Bundelkhand Ke Sake बुन्देलखंड के साके

बुन्देलखंड की लोकगाथाओं में Bundelkhand Ke Sake एक महत्त्वपूर्ण प्रकार हैं। बुन्देलखंड की कुछ लोकगाथाएँ साकौ के नाम से प्रचलित हैं। उनमें प्रायः वीर पुरुषों, समाज कल्याण  करने वाले धार्मिक और निष्ठावान व्यक्तियों की प्रशंसा  का गायन किया जाता है। साकौ की रचना कुछ खास प्रकार के कवि/ भाँट करते थे इसके एवज मे उन्हे अच्छा खासा पारितोषिक भी मिलता था। 

बुन्देलखंड की लोक-गाथा साके
Bundelkhand ki Lok-Gatha Sake

साके का अर्थ
बुन्देलखंड में लोकगाथाओं के रूप में साके गाये जाते हैं। साके वीर और आदर्श प्रधान राजाओं की यश-गाथाएँ हैं। वैसे साका का अर्थ होता है प्रशंसा या यश-गायन। आदिकाल में राजाओं के यश गायन का कार्य प्रायः चारण  और भाट लोग ही किया करते थे। यह उनका एक जीविकोपार्जन का साधन था।

राजस्थान में यह प्रथा आज भी प्रचलित है। समस्त वीरगाथाकालीन काव्य चारण  और भाट कवियों के द्वारा लिखा गया है। सच पूछा जाये तो रासो ग्रंथ का एक प्रकार साके ही थे। यह प्रथा बुन्देलखंड में अनेक वर्ष से प्रचलित रही है। यहाँ भी अनेक वीर, कर्तव्यनिष्ठ और आदर्शवान राजाओं के साके गाये गये हैं।

जिनमें अमरसिंह, राजा मधुकर शाह, राजा मर्दनसिंह और लाला हरदौल कौ साकौ विशेष प्रसिद्ध हैं। प्रायः वैवाहिक अवसरों पर पंडित लोग साकोच्चार करते हैं। उसके अन्तर्गत वर और कन्या पक्ष के पूर्वजों की प्रशस्ति का गायन किया जाता है।

कुछ विद्वान साके की व्युत्पत्ति शक शब्द से मानते हैं। भारत  में शक संवत् का भी प्रचलन है। यह शक संवत् तत्कालीन राजाओं की प्रशस्ति का गायन ही है। भारत में विक्रम, शक, ईसा और हिजरी सन् का प्रयोग किया जाता है।

साके के प्रमुख लक्षण
साकों की कथावस्तु का विधिवत अध्ययन करने पर उनमें निम्नलिखित लक्षण दिखाई देते हैं…।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
कल्पना प्राचुर्य
प्रशस्ति गायन
शैक्षिक दृष्टिकोण
लोक मंगल की भावना

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि-
गाथाकारों ने साको की रचना ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर की है। साको का कथानक चाहे पूरा ऐतिहासिक न हो, किन्तु उनमें वर्णित पात्र इतिहास प्रसिद्ध ही होते हैं। कुछ स्थानों के नाम और कुछ वर्णित घटनाएँ तो इतिहास प्रसिद्ध होती ही हैं। उनमें कुछ पात्र ऐतिहासिक और कुछ काल्पनिक जुड़ जाते हैं, जिसके कारण कुछ विद्वान इन्हें अनैतिहासिक मानने लगते हैं।

राजा मर्दनसिंह, राजा मधुकर शाह, रानी गणेश कुँवरि, राय प्रवीण और लाला हरदौल आदि इतिहास प्रसिद्ध पात्र हैं। यहाँ अमरसिंह कौ साकौ भी प्रचलित है, जो एक इतिहास प्रसिद्ध राजा थे। कुछ लोग उन्हें राजस्थान का राजा मानते हैं, किन्तु थे तो इतिहास प्रसिद्ध ही। लाला हरदौल से कौन परिचित नहीं है। इनके अतिरिक्त धनसिंह, सुजान सिंह और वीरसिंह के साके भी समय-समय पर गाये जाते हैं।

कल्पना प्राचुर्य-
साकौ की पृष्ठभूमि तो ऐतिहासिक ही है, किन्तु उनमें कल्पना की प्रचुरता है। उनमें रोचकता और सरसता स्थापित करने के लिए गाथाकारों ने काल्पनिक पात्र और घटनाएँ गढ़कर एक नया ठाट खड़ा कर दिया है। काल्पनिक
घटनाएँ सत्य होने का तो कोई प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता, वे केवल तिलस्मी और तोता-मैंना के कहानी-किस्सों की तरह मनोरंजन के साधन मात्र रह जाते हैं। अधिकांश साकौ के कथानक कल्पना और इतिहास के मिले-जुले रूप ही होते हैं।

अवध में प्रचलित लोकगाथाओं के आधार पर अधिकांश प्रेमाख्यानक महाकाव्य लिखे गये हैं। ये सब के सब ऐतिहासिक दृष्टि से अप्रामाणिक हैं। राजस्थानी लोक गाथाओं के आधार पर जो रासो ग्रंथ लिखे गये हैं, वे सबके सब अप्रामाणिक हैं। इनमें कल्पना की ऊंची उड़ानें भरी गईं हैं। अपने आश्रयदाताओं की अतिशयोक्ति पूर्ण प्रशंसा करना ही उनका प्रमुख उद्देश्य रहा है।

वैसे इतिहास और काव्य में बहुत अंतर होता है। इतिहास नीरस और काव्य सरस होता है। इसी कारण से इतिहास और काव्य का तालमेल मिलाने के लिए कल्पना का आश्रय लिया जाता है। कल्पना के कारण  कथावस्तु में सरसता आ जाती है।

कवि काव्य में कुछ मौलिक उद्भावनाओं का समावेश करता है, जिससे काव्य में नवीनता और रोचकता आ जाती है। साके कार ने बुंदेली संस्कृति और आन-बान-शान की सुन्दर परिकल्पना की है। मधुकर शाह के साके में हिन्दू धर्म और संस्कृति की दृढ़ता पर बल दिया गया है। लाला हरदौल के साके में लाला-भाभी के निश्छल प्रेम की परिकल्पना की गई है। अतः साके के कथानक में रोचकता लाने के लिए कल्पना का आश्रय लेना आवश्यक है।

प्रशस्ति गायन-
सच पूछा जाये तो साके शुद्ध रूप में प्रशस्ति गायन ही है। किसी लोकप्रिय राजा की यश गाथा का गायन करने के लिए इनकी रचना की जाती है। कुछ साके तो चारण और भाट कवियों के द्वारा गाये जाते हैं और कुछ साकों की रचना समाज करता आया है। समाज में कुछ ऐसे चरित्रवान और आदर्श पुरुष अवतरित हुए हैं, जिनके कार्य कलापों से प्रभावित होकर लोक मुख से अचानक प्रशंसा पूर्ण पंक्तियाँ निकली हुईं, जो कुछ समय बाद ‘साके’ के रूप में प्रसिद्ध हो गईं।

भारत के हर अंचल में इस प्रकार के प्रभावशाली व्यक्ति अवतरित होते रहे और रहेंगे, जिनका यश-गायन साधारण जनता ही करती रही और रहेगी। यही कारण है कि हर अंचल में इस प्रकार की यश गाथाएँ प्राप्त होती हैं। यदि इन्हें मार्ग-दर्शक और शिक्षाप्रद कहा जाये तो अनुचित नहीं होगा। बुन्देलखण्ड में अमानसिंह, धनसिंह और हिन्दूपति के साके गाये जाते हैं। साकेकार साके के प्रारंभ में ही कह उठता है-
तोरी मत कोंने हरी रे धनसिंह, तोरी मत कोंने हरी रे

ब्रिटिश शासन काल में मातृभूमि की रक्षा करते हुए लड़ते-लड़ते जान दे दिया था। इसी प्रकार लोहागढ़ के राजा हिन्दूपति की यशोगाथा इस क्षेत्र के जन-जन की ज़बान पर है, गाथाकार लिखता है…।
कटे सूर सामंत वर, हिन्दूपति की बान।
प्राण दान दै राख लई, लोहागढ़ की शान।

हिन्दू संस्कृति की लाज बचाने वाले जिन्हें बादशाह अकबर ने ‘टिकैत’ की उपाधि से विभूषित किया था, ऐसे राजा मधुकर शाह की हठधर्मिता से तो सारा बुन्देलखण्ड भली भाँति परिचित ही है। लोग बड़े चाव से उनके साके का गायन किया करते हैं। उनकी निर्भीकता को देखकर बादशाह अकबर ने कहा था…।
आपके ही नाम से, लगाया अब जायेगा। मधुकर शाही यह टीका कहलायेगा।।
आचार्य केशवदास जी की शिष्या प्रवीणराय ने अपनी हाज़िर जवाबी के द्वारा अकबर जैसे बादशाह को लज्जित कर दिया था। उसके एक दोहे को सुनकर बादशाह ने प्रसन्न होकर उसे पुरस्कृत करते हुए ससम्मान विदा कर दिया था। यह बुंदेली संस्कृति का बहुचर्चित दोहा है…।
विनती राय प्रवीन की, सुनिये शाह सुजान।
जूँठी पातर भकत को, बारी वायस श्वान।

इस बुंदेली विदुषी बाला की प्रशस्ति का गायन आज सारा विश्व कर रहा है।

शिक्षा की प्रधानता 
बुंदेली साके प्रशंसा पूर्ण  होते हुए भी शिक्षा प्रधान हैं। किसी महापुरुष या प्रजापालक राजा की यशगाथा गायन करने पर श्रोताओं को उनके कार्य-कलापों से परोक्ष रूप में मूल्यवान शिक्षा प्राप्त होती है। वे एक प्रकार के मार्ग-दर्शक उपकरण  हैं। बीच-बीच में साकेकार शिक्षा की ओर संकेत भी करते हैं। हरदौल साके का गायन करते हुए गाथाकार कह उठता है …।
नजरिया के सामने तुम, हरदम  लाला  रइयौ।
जैसी लाल नाँय निभाई, सई सदा निभइयौ।

गाथा का श्रवण करते ही जन-जन को आदर्श चरित्र और मर्यादा की शिक्षा प्राप्त होती है। देवर-भाभी के निश्छल प्रेम का उच्चादर्श बुन्देलखण्ड जैसा अन्यत्र दुर्लभ है। यही स्थिति हिन्दूपति के आत्मबलिदान की है। गाथाकार संकेत करता है…।
प्राण दान दै राख लई, लोहागढ़ की शान।

उनके अमर बलिदान से राष्ट्रीयता की उत्तम शिक्षा प्राप्त होती है। उसी प्रकार धनसिंह भी देश की रक्षा करते हुए मर गया था। बुन्देलखण्ड तो वीर पुरुषों की पुण्य भूमि है ही। इस प्रकार के सैकड़ों अमर बलिदानी इस धरती पर अवतरित हुए हैं। प्रवीणराय भले ही वेश्या थी किन्तु वह ओरछेश इंद्रजीत को अपना पति स्वीकार कर चुकी थी। अपने पातिव्रत और सतीत्व की रक्षा करने हेतु उसने बादशाह अकबर का आग्रह ठुकरा दिया था।

राजा मधुकर शाह की हठ से तो सारा विश्व परिचित ही है। बादशाह अकबर ने उन्हें ‘टिकैत’ की उपाधि से विभूषित किया था। यह सब उन्हीं अमर गाथाओं का परिणाम है कि विषम परिस्थितियों के महासागर को पार करते हुए आज भी सनातन धर्म और हिन्दू संस्कृति अपनी कीर्ति-पताका फहरा रही है।

लोक मंगल की भावना- सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति लोक-मंगल की भावना से आपूरित है। भारतीय धर्म और संस्कृति का मूल ग्रंथ गीता इस भावना का प्रसार करते हुए कहता है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः,  सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुखभाग भवेत्।

लोक साहित्य तो प्राचीनकाल से ही इसी भावना का प्रचार करता आ रहा है। चाहे लोकगीत हों, चाहे कथा या लोक गाथा हो, सभी में इसी भावना के दर्शन हो रहे हैं। यहाँ तक कि बुंदेली बालाएँ कभी-कभी जब किसी देव मंदिर में जाती हैं, तब देवताओं से प्रार्थना करती हुईं कहने लगती हैं कि -हे भगवान! सबखौं खुशी राखियौं। साकों में अनेक स्थानों पर इस भावना के दर्शन होते हैं। सच पूछा जाये तो उन सबका मूल उद्देश्य लोक मंगल ही है।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

नाग पंचमी ब्रत कथा 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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