Bundelkhand ki Rai मे नृत्य और गीत का आधार होता है। राई गीत कोयलिया के गीत हैं, जो कोयल की कूक के साथ शुरू होते हैं । कूक की मिठास और व्यंजना इन गीतों में इतनी समायी है कि इन्हें कोयलिया के गीत कहना उचित है। वैसे ये गीत लोकनृत्य की रानी ’’राई‘‘ से आत्मा की तरह जुड़े हैं, इसलिए Bundelkhand ki Rai वसंत ऋतु में या किसी भी ऋतु के कोई उत्सव या आयोजन में अथवा गाँव के किसी खास समय या किसी पर्व पर जहाँ भी राई नृत्य होता है, राई गीत पहले ही गूंज उठते हैं।
बुन्देलखण्ड का लोक नृत्य राई
Bundelkhand ki Rai लोकनृत्य कब से प्रचलित हुआ, परन्तु हर लोकनृत्य आदिम खेतिहरों से विकसित हुआ है और राई तो रबी की फसल कटने की अवधि से जुड़ा हुआ है। वैसे तो हिन्दी के प्रथम कवि जगनिक के लोकमहाकाव्य ’आल्हा‘ (12 वीं शती) और ’परमालरासो‘ में आल्हा-ऊदल के जन्मोत्सव-वर्णन में मिलता है, पर राई का संकेत नहीं है।
’छिताई चरिंत्र” ( 15 वीं शती) में नांद मृदंग कला परवीना। नाचहि चतुर प्रेम रस लीना। जायसीकृत पद्मावत् (16 वीं शती) में जानी जाती गति बेड़िन दिख राई। बाँह डुलाय जीउ लेई जई। और केशवकृत रामचन्द्रिका (17 वीं शती में) कहॅूं भाट भरयों करे मान पावे। काह कहूं बोलिनी बेड़िनी गीत गावे से राई गीत और नृत्य के प्रसार का अंदाजा लगाया जा सकता है।
इन उदाहरणों से राई गीत और नृत्य के प्रचार का अंदाज लगाया जा सकता है। स्पष्ट है कि मध्ययुग में राई का उत्कर्ष इतनी सीमा तक पहुँच गया था कि जायसी और केशव जैसे कवियों की लेखनी को उसे महत्व देना पड़ा। 1872 ई. के जनविद्रोह की ऐतिहासिक घटना में राई नृत्य (Rai Dance) ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। नारहट (सागर) के जागीरदार मधुकरशाह बुंदेला की सभा में बेड़िनी राई नृत्य कर रही थी। उसी समय अंग्रेज सैनिकों ने चारों तरफ से घेरकर बेड़िनी का अपहरण कर लिया।
मधुकरशाह ने जब बेड़िनी को वापस देने और क्षमा माँगने के लिए अंग्रेज अधिकारी को लिखा, तब उन्हें उत्तर मिला कि ’बेड़िनी सिर्फ हमारे सामने नाचेगी। अगर मधुकरशाह को शौक हो, तो अपनी रानियों को नचवाये।‘ इस अपमान का घूँट पीकर मधुकरशाह विद्रोही हो गये। फलस्वरूप नारहट में ठाकुर, गोंड़ और लोध मालगुजार एकत्रित हुए और जनविद्रोह की लपटों ने कई गाँव और कस्बे जला डाले। विद्रोहियों का मालथौन, खिमलासा और खुरई पर कब्जा हो गया। 1857 ई. के पहले की इस चिनगारी में राई की समिधा का योग ऐतिहासिक महत्व रखता है।
राई का अर्थ
राई तीन शब्दों के अधिक निकट है- पहला है प्राकृति का रागी (संस्कृत के रागिन से), जिसका अर्थ है रागयुक्त। दूसरा है राधिका, जो प्राकृत में ’राईया‘ और हिन्दी में ’राई‘ हो गया है। तीसरा है राजसी, जिससे राजाश्रय का आभास होता है।
बुंदेलखण्ड में राई दामोदर राधा-कृष्ण और स्त्री-पुरुष का वाचक है। राधाकृष्ण का रास केवल राधा (राई) के नृत्य के रूप में अवशिष्ट होने के कारण ’राई‘ कहे जाने में अपना आश्रय पा गया हो। बुंदेलखण्ड में राई नृत्य राजाओं खास तौर से सामन्तों और जमींदारों के दरबारों, सभाओं और समाजों में आश्रय पा चुका था, लेकिन इस कारण उसका नामकरण ’राई‘ होना उचित नहीं प्रतीत होता।
राई की केन्द्र विन्दु बेड़िनी
बेड़िनी राई की केन्द्र विन्दु है। बेड़िनी रंगरेज, कंजड़, गंधर्व, कबूतरी, बेड़िया आदि जातियों में से होती है, जिससे स्पष्ट है कि बेड़िनी की कोई खास जाति नहीं होती, वरन नृत्य करने वाली को ही बेड़िनी कहा जाता है। वह पेशेवर कब हुई और उससे वेश्यावृत्ति कब जुड़ी, यह खोजना कठिन है। रंगरेज बेड़िनी की चर्चा लोककवि ईसुरी ने कुछ फागों में की है, जिससे उन रंगरेजिन बहिनों के प्रति कवि की आसक्ति स्पष्ट होती है…।
’प्रान हरन सुन्दरिया गँगिया, एकई सी दोई बैनैं।‘
बड़ी बहिन का नाम गँगिया था, जो पडुवा (हमीरपुर) में रहती थी और छोटी सुन्दरिया, जो रामनगर (टीकमगढ़) में रहती थी। वे नृत्य में बोल के रूप में केवल ईसुरी की फागें गाती थीं। बेड़िया, बेड़िनी विवाहित होती है और अविवाहित भी। एक परिवार में ज्यादातर एक बेड़िनी होती है और पूरा परिवार उस पर निर्भर होता है। उसकी लड़की घर पर ही नृत्य सीखती है और बड़े होने पर माँ के साथ मंचों पर जाती है। उनमें कन्या के जन्म पर खुशियाँ मनायी जाती हैं और पुत्र-जन्म उपेक्षित रहता है।
परिवार में लड़का की अपेक्षा लड़की का महत्व अधिक है। नृत्य कला घर से ही दाय के रूप में मिलती है और पीढ़ी दर पीढ़ी चली आती है। उसकी कोई पाठशाला नहीं होती। लड़की के बहू बनने पर भी नृत्य का पेशा जारी रह सकता है, पर वेश्यावृत्ति विशेष परिस्थिति में अपनायी जाती है। बेड़िया लड़के धनराशि देकर विवाह करते हैं, क्योंकि उनमें विवाहोच्छुक कन्याओं का अभाव रहता है।
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राई एक लोकनृत्य कला
प्रत्येक लोकनृत्य की तरह राई का भी अपना शास्त्र है, जिसके बिना राई राई नहीं कही जा सकती। राई भले ही पहले लोकसुलभ नृत्य रहा हो, लेकिन अब व्यावसायिक लोकनृत्य है, इसलिए उसमें सजधज, श्रृंगार और कौशल की अधिक आवश्यकता है। सबसे पहले बेड़िनी को नृत्य के लिए ’साई‘ (बयाना) के रूप में खुले पान, सुपाड़ी और कुछ धनराशि दिये जाने का चलन है।
निश्चित तिथि को मंच तैयार किया जाता है। किसी भी लम्बे-चैड़े मैदान के बीच में धूलरहित समतल भूभाग को चारों ओर रस्सी से घेर देते हैं, ताकि दर्शक संयमित रहें। घेरे के एक तरफ गायकों का दल अपने लोकवाद्यों-मृदंग, ढोलक, टिमकी, मंजीरा, नगड़िया, झाँझ, झींका, किंगरी और रमतूला के साथ संगत के लिए तैयार रहता है और उसी के पास मृदंग, ढोलक, नगड़िया सेंकने के लिए आग सुलगती रहती है। शेष तीनों तरफ दर्शकों की भीड़ प्रतीक्षा करती है।
रोशनी के लिए पहले मशालें जलती थीं, फिर पैट्रोमैक्स या बिजली की रौशनी और भी रौनक बाँध देती है। शहरों में तो ऊँचे सजे धजे मंचों का प्रचलन है, जहाँ ’राई‘ एक सीमा में बँधकर सिकुड़ जाती है। वस्तुतः राई के मंच की बनावट और सज्जा के लिए गम्भीरता से सोचने की आवश्यकता है, क्योंकि सीमित मंच में राई की नर्तन और वादन की होड़ मर जाती है, जो नृत्य की आत्मा है।
राई नृत्य की वेशभूषा
बेड़िनी सराई (चुस्त चूड़ीदार पैजामा) पर बीस हाथ का सौ चुन्नटोंवाला घाँघरा या लहँगा और अँगिया या चोली पर चुनरिया या साड़ी पहने, आँखों में कानों की ओर बढ़ती काजल-रेखा, भौहों से कनपटी तक रंगीन टिपकियाँ सजाये और अधरों पर पान की लाली रचाये जब उतरती है, तो दर्शकों की निगाहें वहीं ठहरी रहती हैं।
माथे पर बिन्दी या बूँदा, सिर पर बेंदा या बिंदिया, कानों में कनफूल या ऐरन, नाक में सितारे जड़ी फूलदार पुँगरिया, गले में सोने या चाँदी की हँसुली, दोनों हाथों में चूड़ियाँ, चूरा, ककना और गजरा, कटि में चाँदी की करधौनी और पाँवों में बजते घुँघरू बेड़िनी की गाँव की नचनारी बना देते हैं। होती भी है वह गाँव की, इस कारण इस श्रृंगार में उसे रूचि रहती है।
कुशल बेड़िनी का मुख घुँघट से ढँका रहता है, इसलिए कि दर्शक मुख की सुंदरता पर न रीझकर कला की बारीकियों को परखें। इससे दर्शकों के मन में जिज्ञासा का सागर उमड़ता रहता है। नर्तकी के हाथ में फहरता एक रूमाल भले ही मध्यकाल की देन हो, पर नर्तकी की अभिव्यक्ति में सदैव क्रियाशील बना रहता है।
घूँघट और रूमाल, दोनों मुगल काल की सौगात हैं और इस लोकनृत्य के अनिवार्य अंग बन गये थे, पर अब मुख से घूँघट हट गया है और मुख में अंकित भावों की अभिव्यक्ति के लिए रास्ता खुल गया है। भारतीय नृत्यों में मुखाभिव्यक्ति का विशेष महत्व है। मुगल काल में अपहरण के भय से घूँघट अनिवार्य हो गया था। वर्तमान में लोकनृत्यों में निहित कलात्मकता का महत्व बढ़ा और मुख से घूँघट हट गया।
राई नृत्य मे गाये जाने वाले गीत
राई के उक्त सम्भार के साथ लोकनृत्य शुरू होता है राई गीत की पंक्ति से। राई के गीतों में प्रमुख हैं राई गीत, फागें, ख्याल और स्वाँग। राई गीत ही राई का मूल गीत है, पर छतरपुर, पन्ना और टीकमगढ़ में राई गीतों के अलावा फागों के बोल पर भी नृत्य होता है, जबकि सागर, दमोह आदि जिलों में स्वाँग और ख्याल गीतों पर राई होती है।
यह कहना मुश्किल है कि पहले राई गीत जन्मा या राई नृत्य। इतना स्पष्ट है कि राई गीत नृत्य के लिए सोने में सुहागा है। एक पंक्ति का छोटा सा गीत, किन्तु गम्भीर घाव करने वाली व्यंजना। शास्त्रीयता या किसी भी बंधन से मुक्त, बिल्कुल सहज रूप में गहरे तक असर करने वाला कुछ उदाहरण देखें…।
भौंरा काये न भये, भौंरा काये न भये, कलिन कलिन रस लेते।
साँवरिया सरीर, साँवरिया सरीर,
सोचन में करिया पर गये।
बूँदा चमकै लिलार, बूँदा चमकै लिलार,
जैसैं तरा भुनसरिया।
पहले में रसभोगी भौंरा की तरह हरकली (पुष्प नहीं) का रस लेने की तीव्र लालसा है। दूसरे में कृष्ण का साँवला शरीर देखकर नायिका या गोपी व्यंग्य करती हैं कि वे सोच (चिन्ता) के कारण काले पड़ गये हैं। तीसरे माथे में बूँदा की चमकती छवि की उपमा प्रातः के तारे से दी गयी है।
प्रसंग बदलने पर राई गीतों में भी बिहारी के दोहों की तरह कई अर्थ छुपे रहते हैं। इसीलिए वे दूसरे लोकगीतों की अपेक्षा अधिक असरदार होते हैं। फागगीत तो बसंत के गीत हैं, जो फागुन और चैत में गाये जाते हैं। सखियाऊ, पुरानी गेय फाग और चैकड़िया-पँचकड़िया फाग के गाने का चलन अधिक है जैसे….।
नई गोरी नये बालमा, नई होरी की झाँक।
ऐसी होरी दागियो, तोरे कुल न आबै दाग।
सँमर कें यारी करो मोरे बालमा।।
दोई नैनों के मारे हमारे जोगी भये घरबारे लाल।
जोगी भये घरबारे हमारे जोगी भये पिय प्यारे लाल।
अंग भभूत बगल मृगछाला, सीस जटा लपटाने,
जोगी भये……..।
ऐसे अलबेली के नैना, मुख सौं कात बनै ना।
सामै परै सोउ छिद जैहै, अगल बगल बरकै ना।
लागत चोट निसाने ऊपर, पंछी उड़त बचै ना।
जियरा लेत पराये ’ईसुर‘, जे निरदई कसकैं ना।।
पहली फाग सखियाऊ फाग है, जिसमें दो पंक्तियाँ साखी (दोहे) की होती हैं और तीसरी पंक्ति लटकन के रूप में दुगुन-तिगुन में भी गायी जाती है। दोहा एक या दो अंतरा जैसा काम करता है। दूसरी फाग पुरानी लाल फाग है, जिसमें ’लाल‘ शब्द महत्व के कार्य करता है।
तीसरी फाग लोककवि ईसुरी द्वारा ’लाल फाग‘ की लय में खोजी गयी ’चैकड़िया फाग‘ है, जो 16,12 की यति से 28 मात्राओं वाली चार पंक्तियों की होती है। ख्याल गीत राई गीतों के बीच में गुँथे रहते हैं। उनमें अंतरा के रूप में दोहे रहते हैं और प्रारम्भिक पंक्तियों में राई गीत पैठा रहता है जैसे….
कैसैं पलंग चढ़ जावँरी,
बिछिया राजा, दै रये टकोरा।
काहे के पलका बने, काहे की लगी निबार?
चंदन के पलका बने, रेसम की लगी निबार।
बिछिया राजा, दै रये टकोरा।….
स्वाँग में भी अंतरा के रूप में दोहा की बुनावट है और उसकी गायकी में भी राई की लोकधुन ही रहती है। अंतर केवल इतना है कि स्वाँग एक नाट्यगीत की तरह अभिनय के साथ गाया जाता है और उसमें विनोद के साथ वर्तमान जीवन और उसकी समस्याओं पर व्यंग्य भी रहता है जैसे….
करकें प्रीत निभइयो रे, दगाबाजी न करियो।
हाय हाय रे दगाबाजी न करियो…।
प्रीत जो ऐसी कीजियो, ज्यों लोटा उर डोर।
आपन गरो फँसाय कें, पानी लाबै बोर।
ऐसई डोर लगाय रइयो रे, दगाबाजी न करियो।
करकें प्रीत निभइयो रे, दगाबाजी न करियो।।
राई की नृत्य मुद्राएँ
राई नृत्य के प्रारम्भ में ’सुमरनी‘ द्वारा बुंदेलखण्ड के देवी-देवताओं की वंदना होती है। बाद में गीत-पंक्ति या तो बेड़िनी उठाती है या गायक-दल में से कोई गायक। फिर नृत्य शुरू करते समय बेड़िनी वाद्यों को स्पर्शकर माथे से लगाती है। नृत्य में ठुमकी, चकरी, गिरदी, उड़ान, बैठकी, कोण, मोरचाल, मोरघुसन, झटका, ढड़कचका और तालमेल मुद्राएँ प्रमुख हैं। ठुमकी का अर्थ है पैरों की ठुमक से घुँघरूओं का खनकना।
बेड़िनी मृदंग की गमक पर लहँगे के दोनों छोर कंधों तक उठाकर जब पैरों की ठुमक से घुँघरूओं को जोर से खनकाती है, तब इस मुद्रा को ठुमकी कहते हैं। चकरी है एक ही स्थान पर चकरी की तरह गोलाकार घूमना। गिरदी की मुद्रा में बेड़िनी मृदंग या ढोलक की ताल पर हाथों में सर्पीली लहरियाँ देते हुए तीव्रता से घूमती है।
उड़ान की मुद्रा मोर की तरह घुमाती पूरा मैदान घेर लेती है। बेड़िनी और मृदंगिया, दोनों पंजों के बल बैठक लगाकर चलते हैं, तो उसे बैठकी कहते हैं। जब बेड़िनी लहँगे के दोनो छोर पकड़े हुए तीव्र गति से झपटती मैदान घेरकर एक कोण बनाती है और मृदंगिया भी उसी का अनुसरण करता है, तब उसे कोण मुद्रा कहते हैं।
मोरचाल की मुद्रा मन को आकृष्ट करने वाली श्रेष्ठ मुद्रा है, जिसमें बेड़िनी अपने लहँगे के दोनों छोर दोनों हाथों से कंधों तक उठाकर मोर की तरह ठुमकती चलती है और मृदंगिया भी उसी मुद्रा का सहारा लेकर चलता है, तो उसे मोरचाल मुद्रा कहते हैं। मोरघुसन मुद्रा में मोर के घुसने की क्रिया का अनुकरण है, जिसमें बेड़िनी की गर्दन की ऐंठन और घुमाव आकर्षण का केन्द्र होता है।
जब बेड़िनी झटके से पैर पटककर आगे पीछे होती है, तब उसे झटका कहते हैं। ढड़कचका में बेड़िनी का नृत्य करते और मृदंगिया का एक साथ बैठना, पैर फैलाना, लेट जाना, लेटे-लेटे सरकना, करवटें लेना, कुलाटें लेना और झटके के साथ उठना, सभी क्रियाएँ सम्मिलित हैं। मृदंगिया और बेड़िनी कदमों को एक साथ मिलाकर नाचते हैं, तब उसे तालमेल की मुद्रा कहते हैं।
राई नृतक और वादक की जुगलबंदी
दरअसल, कला का उत्कर्ष नर्तन और वादन की स्पर्धा में है। मृदंगिया या ढोलकिया पहले तो नृत्य की गतों का अनुसरण करता है, पर बाद में बेड़िनी को छकाने की जीतोड़ कोशिश। इसी तरह बेड़िनी भी मृदंगिया को अपनी नृत्यकला से पराजित करने के लिए हर संभव उपाय करती है। अगर वह नृत्य के साथ नहीं चल पाता, तो नर्तकी वादक की मृदंग पर अपना लहँगा रख देती है। इस प्रतियोगिता के फैसले के लिए निर्णायक नहीं बैठते।
वादक या तो स्वयं मान जाता है या दर्शक उसका समर्थन कर देते हैं। किसी विवाद की कोई गुंजाइश नहीं होती, कला का मूल्यांकन दर्शक तक कर लेते हैं। एक अजीब बात ध्यान देने योग्य है। वह यह कि एक मशालची नर्तकी के मुख के सामने जलती मशाल लिए हमेशा रहता है, उसके मुख का सौन्दर्य उजागर करने और अभिव्यक्तियों को प्रकाश में लाने के लिए घूंघट का मुख साफ-साफ कहता है कि उसे मत देखो, उसकी कला को परखो….।
राई कलाकरों के स्थान
बुंदेलखण्ड में राई के कई केन्द्र हैं, पर उनमें प्रमुख हैं सागर जिले के खमरिया, पथरिया, हवला और फतहपुर, छतरपुर जिले के बिजावर एवं गंज, पन्ना जिले में तहसील देवेन्द्रनगर का बड़ागाँव आदि। खमरिया के मृदंगिया कपूरे सेठ, पथरिया की बेड़िनियों में रजियाबाई, गिरजियाबाई, चन्द्राबाई और धनकुँअरबाई तथा वर्तमान में मृदंगवादक रामसहाय पाण्डे के साथ बेड़िनियाँ मुन्नीबाई और कान्तिबाई, फतहपुर में बेड़िनियों की सूची में प्यारीबाई, जसोदाबाई और विमलाबाई एवं मायाबाई तथा मृदंगियों में मोकलमऊ के गुलजारसिंह तथा बेटावारा के प्रह्लाद सिंह प्रसिद्ध हैं।
बिजावर में कई बेड़िनी परिवारों का अलग मुहाल है। स्व.शान्तिबाई बेड़िनी अपने समय में प्रसिद्ध कलाकार रही है। इसी तरह बड़ागाँव भी बेड़िनियों का गाँव है। छतरपुर में एक बेड़िया परिवार रहता है, जिसकी बेड़िनी श्यामबाई की पहुँच छतरपुरनरेश के दरबार तक थी।
पन्नानरेश अमानसिंह (1752-1758 ई.) के बहनोई आकोड़ी के प्रानसिंह ने अमानसिंह को चिढ़ाने के लिए गढ़ी के गुर्ज पर बेड़िनी नचवाई थी, जिसके फलस्वरूप प्रानसिंह मारे गये थे। राजाश्रय से उपेकक्षा की कगार तक राई की कलात्मकता और व्यावसायिकता के कारण उसने राजाश्रय प्राप्त कर लिया था।
कलात्मकता के कारण राई की माँग बढ़ गयी थी और व्यावसायिकता के कारण वह सुलभ थी। रियासतों के सामन्त, जमींदार और जागीरदार, सभी विशेष उत्सवों पर राई को महत्व देते थे। बुंदेलखण्ड के ठाकुरों की शादी-विवाह जैसे अवसरों पर वह लोकनृत्य अनिवार्य-सा हो गया था।
आजकल राई के आश्रयदाता उदासीन नजर आते हैं और समाज में राई के प्रति हेय दृष्टि से देखे जाने के कारण एक खतरा उत्पन्न हो गया है। इस संक्रमण की स्थिति पर गम्भीरतासे विचार करना जरूरी है। पहला सवाल तो लोकरूचि का है।
छतरपुर और अबार के मेलों में राई के दर्शकों की भीड़ से सिद्ध है कि लोकरूचि में कमीं नहीं है। शहर का उच्च वर्ग उसे उपेक्षा की दृष्टि से देखता है और बेड़िनी को वेश्या समझकर उससे कतराता है। वह यह भी मानता है कि उसमें फूहड़ता सिवा कुछ नहीं है।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल
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