Homeबुन्देलखण्ड की लोक संस्कृतिBundelkhand Ke Lokotsav बुन्देलखण्ड के लोकोत्सव

Bundelkhand Ke Lokotsav बुन्देलखण्ड के लोकोत्सव

बुन्देलखण्ड आदि काल से लोकोत्सवों का प्रदेश रहा है । Bundelkhand Ke Lokotsav यहां के जनमानस के लोक जीवन मे समाए हुए हैं ।  पूजापाठ,  जप-तप व्यक्ति द्वारा होते हैं ये कार्य व्यक्तिगत होते हैं लेकिन लोकोत्सव समाज के द्वारा मनाये जाते हैं। लोकोत्सव में व्यक्ति प्रधान न होकर समाज प्रधान होता हैं।  मनुष्य का मानवीय पक्ष सामाजिक और सामूहिक व्यवहारों और उत्सवों में ही मर्मस्पर्शी और मंगलदायक बनता है। लोकोत्सव उत्साह उमंग और मंगल की सामूहिक आस्था और विश्वास के भी संयोजक हैं ।

Folk Festivals of Bundelkhand

लोक उत्सवों में व्रत, त्यौहार तथा लोक मेला आदि को सम्मलित किया जाता है। तीज त्यौहार लोक जीवन में प्रेम विश्वास के रस को प्रवाहित करते हैं। बुन्देलखण्ड वन और कृषि प्रधान क्षेत्र हैं। यहां के लोकोत्सवों पर इसीलिये ऋतुओं की गहरी छाप है। बुन्देली उत्सवों की यदि ऋतुओं के अनुसार विवेचना करें तो वे इस प्रकार गिनाये जा सकते हैं।

1 – बसंत ऋतु में प्रचलित त्यौहार, व्रत और मेला
बंसत ऋतु में मनाये जाने वाले वृत, त्योहार इस प्रकार हैं…।
1 – गनगौर पूजन,
2 – श्री नवदुर्गा पूजन
3 – श्रीराम जन्मोत्सव
इस ऋतु में बुन्देलखण्ड में जवारों का मेला, और अछरूमाता का मेला भी ओयाजित होता है।

2  – ग्रीष्म ऋतु के व्रत
इस ऋतु में अक्षय तृतीया का व्रत ही प्रमुख रूप से लोक समाज में प्रचलित है।

3- वर्षा ऋतु के तीज-त्यौहार, व्रत तथा मेला
वर्षा ऋतु में सर्वाधिक व्रत, त्यौहार तथा मेलों का आयोजन बुन्देलखण्ड में होता है। इनका विवरण इस प्रकार है….।
1 – सावित्री व्रत
2 – कनघुसूं
3 – सावन तीज
4 – नागपंचमी
5 – भुजरियन का मेला
6 – रक्षा बन्धन का त्यौहार

इसके अतिरिक्त भादों मास के प्रमुख त्योहार हैं
1 – हरछट का व्रत
2- श्री कृष्ण जन्माष्टमी
3-हरतालिका व्रत
4- गणेश जन्मोत्सव
5- सतान सप्तमी ब्रत
6- ऋषी पंचमी व्रत
7- अनन्त चतुर्दशी व्रत
8- महालक्ष्मी व्रत
9- नवरात्रि
10- दुर्गापूजन
11- जलबिंहार मेला
12- मामुलिया पूजन
13- सुआटा

4 – शरद ऋतु के तीज, त्यौहार, व्रत और मेले
शरद ऋतु के तीज , त्यौहार, व्रत इस प्रकार हैं….।
1 – कार्तिक स्नान का ब्रत और मेला
2 – दीवाली
3 – गोवर्द्धन की पूजा
4 – भाइया दौज
5 – देवोत्थानी एकादशी
6 – बैकण्ठी चतुर्दशी

5 – हेमनत ऋतु के तीज- त्यौहार व्रत तथा मेले
हेमन्त ऋतु में मी अधिक लोकोत्सव मनाये जाते हैं। इस ऋतु के प्रमुख उत्सव इस प्रकार हैं….।
1 – संकटा व्रत
2 – श्रीकाल भैरव जयन्ती
3 – श्रीराम विवाह पंचमी मेला

6 – शिशिर ऋतु के तीज-त्यौहार ब्रत तथा मेले
शिशिर ऋतु के प्रमुख तीज त्यौहारों निम्नांकित हैं… ।
1 – मकर संक्रान्ति का व्रत तथा मेला
2 – भरभरात का पर्व
3- होलिकोत्सव
4- शिवरात्रि व्रत तथा मेला
5- करूला पांचे
6- उन्‍नाव का फाग मेला
7- खुजराहो का मेला

जवारों का मेला
बुन्देलखण्ड में नवदुर्गा पूजन और जवारों का मेला सर्वाधिक लोकप्रिय लोकोत्सव है। चैत्र शुक्ल प्रतिवदा से नवदुर्गा का पूजन प्रारम्भ हो जाता है। उसी दिन मिट्टी के घड़ों में जवारे बोये जाते हैं। जौ का बोना ही जवारे बोना कहलाता है। जवारों का  नौ दिन प्रतिदिन पूजन होता है।

नवें दिन संघ्या काल में स्त्री-पुरूष जवारो को सजाकर सिर पर रख के जुलूस के रूप में भ्रमण करते हैं। इस अवसर पर गीत गाये जाते हैं। यह एक प्रकार से अन्न का सम्मान करने वाला उत्सव है। इस उत्सव में इतना उल्लास और उमंग रहती है। लोक समाज मानों इसमें डूब जाता है। जवारों की यात्रा में समाज या परिवार का मुखिया अर्थात प्रमुख थाली में चौमुखी दीपक जलाकर जवारों क आगे आगे चलता  है।

उसके पीछे कुछ व्यक्ति त्रिशूल (जिसे बाना पुकारते हैं) लेकर चलते हैं। नगर या ग्राम में सैकड़ों टोलियां इसी रूप में निकलती हैं। सामूहिक जवारों की यात्रा मनमोह लेती है। इन जवारों को किसी के पास जलाशय या सरिता में विसर्जित कर दिया जाता है। इस मेले में महिलाएं और पुरूष लोकगीत गाते हैं ।
उड़ चल रहे परवत वारे सुवना
घर आंगना न सुहाय मोरी मांय ।
के उड़ चल मैया बाग बगीचा ।
के विन्ध्याचल डांग हो मांय ।

जवारों का मेला आदि शक्ति भगवती की मान्यता से जुड़ गया है। बुन्देलखण्ड में शक्ति दायक और सिद्धपूरक उत्सव प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध रहे हैं काछी, धीमर, गड़रिया, कोरी, धोबी , चौधरी, महतर आदि जातियों में इस लोकोत्सव की सर्वाधिक मान्यता है।

2 – कजरियां मेला
कजरियां या भुजरिया का त्यौहार बुन्देलखण्ड में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। श्रावण शुक्ल नवमी के अपराहन महिलाओं के समूह मिट्टी लेने जाते हैं। पहले खदान का पूजन करती है फिर गेहुं जौके दाने मिट्टी से पूरकर खदान को खोदती हैं।

अच्छी माटी संग्रह कर घर लाती है। इस मिट्टी में गोबरखाद मिलाकर छेवले के पत्तों से बने दोने में गेहूँ और जौ मिलाकर बो दिये जाते हैं। दोनो ढक कर रख दिये जाते हैं। प्रतिदिन पानी, दूध से इन्हें सीचा जाता है।

समय से गेहूं और जौं की पीले रंग की पौध निकल आती है। भादों की कृष्ण प्रतिपदा को और किसी क्षेत्र में सावन की पूर्णिमा को कंजरियाँ किसी तालाब में खोंटी और सिराई जाती है। घर में विधि-विधान से पहले इनका पूजन होता है। राखी चढ़ायी जाती है। भोग लगाया जाता है। झूला झुलाया जाता है फिर स्त्रियाँ समूह में एकत्र होकर इन्हे  सिर पर रखकर तालाघब ले जाती है। तालाब में कंजरियाँ खोंट कर दोनों को सिरा दिया जाता है।

तालाब से लौटते समय डगर में जन समूह मारी संख्या में पथ के दोनों किनारे खड़े हो जाते हैं। स्त्रियां समी को कंजरिया देती जाती हैं आगे बढ़ती जाती है। लोग इन कजरियों को माथे से स्पर्श करके उनका आदर करते है। कजरियों के बोने , खोंटने और देने में भेदमाव नहीं किया जाता है। हर जाति और समुदाय के लोग  इसमें सम्मलित होते हैं।

बुन्देलखण्ड के निवासी मुसलमान और ईसाई भी इन कजरियों का सम्मान करते हैं। बुन्देलखण्ड का यह लोक त्यौहार परस्पर प्रेम स्नेह और सौहाद्र का प्रतीक है। दूसरे अर्थों में यह हरित क्रांति की पूजा का उत्सव है। भाई बहन के प्रेम को यह लोकोक्तियाँ प्रगट करती हैं।
आसों के साउन घर के करौ आग के दैहों कराय ।
सोने की नादें दूदन भरीं सो कजरियों लेव सिराय ।

कुनघुसू पूने
आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को बुन्देलखण्ड के प्राय: प्रत्येक घर में ”कनघुसूं” का त्यौहार मनाया जाता है। यह त्यौहार घर की वधुओं को सम्मान प्रतीक है। सास स्वयं घर के चारों कोनों को पोतनी मिट्टी से पोतकर चारों कोनों में चार पुतलियाँ हल्दी से चित्रित करती है। चंदन, अक्षत और पुष्प चढ़ाकर गुड़घृत का नैवेध लगाकर आरती उतारती हैं।

प्रार्थना करती है हे परमेश्वरी वहू। घर में लक्ष्मी बन, धन धान्य और संतान से इस घर को मंगलमय बनाना।  यह त्यौहार भारत की उस चेतना का पोशक है कि जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं। ‘

