राम की साली और सरहज उनसे हँसी करती हैं कि अयोध्या की स्त्रियाँ खीर खाकर पुत्र पैदा कर लेती हैं। रामचरित मानस में “चरू” और अध्यात्म रामायण में “पायस” (खीर) दिया गया है, जिसके ग्रहण करने से रानियों को पुत्र हुए थे। इस आधार पर लोकगीत की पंक्तियाँ लिखी गयी हैं, फिर भी ’हमनें सुनी‘ और ’बड़े जतन से‘ में कितनी सहजता, किन्तु कितनी व्यंजना है।
राम भक्ति के उत्कर्ष का एक चरण चम्पतराय और छत्रसाल बुंदेला का स्वतंत्रता-संग्राम था, जिसमें भक्ति वीररसात्मक हो गयी थी। आजादी के संघर्ष में लोकगीतों के राम ने जो सहारा दिया था, उसे भी भुलाया नहीं जा सकता । रामपरक लोकगीतों में धनुष की टंकार का महत्व हैं। राम के एकनिष्ठ दास पवनपुत्र हैं।
अगर वे रक्षक हैं, तो राम को कष्ट देना उचित नहीं है। यही कारण है कि हनुमान को केन्द्र में रखकर वीररसपरक गीत काफी लिखे गये थे। योगमार्गी तपसी रामभक्तों से प्रेरणा लेकर भी ओजमय गीत रचे गये थे, जिनमें राम को ब्रह्म की तरह मान कर जगत के माया-जाल से तिलांजलि देते हुए सिर देने को महत्व दिया गया था।
भक्ति गीतों में भजन, रमटेरा और गारियाँ प्रमुख थे। गारियों में मध्ययुग के आदमी की मानसिकता को रामभक्ति के माध्यम से व्यक्त किया गया है। उत्सवपरक गीत उन उत्सवों के क्रियाकलापों से भरे हुए हैं। अकती का वट-पूजन, होली का रंग-विनोद और रामनवमी का जन्मोत्सव इन गीतों की विषयवस्तु रहा है। झूला गीतों में भी राम, सीता और लक्ष्मण के विषय भरे हुए हैं।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल