चंदेल वंश के जिस प्रथम राजा नानुकदेव का इतिहास में पता चलता है कि वह संवत 850 के आसपास खजुराहो में राज्य करता था, उसके पहले हसे चंदेलों का कोई क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिलता। नवीं और दसवीं शताब्दी में चंदेलों ने पूर्व और पश्चिम के कुछ प्रदेशों पर Bundelkhand Me Chandelo Ke Rajya Ka Vistar हुआ ।
उस समय चेदि मे कलचुरियों का राज्य था। स्वभावतः चंदेल अपनी इस समकालीन शक्ति के संसर्ग मे आए। उनमे परस्पर विवाह-संबंध स्थापित हुए। चंदेल राजा राहिल ने अपनी पुत्री नंदादेवी का विवाह तत्कालीन कलचुरि राजा कोक्कल के साथ किया था।
बुन्देलखंड मे चंदेलों के राज्य का विस्तार
रोहिल के बाद जब चंदेलवंश का परम प्रतापी राजा यशोवर्धन सिंहासन पर बैठा तब उसने कालिंजर के किले पर अधिकार करके चंदेल वंश की कीर्ति उज्जल की। उस समय कालिंजर पर कलचुरियों का अधिकार था। कलचुरि राजा अपने आपको कालिंजर-पुर्वराधीश्वर की उपाधि से अभिहित (शीर्षक या उपाधियुक्त) करते थे। किंतु यशोवर्धन ने कालिंजर पर अधिकार करके इस पदवी को स्वयं धारण किया।
इस समय कालिंजर भारत की राज-शक्तियों का प्रधान केंद्र के रूप मे गिना जाता था। पहले यह दुर्ग चारों ओर से दीवारों से घिरा था। उसमें प्रवेश के लिये चार द्वार थे। आज भी इस प्राचीन दुर्ग के कुछ ध्वंसावशेष/ भग्नावशेष देखने को मिलते हैं। यहाँ चंदेल वंश के कई शिलालेख मिले हैं, जिनसे भारत के तत्कालीन इतिहास पर काफी प्रकाश पड़ा है। गंडदेव के राज-काल में महमूद गजनवी ने इस किले पर आक्रमण किया था। गंडदेव ने एक बड़ी सेना लेकर महमूद का सामना किया। अंत मे वह हार गया और उसने महमूद से संधि कर ली ।
पृथ्वीराज की लड़ाई के समय राजा परमर्दिदेव इसी कालिंजर किले में आकर रहा था। संवत् 1200 में जब कुतुबुद्दीन ने कालिंजर पर आक्रमण किया तब परमर्दिदेव कार्लिंजर मे था। कुतुबुद्दीन ने उसे परास्त करके किले को अपने अधिकार में कर लिया । उसकी ओर से उसका एक सूबेदार हजव्वरुद्दीन नाम का किले पर कुछ दिनों तक शासन करता रहा। उसके बाद शीघ्र ही कालिंजर फिर हिंदुओं के हाथ मे आ गया।
संवत् 1602 में शेरशाह ने कालिंजर पर आक्रमण किया और वहा के चंदेलबंश के अंतिम राजा कीर्तिसिंह को मारकर कालिंजर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शेरशाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र इसलामशाह कालिंजर मे ही देहली के सिंहासन पर बैठा । इसके छुछ दिनों बाद रीवां के वघेल राजा रामचंद्र ने किलेदार से यह किला मोल ले लिया।
संबत् 1626 तक बह इस किले पर अधिकार किए रहा उसके बाद वह किला अकबर के हाथ में चला गया। ओरंगजेब के समय तक कालिंजर मुसलमानों के हाथ मे रहा । उसके बाद महाराज छत्रसाल ने कालिंजर पर अपना अधिकार कर लिया ।
कालिंजर भारतीय इतिहास में एक विशेष स्थान रखता है। यह अत्यंत प्राचीन नगर है। वेदों ने इसे तपस्याभूमि कहकर अभिद्दित/नामांकित किया है। महाभारत मे कई जगह इसका नाम आया है। लिखा है कि जो व्यक्ति कालिंजर के सरोवर में स्नान करता है उसे एक हजार गोदान का पुण्य मिलता है। शैव-साहित्य में भी कालिंजर का विशेष उल्लेख पाया जाता है ।
पैराणिक काल के बाद से कालिंजर कई राज्यों को क्रीड़ा- स्थली रहा । किंतु यहाँ का प्रसिद्ध गढ़ किस राजा का बनवाया है, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता । इसमे संदेह नहीं कि कालिंजर का गढ़ विक्रम की तीसरी या दूसरी शताब्दी से पूर्व का है। यह गढ़ विंध्यगिरि पर एक ऊँचे स्थान पर बना है। पहले यह चारों ओर से दीवारों से घिरा था था। प्रवेश के लिये चार द्वार थे। चंदेल काल में यह किला बहुत प्रसिद्ध रहा ।
उस समय के मुसलमान इतिहासकार निजामुद्दीन ने लिखा है कि उस जमाने मे भारत मे कालिंजर की जोड़ का और कोई किला नहीं था। आल्हा मे भी इसकी प्रशंसा की गई है । यहाँ चंदेलों के समय के कई मंदिर और तालाब हैं। उस समय के कई शिलालेख भो मिले हैं जिनसे भारत के और विशेषकर बुंदेलखंड के तत्कालीन इतिहास पर काफी प्रकाश पड़ता है ।
विक्रम संवत् 1288 में इस पर अल्तमश का आक्रमण हुआ । वह इस किले से बहुत सा धन लूटकर ले गया । परंतु यह किला फिर हिंदुओं के हाथ मे आ गया। एक मुसलमान इतिहासकार ने इसके कई बार लूटने का वर्णन किया है। लूट हो जाने के पश्चात् हिंदू राजाओं का अधिकार फिर से इस पर हो गया।
तुगलक हमेशा लूट-मार के उद्देश्य से ही आक्रमण करते थे, इससे उनके राज्यकाल मे यह किला फिर मुसलमानों के हाथ से निकल गया । और फिर यह चंदेलों के पास आ गया होगा और उस पर चंदेलों के राजवंश के कुछ लोग राज्य करते रहे होगे, परंतु इसका ठीक पता नही लगता कि उन राजाओं के नाम क्या थे।
विक्रम संवत् 1602 मे शेरशाह ने इस किले को लिया और अपने दामाद को यहाँ पर रखा परंतु रीवा के बघेल राजा ने उससे काल्लिंजर के किले को ले लिया । पीछे से अकबर के समय मे यह किला रीवॉ के बघेल राजा रामचंद्र के हाथ में आया। राजा राम चंद्र से यह किला अकबर बादशाह ने ले लिया। फिर अकबर के वंशज औरंगजेब से यह किला महाराजा छत्रसाल ने ले लिया ।
अजयगढ़ चंदेलों के राज्य का एक मुख्य स्थान था। यह केन नदी के समीप एक छोटी पहाड़ी पर है। यहाँ का किला भी कालिंजर के किले के बराबर ही है। कहा जाता है कि अजय गढ़ अजयपाल नामक राजा का बनाया हुआ है। परंतु इस नाम के राजा का पता नहीं लगा । यहाँ पर राजा परमर्दिदेव के बनवाए हुए मंदिर और तालाव हैं। यहाँ पर विक्रम संवत् 1344 का एक शिलालेख मिला है जिससे मालूम होता है कि मलिक का नाती नाना नाम का चदेल राजाओं का एक बुद्धिमान् मंत्री था। अजय-गढ़ त्रेलोक्य वर्मा के पहले से चंदेलों के राज्य में था। पृथ्वीराज चैहान ने परमर्दिदेव से धसान नदी के पश्चिम का भाग ले लिया था पर अजयगढ़ चंदेलों के राज्य में रहा।
खजुराहो बहुत दिनों तक चंदेलों के राज्य की राजधानी रहा । कालिंजर में चंदेलों का दुर्ग था। सेना इत्यादि वही रहती थी और खजुराहो में महल थे। यह पहले जुझाति देश की राजधानी था । पर किसी किसी के मत से जुझाति देश की राजधानी एरन थी। संभवत: यहाँ का ब्राम्हण राजा एरन के धान्यविष्णु, मातृविष्णु इन दो भाइयों,में से किसी एक का वंशज हो। जुझौति आधुनिक बुंदेलखंड का ही प्राचीन नाम है। खजुराहो चंदेलों के राज्य मे बहुत पहले से है। यहाँ के मंदिरों मे तीन बड़े बड़े पाषाण लेख हैं। ये प्राय: चंदेल-नरेश गंड और यशोर्मन के समय के हैं।
हर्षवर्धन के समय मे प्रसिद्ध यात्री हुएनसांग खजुराहों आया था। उसने यहाँ कई मंदिरों का होना लिखा है। यहाँ का चौंसठ योगिनियों का मंदिर चंदेलों के जमाने का जान पड़ता है। यह प्राय: सातवीं शताब्दी का बना है। इसके बाद भी चंदेल-नरेशों ने यहाँ कई विशाल पाषाण-मंदिर बनवाए। ये मंदिर आज भी स्थापत्य की दृष्टि से भारतव के सर्वश्रेष्ठ मंदिर कहे जाते हैं। भारत मे इनकी जोड़ का सुंदर मंदिर नहीं है।
इनके प्रत्येक प्रस्तरखंड block मे, प्रत्येक कोने में, प्रत्येक रेखा में मानों चंदेलों की कीर्ति का अमर इतिहास लिखा है। इनका अपूर्व सौंदर्य , सुढौल आकार- प्रकार, भारी बिस्तार और चित्रकारी और बारीक नक्काशी का काम देखकर चकित होना पड़ता है। सौभाग्य से ग्यारहवी शवाब्दी में खजुराहो मुसलमानों के आक्रमण से दूर पड़ गया था। इसलिये चंदेलों के समग्र के ये विशाल मंदिर, चंदेलों की धर्म-प्रवीणता, कला -प्रेम और अनंत ऐश्वर्य के ये मूल साक्षी अब भी ज्यों के त्यों अक्षत खड़े हैं ।
मनियागढ़ केन नदी के किनारे है। यह छतरपुर में खजुराहो से 12 मील है। यह एक पहाड़ पर है। अब इसकी एक पुरानी ७ मील लंबी पत्थर की प्राचीर मात्र शेष रह गई है। आल्हा में इस गढ़ का खूब जिक्र आया है। यह चंदेलों के आठ किले में से था।
महोबा चंदेल राज्य के बहुत प्राचीन स्थानों में से है। कहा जाता है कि यहाँ पर चंदेल वंश के आदि पुरुष चंद्रवर्मा ने महोत्सव किया था। यह महोबा उसी महोत्सव का स्थान है। ‘परमाल (परमर्दिदेव ) के समय मे यह चंदेल राज्य की राजधानी था। पृथ्वीराज चौहान ने विक्रम संवत् 1238 में इसे ले लिया था, परंतु फिर छोड़ दिया था। संवत् 1240 में जब पृथ्वीराज ने दूसरी लड़ाई की तब, जान पड़ता है कि महोबा ले लिया गया था ।
संबत् 1240 के पश्चात् महोवे मे चंदेलों का कोई लेख नही मिलता । इसके बाद महोबा दिल्ली के मुसलमान बादशाहों के हाथ में चला गया था। महोबा और कालपी ये दोनों नगर कुतुबुहदीन ने विक्रम संवत् 1953 में ले लिये थे । तब से महोबे और कालपी मे एक मुसलमान सूवेदार दिल्ली के बादशाह की ओर से रहता था । तैमूर ‘के आक्रमण के समय में जो गड़बड़ हुईं थी उसी मे कालपी और महोवे का सूवेदार मुहम्मदखां स्वतंत्र हो गया था।
विक्रम संबत् 1491 में जौनपुर के सूवेदार इब्राहीमशाह ने कालपी पर आक्रमण किया, परंतु एक साल के बाद जब दिल्ली के बादशाह और जौनपुर के सूबेदार के बीच युद्ध हुआ तब कालपी और महोबा मालवा के बादशाह हुशंगशाह के हाथ मे चले गए। परंतु फिर से जौनपुर के सूबेदार ने यह प्रदेश अपने कब्जे मे कर लिया ।
मदनपुर कोई बड़ा गॉव नही है, परंतु चंदेलों के समय में यह एक प्रधान नगर था। यह गाँव सागर के उत्तर मे और ललितपुर से कुछ दक्षिण की ओर है । यहाँ पर पहले कई अच्छे मंदिर और पत्थरों की खदान थी । यह गाँव चंदेल राजा मदनवर्मा का बसाया हुआ है। परंतु मदनवर्मा के पहले भी यहाँ पर एक बस्ती थी।
यह यहाँ पर मिले हुए विक्रम संवत् 1112 के एक लेख से मालूम होता है। चौहान राजा पृथ्बीराज ने परमाल पर जब चढ़ाई की तब वह यहाँ तक आया था। यहाँ के जैन मंदिर के एक स्तंभ पर परमाल की लड़ाई और प्रथ्वीराज के विजय का विवरण लिखा है। पृथ्वीराज ने इस समय परमाल को हटाकर इसके आस-पास का देश जीत लिया था। पृथ्वीराज के नाम के यहाँ तीन लेख मिले हैं। इन पर संबत् 1238 अंकित है।
बिलहरी नामक ग्राम कटनी रेलवे स्टेशन से 10 मील पश्चिम को है। इसका प्राचीन नाम पुष्पावती था और इसका बसाने वाला राजा कर्ण कहा जाता है।यह राजा कर्ण विक्रमादित्य का समकालीन था ऐसी कथा चलती आ रही है। परंतु इसका ठीक पता इतिहास में नहीं मिलता। यह देश कलचुरि राजाओं के अधिकार में लगभग विक्रम संवत् 1910 तक रहा। फिर यह नगर और इसके आस-पास का प्रांत चंदेलों के हाथ में चला गया।
आजकल के दमोह जिले की भूमि का अधिकांश भाग चंदेलों के हाथ में इसी बिल्हरी नगर के साथ आया होगा। नोहटा भी उसी समय का चंदलों का बसाया हुआ है। बिलहरी के आस पास के प्रदेश के शासन के लिये बिल्हरी में चंदेलों की ओर से एक सूबेदार रहता था। परंतु इसी के आस-पास का कुछ प्रदेश पढ़िहारों/परिहारों के हाथ में और कुछ राष्ट्रकूटों के हाथ मे बारहवीं शताब्दी के आस-पास पाया जाता है।
पृथ्वीराज के युद्ध के पश्चात चंदेलों की शक्ति का हास होने लगा था। जान पड़ता है कि इसी समय यहाँ पर इन लोगों ने अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिया होगा । परिहारों का राज्य इस समय दमोह के पूर्वी भाग में था। दमोह जिले में सिंगोरगढ़ का किला परिहारों का बनवाया हुआ है।
यह किल विक्रम संवत् 1360 के लगभग बना होगा। बारहवी शताब्दी में हटा तहसील राठौरों के हाथ मे रही होगी। हटा के समीप फतेहपुर के निकट पिपरिया नामक ग्राम के मैदान में युद्ध के कुछ स्मारक पाए जाते हैं। इनसे मालूम होता है कि महा-मांडलिक जयतसिंह राष्ट्रकूट और किसी दूसरे राजपुत्र हेमसिह के साथ लड़ाई हुई थी । इस युद्ध का काल संवत् 1168 दिया हुआ है।
पिपरिया के कीर्तिस्तम्भ से पता नहीं लगता कि जयतसिंह किस राजा का मांडलिक था और हेम सिंह किस घराने का राजपुत्र था, परंतु बहुरीबंद नामक गाँव के उसी समय की जैनमूर्ति के लेख से अनुमान किया जाता है कि यह कल्चुरियों के अधीन था, इसी समय का एक लेख हटा के निकट जटाशंकर नामक स्थान में भी मिला है। इसमें विजयसिंह की एक प्रशस्ति है। इसमें लिखा है कि विजयसिंह ने दिल्ली जीत ली, गुर्जरों को मार भगाया और वह चित्तौड़ से जूझ गया।
इसी लेख से मालूम होता है कि विजयसिंह के पिता हर्षराज ने कालिंजर, डाहल, गुर्जर पर दक्षिण को जीता था। यह विजयसिंह गुहिल वंश का था। गुहिल विजयसिंह मालवा के राजा उदयादित्य का दामाद था और इसकी लड़की अल्हणदेवी का ब्याह कलचुरि राजा गयाकर्ण के साथ हुआ था। गुहिल ने हटा और दमोह पर धावा किया परंतु वह वहाँ ठहरा नहीं और लूट-मार करके वापिस चला गया ।
गढ़ा नामक स्थान जबलपुर के समीप है। आाल्हा नामक काव्य मे गढ़ा का किला चंदेलों के किलों मे से एक बताया गया है। परंतु यह ठीक नहीं जान पड़ता । देवगढ़ कीर्तिवर्मा चंदेल के समय में चंदेल राज्य में था। एक शिलालेख विक्रम संवत् 1154 का कीर्तिवर्मा के मंत्री का खुदवाया हुआ यहाँ पर मिला है। परंतु आल्हा के समय मे यह गढ़ गौड़ राजाओं के हाथ मे आ गया था, क्योंकि कहा गया है कि आल्हा ने गोंड़ राजाओं को देवगढ़ से निकाल दिया। गोंड़ लोगों ने यह गढ़ कीर्तिवर्मा के पश्चात् ले लिया होगा ।
सिरस्वागढ़ पह्देश नदी के किनारे है। यह नगर भी चंदेलों के द्वाथ में था, क्योंकि प्रथ्वीरान चौहान ने पहले इसी पर घावा किया था। यह कीतिंवर्मा चंदेश के समय में भी चंदेलों के हाथ में रहा होगा। कीर्तिवर्मा के समय में राज्य का बिस्तार यमुना नदी से होकर दमोह और सागर जिले के दक्षिण तक था। पूर्व में कालिंजर से लेकर पश्चिम मे सिरस्वागढ़ और देवगढ़ तक ये स्थान राज्य मे ही शामिल थे ।
कीर्तिवर्मा के पश्चात् राज्य के भिन्न भिन्न प्रांतों मे भिन्न भिन्न स्वतंत्र राज्य स्थापित होने लगे। पूर्व में बघेले और दक्षिण में गोंड़ लोग प्रबल होने लगे। धसान नदी के पश्चिम का भाग अर्थात सागर, ललितपुरओरछा, झांसी, सिरस्वागढ़ इत्यादि प्रृथ्वीराज ने ले लिया । फिर मुसलमानें का आक्रमण आरंभ हुआ ।
गुप्त साम्राज्य के नष्ट होते ही सारे भारत मे अराजकता सी फैल गई थी । प्राचीन राज्य-व्यवस्था और गणतंत्र राज्य- प्रथा को गुप्त साम्राज्य ने नष्ट कर दिया था। इस समय मे जो बलवान होता था और जिसके पास बड़ी सेना होती थी वही स्वतंत्र बन के अपने आंस-पास के प्रदेश का राजा बन जाता था। चेदि वंश का विस्तार और चंदेलों का राज्य इसी समय में हुआ ।
ये राजा धर्म के अनुसार चलाना चाहते थे पर प्रांचीन राज्य-व्यवस्था को भूल गए थे । इनके भिन्न भिन्न प्रदेशों मे इनकी ओर से शासक नियुक्त रहते थे, जो प्रत्येक बात में स्वतंत्र थे । केंद्रस्थ शासक के प्रति उनका केवल इतना ही कर्तव्य था कि वे प्रत्येक वर्ष एक नियत कर Tax दे दिया करें। केंद्रस्थ शासक को सदैव इन सूबेंदारो का डर बना रहता था और इसी लिये एक बड़ी सेना राजधानी मे रखी जाती थी, जिसमे ये प्रांतीय शासक लोग सिर न उठा सकें।
इसी कारण से जब केंद्ररथ शासक बलहीन होता था तब ये लोग स्वतंत्र बन बैठते थे। मुसलमानों के आक्रमण के समय यही हाल प्राय: सारे भारत का था। राजा लोग अपने पड़ोसी का हराकर उसका देश छीन लेने में ही वीरता समझते थे। आपस मे मेल करके बाहर से आकर आक्रमण करने वालों से लड़ना इन लोगों ने नही सीखा। सारे राजा लोग आपस से लड़ते थे और ऐसे ही समय पर विदेशियों ने यहाँ आकर अपना शासन जमाया ।
इस समय देश मे वैष्णव घर्म का ही प्रचार अधिक था । गुप्त राजाओं के समय मे बौद्ध धर्म को बहुत हानि पहुँची पर जैन घर्म बढ़ता ही गया। ऐसा जान पड़ता है कि जैन और वैष्णव धर्मों मे कभी द्वेष नही हुआ | चंदेल राजा, जो कि वैष्णव थे, जैन मंदिरों को भी दान देते थे । चंदेलों के समय के बने कई जैन मंदिर भी पाए जाते हैं|
संदर्भ -आधार
बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी