बुन्देलखंडी शैली के स्थापत्य अर्थात् Bundelkhand ki madhykalin kalayen गीत, संगीत, नृत्य एवं चित्र कला अपनी शैलीगत पहचान बना चुकी थीं। समस्त ललितकलाओं के पृकांड पारंगतों का राज्य मे अपना विशिष्ठ स्थान था, विशिष्ठ सम्मान था। उन्हे राजाश्रय मिला हुआ था।
बुन्देलखंड की मध्ययुगीन कलायें (गीत-संगीत-नृत्य एवं चित्र )
बुन्देलखंड की मध्ययुगीन कलाओं की स्थिति
तोमर-काल (1400-1517 ई.) में स्थापत्य, चित्राकला और संगीत का उत्कर्ष दिखाई पड़ता है। Manmandir मानमन्दिर और Gujari Mahal गूजरी महल का स्थापत्य विशुद्ध हिन्दू शैली का है। बुन्देलखंडी शैली के स्थापत्य अर्थात् बुन्देलखंडी स्थापत्य का सही रूप ओरछा नरेश वीरसिंह देव (1607-27 ई.) के समय निर्मित मथुरा का केशवराय और ओरछा का चतुर्भुज मन्दिर, दतिया का राजप्रासाद और ओरछा का जहाँगीर महल तथा झाँसी का दुर्ग, सब मिलकर दर्शाते हैं।
मन्दिरों की विशालता और भव्यता तथा चतुर्भुज मन्दिर के शंकु-आकारवाले शिखरों जैसी कलात्मकता बुन्देलखंडी स्थापत्य की प्रमुख विशेषताएँ बनीं। दतिया राजप्रासाद अपनी बुन्देलखंडी शैली के कारण स्थापत्यविदों द्वारा सराहा गया है। पन्ना, छतरपुर, महेवा आदि के भवन उत्तर-बुन्देलखंडी स्थापत्य के उदाहरण हैं।
चित्रकलाविद वाचस्पति गैरोला ने चित्रकला की ग्वालियरी शैली को राजपूत और मुगल, दोनों कलाओं से प्रभावित माना है, जबकि हरिहरनिवास द्विवेदी का मत है कि भारतीय चित्राकला के पुनरुत्थान का केन्द्र ग्वालियर अर्थात् बुन्देलखंड था।
प्रसिद्ध विद्वान एन.सी. मेहता ने दतिया की रागमाला चित्र-शैली को ही ‘बुन्देला स्कूल’ कहा है और उन्होंने उसका प्रारम्भ ओरछानरेश वीरसिंह के राज्य-काल से माना है। बुन्देलखंडी चित्र-शैली की अपनी विशेषताएँ हैं। इस शैली के चित्र अपनी परम्परित आकृतियों, रचना-विधान और रंगों की सादगी में स्पष्टतः भिन्न हैं।
प्रकृति-चित्रण की अपेक्षा स्त्री-पुरुष के अंकन को प्रमुखता, स्पष्ट ईमानदारी और काम की निष्ठा, सज्जा एवं अलंकृति के स्थान पर विशेष परिणाम की पूर्णता, उस शैली की कुछ विशेषताएँ हैं। इस शैली के चित्र अधिकतर एकचश्मी होते हैं। मुखाकृति में यह शैली स्पष्ट झलकती है।
चेहरे में बूँदी शैली की गोलाई, भरा और उभरा मुख तथा ओजमयी दीप्ति से प्रकाशमान, आँखें बड़ी एवं पूरी खुली हुईं, भृकुटी चढ़ी हुई कमानीदार, गलफुल्ले गाल, भावुकता की आभा तथा नाक और आँखों की छाया से सौन्दर्य ही उसकी विशिष्टता है।
तोमरनरेश मानसिंह (1486-1517 ई.) के समय मार्गी संगीत के विरुद्ध देसी संगीत ने विजय प्राप्त की थी, जोकि भारतीय संगीत के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। मानसिंह का ‘मानकुतूहल’ ग्रन्थ देसी संगीत का घोषणा-पत्र है। मानसिंह के दरबार में बैजू, बख्शू, चरजू, भगवान, धाँडू, रामदास आदि गायक-वादक थे।
बैजू पहले चन्देरी में रहते थे , बाद में ग्वालियर-दरबार के रत्न बने । ध्रुवपद का आविष्कार बैजू बावरा ने ही किया था। उसने गूजरी रानी मृगनयनी के नाम पर गूजरी टोड़ी, मंगल गूजरी आदि रागों की रचना की थी।
दूसरा केन्द्र बना ओरछा, जिसके अधिकांश नरेश वैष्णव थे और वैष्णवों में संगीत भक्ति का साधन था। इस कारण ओरछा संगीत का दूसरा प्रमुख केन्द्र बना। आचार्य केशव के एक दोहे ‘कियो अखारो राज को, सासन सब संगीत’ में कलाओं के खास तौर से संगीत और नृत्य के उत्कर्ष को महत्त्व मिला है।
राजनर्तकी रायप्रवीण तो नृत्य-कौशल के लिए देशभर में विख्यात थीं। गढ़ा-मंडला के गोंड़ नरेश हृदयशाह ने (1634-78 ई.) संगीतशास्त्र के दो ग्रन्थों हृदय-कौतुक और हृदय-प्रकाश की रचना की थी। छत्रासाल की नर्तकी मस्तानी, दतिया के भवानीसिंह का नर्तक गुल्ला, पखावज-वादक कुदउँसिंह आदि कलाकार अपनी कला में विख्यात रहे हैं।
बुन्देलखंड की मध्यकालीन लोककलाएँ
मध्ययुग में ग्वालियर संगीत का प्रमुख केन्द्र था। चन्देरी के गायक बैजू बावरा ने लोकसंगीत के माध्यम से ही मार्गी के विरुद्ध ऐसी संगीत की प्रतिष्ठा की थी। साथ ही ईरानी संगीत (विदेशी) के सामने एक चुनौती खड़ी कर दी थी। अगर बैजू बावरा और तानसेन न होते, तो देसी संगीत का प्रसार सम्भव न था। देसी संगीत मूलतः लोकसंगीत से ही निकला है और यह लोकसंगीत की ही क्रान्ति थी।
उसके बाद लोकसंगीत में और भी विविधता आई तथा उसे परिनिष्ठित आधार मिले, जिनकी वजह से उसमें राग-रागिनियों की खोज हुई। फागों, और फागों की तरह दूसरी लोकगायकी में भी लोकधुनों में रागों की नापजोख होने लगी। यहाँ तक कि लेद की लोकगायकी को बंधान में बाँधकर शास्त्रीय बना दिया गया।
इस काल में लोकनृत्यों को काफी सम्मान प्राप्त था। रायप्रवीण को इन्हीं लोकनृत्यों में कुशलता के कारण दरबार और अखाड़े के लिए चुना गया था। अखाड़ों में लोकसंगीत के साथ लोकनृत्य होते थे। पिछड़ी जातियों का प्रमुख मनोरंजन लोकनृत्य था। लोकनृत्य लोकोत्सवों के अनिवार्य अंग थे। संस्कारपरक और धार्मिक उत्सवों में लोकनृत्यों का उत्साह देखते बनता था।
इस युग में भक्ति और शृँगारपरक लोकनृत्य अधिक लोकप्रिय थे। भक्तिपरक लोकनृत्यों में रामनवमी, कृष्णजन्माष्टमी, शिवरात्रि और देवी-पूजन के समय विविध शैलियों का प्रयोग हुआ है। शृंगारपरक में राछ, राई आदि बहुत प्रसिद्ध रहे। जातिपरक लोकनृत्यों का प्रचलन अधिक रहा। मध्यकालीन ग्रन्थों से पता चलता है कि लोकचित्रा हर उत्सव, त्योहार और पूजा में लिखे जाते थे। लोकगीतों में भी चित्र के उरेहने का वर्णन आया है।
दिवारी पर सुरेता-सुरातू, चिरैया गौर पर वटवृक्ष और चिड़िया, नवरात्र पर देवी आदि के लोकचित्र एवं नौरता में विभिन्न प्रकार के चौक, अल्पनाएँ आदि लिखे जाते थे। मंगल कलश पर विविध प्ररचना और मेहंदी पर विभिन्न आलेखन प्रचलित थे। लोकचित्रों में सादे रंगों लाल, हरा, पीला, नीला और सफेद का प्रयोग होता था।
लोकचित्र और लोकसंगीत का मेल इस जनपद के हर भाग में मिलता है, पर लोकनृत्य का संगम कहीं-कहीं अत्यन्त लगन से हुआ है। उदाहरण के लिए, नौरता या सुअटा एवं दिवारी में लोकचित्र, लोकसंगीत और लोकनृत्य का संगम प्रभावशाली है। होली या फाग में लोकसंगीत की मुखरता अधिक है, जबकि शिवरात्रि में लोकचित्र और लोकमूर्ति की।
असल में, एक लोकोत्सव या व्रत के पीछे एक आदर्श किसी समुचित कथा के द्वारा व्यक्त रहता है और उसी कथा को लिखा जाता है चित्रा में, गाया जाता है लोकसंगीत में तथा दर्शाया जाता है लोकनृत्य में।
बुन्देलखंड की कलाएँ और लोकसाहित्य
कलाओं के अन्तरसम्बन्धों की खोजों से स्पष्ट है कि हर कला का दूसरी कला से सम्बन्ध निश्चित है और कलाओं के अन्तरावलम्बन से यह सम्बन्ध अधिक घनिष्ट हो जाता है। मध्ययुग के स्थापत्य (बुन्देलखंडी) में जिस प्रकार विशालता और भव्यता के दर्शन होते हैं और चित्रों में जिस तरह ओजपूर्ण और उभरे हुए मुख एवं स्वस्थ अंगों का प्रकाशन होता है, उसी प्रकार परिनिष्ठित काव्य तथा लोकगाथाओं में उत्साह और वीरता की अभिव्यंजना मिलती है।
संगीत और चित्राकला में रागबद्ध भक्तिपरक पदों और रागमाला चित्राशैली के चित्रों द्वारा जो भावुकता की तन्यमता आई है, वही कविता में भक्ति की तरलता बन गई है। इसी तरह संगीत और चित्राकला की शृँगारिक वस्तु और अलंकृति शृँगारिक कविता और उसका अलंकरण बनी है। लोकसाहित्य का भक्तिपरक, प्रेमपरक और शृंगारिक लोककाव्य इन्हीं परिस्थितियों का सुफल है।
लोककलाओं की एकता स्वयंसिद्ध है। उदाहरण के लिए, जो नौरता की लोककथा और लोकगीत अर्थात् लोकसाहित्य है, वही उसके लोकसंगीत, लोकचित्रों, लोकमूर्तियों और लोकनृत्यों में है। यह कलागत एकता लोकसंस्कृति की सुरक्षा के लिए कारगर सिद्ध हुई है। दूसरी बात यह है कि लोकसाहित्य को शिष्ट साहित्य का पिछलग्गू नहीं समझना चाहिए, क्योंकि रूढ़िबद्ध साहित्य को लोकसाहित्य ने ही नई दिशा दी है और उसकी जड़ता को तोड़कर नई ताजगी से उसका कायाकल्प किया है।
इस विपरीत परिस्थिति में जब सूफियों की हिन्दवी, संगीत के द्वारा फैलती गई और गजलों की तानें हर कोनों में गूँजने लगीं, तब बैजू ने चंदेरी की लोकभाषा में धु्रवपदों की रचना की और उनके पीछे वह बाबरा तक हो गया। शायद इसी रूप में वह इतना प्रसिद्ध हो गया कि तत्कालीन ग्वालियर नरेश मानसिंह तोमर ने उसे अपने दरबार का एक रत्न बना लिया।
राजाश्रय पाकर बैजू की रचनाओं को और अधिक लोकप्रियता मिली, गायकों और संगीतज्ञों ने ध्रुवपद गायकी को अपनाया तथा वे आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। मानसिंह ने इस गायकी को अधिक प्रोत्साहित किया और हर तरफ फैलाया। उनके दरबार में महमूद जैसे मुसलमान, लोहंग जैसे दक्षिणी और नायक पांडयी जैसे तिलंगाने के कलाकार आते रहते थे और इस गायकी को लेकर सुदूर स्थानों तक जाते थे। बख्शू और गोपाल, बैजू के शिष्य थे, जिन्होंने दूसरे दरबारों में भी इस गायकी को स्थापित किया।