मामुलिया
आश्विन कृष्ण पक्ष में मामुलिया बुन्देली कन्याओं  का लोकप्रिय त्यौहार है। इस त्यौहार को अविवाहित कन्याएं मनाती है। बेर वृक्ष की एक डाली लेकर पुष्पों से सजाती हैं। फिर अपने पुरा पड़ौस में द्वार द्वार जाकर सामूहिक गान गाती हुई “मामुलिया ” का प्रदर्शन करती है। इस अवसर पर यह लोकगीत अवश्य गाया जाता है।
ल्याओ – ल्याओ चंपा चमेली के फूल
सजाओं मेरी मामुलिया।
मामुलिया के आये लिबेआ।
झमक चली तेरी मामुलिया।

बेर बुन्देलखण्ड  का प्रमुख वृक्ष होता है। लोक समाज बेरों का बहुत प्रयोग करता है। एक लोक कहावत है “महुआ बेर कलेवा” अर्थात बुन्देलखण्ड में महुआ और बेर का कलेवा करना महुआ, आदि फल ग्रामीण जनमानस में  प्रचलित है । फसल धोखा दे जाए तो बेर, बचाते हैं। बेर की डाली का यही प्रयोजन हो सकता है ।

पारवारिक संदर्भ से कहा जा सकता है कि अविवाहित कन्याओं में यह भावना भरी जाती है कि जैसे बेरी में फूल, फल और कांटे होते हैं-वैसे ही कन्याओं में पुष्प जैसी सुवास संतान रूपी फल देने की क्षमता हैं। यह जीवन कष्टों और सुखों का मेल-जोल है। कांटे दुख का प्रतीक हो सकते हैं। मामुलिया का त्यौहार प्रकारान्तर से ‘हर परिस्थिति में मिलजुल कर जींवन निर्वाह करने की प्रेरणा देता है।

नौरता -सुअटा
आश्विन मास के शुक्ल पक्ष प्रारंभ होते ही बुन्देलखण्ड में कन्याओं  का त्यौहार ”सुअटा” मनाया जाने लगता है। यह पर्व नवरात्र के दिनों में होता है इसलिये इसे ‘नवरता’ या लोक भाषा में “नौरता” कहते हैं। इसमें घर के बाहर चबूतरे पर पूर्व दिशा के सम्मुख दीवार से सटाकर लगभग दो फूट ऊंचाई और लम्बाई के क्षेत्र में ”सुअटा” का आसन बनाया जाता है।

इसमें एक दैत्य, सूर्य तथा चन्द्रमा की आकृति बनायी जाती है। छोटी छोटी नौ सीढ़ियों बनाई जाती है। आश्विन शुक्ला प्रतिपदा को सूर्योदय के पूर्व आसपास की कन्याऐँ उस स्थान पर समूह में एकत्र हो जाती हैं। चबूतरे को लीप कर तरह -तरह  के चौक पूरती हैं। स्वयं तैयार किए हुए रंग आदि भरती हैं ।

कन्यायाएं  प्रतिदिन शिव गौरा की मूर्तियां बनाती है। जनश्रुति है कि सुअटा नाम कोई दैत्य कुमारियों को कष्ट पहुंचा था। उसी से मुक्ति पाने के लिये यह पूजन प्रचलित हुआ। कुमारियों की रक्षा दो भाई सूरज और चंदा करते हैं। इसी से मुक्ति पाने के लिए यह पूजन प्रचलित हुआ । उत्सव में कन्यायाएं  सामूहिक गीत गाती हैं ..।।।
नाएं हिमांचल की कंअर लडाएंती
नारे सुअटा गौरा बाई मेरा तौरा

यह उत्सव अविवाहित कन्याओं में कत्तर्व्यबोध जागता है। विवाह के बाद प्रत्येक कन्या को दूसरे घर जाना होता है। उसके उत्तरदायित्व बढ़ जाते हैं। कन्या भावी जीवन के संचालन का प्रशिक्षण ऐसे लोक त्योहारों से लेती हैं। सुआटा के यह गीत यही संदेश दे रहा हैं।

उगई न रे वारे चंदा
मो घर होय लिपना पुतना
सास न होय दे दे गारियाँ
ननद न होय कोसे बरियां
जौ के फल तिली के दाने
चन्दा ऊगे बड़े मुसारे

सात दिनों तक गीतों का यहीं क्रम चलता है। आठवें दिन काएं उतारी जाती हैं। काएं गिरने अर्थ है भाई बंधुओं के हितों और मंगल की कामना करना। ‘भसकूँ का मतलब मीठे और नमकीन पकवान बनाकर अंतिम दिन पूजन होता है। यौवन की देहरी पर खड़ी कन्या कोई न कोई राक्षस परेशान करता हीं हैं ऐसे संकट से बचने के लिए शक्ति को संचित करना चाहिए। ग्राहस्थ संस्कृति के यथार्थ से परिचय करना पारवारिक आदर्श पिता और ससुर की पगड़ी का सम्मान नारी का सम्मान करना इस लोकोत्सव का हेतु है।  

बुन्देली लोक संस्कार 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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