आशय यह है कि ध्रुवपदों की रचना लोकभाषा और संगीत दोनों के लिए एक ऐतिहासिक घटना सिद्ध हुई। कुछ विद्वान और संगीतज्ञ इस क्रान्तिकारी प्रवर्तन का श्रेय तेामर नरेश मानसिंह को देते हैं, पर मैं उनसे सहमत नहीं हूँ। वस्तुतः आचार्य बैजू ही ध्रुवपद के प्रथम रचनाकार और नई गायकी के प्रवर्तक हैं। उन्होंने ही गूजरी महारानी के नाम पर नए रागों का आविष्कार किया था और मानसिंह के नाम से कुछ धु्रवपदों की रचना की थी, जिनका उल्लेख फकीरुल्ला खाँ के रागदर्पण में मिलता है।
ध्रुवपद को प्रकाश में लाने और दूर-दूर तक फैलाने का महत्त्वपूर्ण कार्य मानसिंह के सामर्थ्य की बात थी। बहरहाल, ध्रुवपदों ने लोकभाषा को पूरे देश में दीप्त करने का दायित्व निबाहा और फल यह हुआ कि हिन्दवी धीरे-धीरे विस्मृत हो गई। एक तरफ शृँगारपरक ध्रुवपदों ने अपने शृँगार, लोकभाषा और देसी गायकी के कारण जनता और दरबारों में विशिष्ट सम्मान पाया, तो दूसरी तरफ स्वामी हरिदास जैसे भक्तिपरक ध्रुवपदों ने भक्तों और सम्प्रदायों को सम्मोहित कर लिया।
एक प्रमुख बात यह भी है कि ध्रुवपद मुगल बादशाह हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ आदि को इतने प्रिय हो गए कि उनकी वजह से अनेक गायक सम्मानित हुए। इस रूप में शाही दरबारों में भी लोकभाषा का सम्मान होने लगा था।
इस सन्दर्भ में तीसरा पक्ष है कवित्त-गायन का। राजाओं और बादशाहों के दरबारों में प्रश्रय दिलाने तथा भाषाकाव्य को फारसी के समान प्रतिष्ठित पद पर बैठाने की जिम्मेदारी बीरबल ने अपने कन्धों पर ले ली थी। वे केशव जैसे कवि को एक ही छन्द पर छह लाख की हुंडी प्रदान कर यश कमाने के चक्कर में नहीं थे, वरन् उनका उद्देश्य छन्द की गरिमा स्थापित करना था। भाषा के संरक्षण के लिए बीरबल सदैव कटिबद्ध रहे, यह हिन्दी के इतिहास का एक अविस्मरणीय तथ्य है।
बुन्देलखंड में तो लोकभाषा को राजभाषा पद दिया गया और सोलहवीं शती से उन्नीसवीं शती तक वह इस पद को सुशोभित करती रही। भाषा के संघर्ष के इतिहास में यह भी उल्लेखनीय सत्य है और इसे उपेक्षित करने से इतिहास अधूरा रहेगा। लोकभाषा के लम्बे संघर्ष का इतिहास सुस्पष्ट है।
खासतौर से तेरहवीं से सोलहवीं शती तक तीन सौ वर्षों का कठिन संघर्ष और उसके ऐतिहासिक दस्तावेज विष्णुपद और ध्रुवपद-लोकभाषा की यात्रा और देसी संगीत के प्रवर्तन के प्रामाणिक गवाह हैं। भाषा और संगीत के विकास में इस उपेक्षित अध्याय का महत्त्व असंदिग्ध है और विशेष रूप में विष्णुदास, बैजू, बीरबल जैसे भाषापुरुषों का।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल