लमटेरा का अर्थ है लम्बी टेर के गीत, यानी कि दूर किसी को आवाज़ देते हुये गाना।Bundelkhand ka Lamtera पर्व-त्योहार पर स्नान के लिए नदी-सरोबर या फिर तीर्थ-यात्रा को जाते समय मार्ग में गाये जाते हैं। लमटेरा में ’’ल‘‘ के स्थान पर ’’र‘‘ हो जाने से ’’रमटेरा‘‘ हो गया है और उसके अर्थ में भी परिवर्तन कर दिया गया हैं वे ’’राम‘‘ के टेरने या बुलाने के गीत समझे जाने लगे हैं।
बुंदेली लमटेरा गीत (यात्रा के गीत)बुंदेलखंड मे जब रामभक्ति का बोलबाला हो गया था। आदिकाल में उन्हें भोला (शिव) के गीत भी कहा जाता था, क्योंकि उनमें शिव भक्ति का रस रहता था। एक साक्षी के अंत में ’’कै बोलो भाई बम भोले‘‘ टेक लगने से ’’बंबुलिया‘‘ भी कहा गया। ’’बंबुलिया‘‘ अर्थात् ’’बम बोलने वाले‘‘, जिनमें ’’बम-बम‘‘ का स्वर लगता हो।
इनका एक नाम टिप्पे भी है, जिसका अर्थ है बीच की दूरी। वस्तुतः मूल शब्द है टप्पा, जो बुंदेली में टिप्पा हो गया है। बीच की दूरी तै करने में गाये जाने वाले गीत टिप्पे हो गये हैं। इस प्रकार इस विस्तृत अंचल में लमटेरा अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है।
महादेव बाबा ऐसे जो मिले रे ऽऽ
ऐसे जो मिले रे जैसे मिल गए महतारी और बाप रे
महादेव बाबा
महादेव बाबा बड़े रसिया रे बड़े रसिया रेऽऽ
बड़े रसिया रे बड़े रसिया रे
माई गौरा से जोरें बैठे गांठ रे
(1) एक चरण वाला गीत, जिसमें केवल एक ही पंक्ति होती है। अधिकतर उसमें 16 मात्राओं में यति होती है और बाद की अर्द्धपंक्ति में 20 मात्राएँ रहती हैं। इस प्रकार यह 36 मात्राओं का एक चरण है, पर गाने में 16 मात्राएँ और जुड़ती हैं और इस रूप में वह 52 मात्राओं का हो जाता है।
(2) सखयाऊ लमटेरा, जिसमें एक साखी के साथ लटकनिया लगी रहती है। साखी की पहली अद्र्धाली के प्रथम अर्धांश के बाद ’’रे मोरे प्यारे‘‘ या ’’रे मोरे भइया‘‘ जोड़ने का चलन है। लटकनिया 8,10,11 मात्राओं की हो सकती है। कहीं-कहीं साखी के बाद लटकनिया में ’’कै बोलो भाई बम, कै बोलो भाई बम भोले‘‘ की 11* 15 =26 मात्राओं की पंक्ति होती है। जहाँ काँवरि चढ़ाई जाती है, वहाँ इस लटकनिया का अधिक प्रचलन है। असल में, वह काँवरि ले जाने वाले भक्त के कदमों से मेल खाती है।
1. भक्तिपरक गीत जिनमें शिव, भैरव, नर्बदा, गंगा, राम, कृष्ण आदि के प्रति भक्ति-भावना की अभिव्यक्ति होती है।
2. रहस्यपरक गीत- जिनमें कबीर की साखियों जैसी रहस्यमयता रखती है।
3. पौराणिक गीत- जिनमें पौराणिक आख्यानों का संकेत रहता है।
4. नीतिपरक गीत- जो नीति को केन्द्र में रखते हैं।
5. श्रृंगारपरक गीत- जिनका रस श्रृंगार होता है।
6. परिवारपरक या गृहस्थिक गीत- जिनमें गार्हस्थिक जीवन का यथार्थ अंकित हुआ है।
1. अभिधात्मक Non-responsive (गैर ज़िम्मेदार) गीत- जिनमें अभिधा प्रधान रहती है।
2. प्रश्नोत्तर शैली के गीत- जिनमें प्रश्न-उत्तर से विषय को व्यक्त करने की क्षमता होती है।
3.पहेली शैली के गीत- जो पहेली जैसी अभिव्यक्ति रखते हैं।
4. व्यंग्यप्रधान शैली के गीत- जो व्यंजना को केन्द्र में रखकर चुटीली अभिव्यक्ति को महत्व देते हैं।
लमटेरा गीत भक्ति-अध्यात्म और श्रृंगार अर्थात् जीवन के अलौकिक और लौकिक दोनों पक्षों को महत्व देते हैं बड़े भोर के लमटेरे जागरण के हरबोले हैं, जो हर संक्रमण-काल में जाग्रति की तुरही फूँकते हैं। यात्रा के श्रम का परिहार इसी तरह के लोक-संगीत से होता है। वे अपनी अभिधा में व्यंजना की शक्ति छिपाये रखते हैं। मतलब यह है कि ’’लमटेरा‘‘ की वस्तु में उतनी विविधता भले ही न हो, पर शैली और गायकी में इतनी प्रभावोत्पादकता है कि वे सभी के लोकप्रिय बन गये हैं।
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लमटेरा की सार्थकता लम्बी टेर में है और लम्बी टेर की सोये हुए को जगाने में। मकरसंक्रान्ति के संक्रान्तिकाल में ’’बेरा भई‘‘ की गूँज-अनुगूँज कुंभकर्णी नींद पर हथौड़े जैसी चोट करती है और जागरण का संदेश सुनाती है। कालभैरव और भैरोंनाथ के दर्शन के लमटेरा आदिकालीन संकट में तो आवश्यक थे, आज भी हैं।
दरस की तौ बेरा भई,
अरे बेरा भई पट खोलौ छबीले भैंरोंलाल हो……दरस की हो…..।
दरस की तौ बेरा भई,
अरे बेरा भई पटखोलौ छबीले भैरोंनाथ हो…..दरस की हो…..।
कालभैरव, भैरोंनाथ, नर्बदा, गंगा, गणेश आदि के प्रति लोकभक्तिभाव का सहज रूप इन गीतों में मिलता है। लोकभक्ति सम्प्रदायविहीन भक्ति है, वह न तो किसी खास देवता की है और न किसी खास जाति, वर्ग या धर्म की। लोकभक्ति के भाव की तीव्रता का अंकन पारिवारिक प्रतीकों से करना लोककवि की प्रतिभा का आभास देता है।
नरबदा माता तो लगै रे,
माता लगै तिरबेनी लगै रे मोरी बैन हो…….नरबदा हो…….।
महादेव बब्बा येसें भेंटोंरे,
येसें भेंटों जैसें भेंटे मताई उर बाप हो…….महादेव बब्बा हो……।
माता, पिता, पुत्रादि के प्रतीक संतों ने लोकगीतों से लिए हैं। साथ ही लोकदर्शन की समझ से ही संत और भक्त कवियों का दर्शन प्रेरित रहा है। लमटेरा गीतों में जिस लोकदर्शन की अभिव्यक्ति हुई है, वह किसी विशेष जाति, वर्ग, सम्प्रदाय का दर्शन नहीं है। वह तो हर आदमी का दर्शन है।
निकर चलौ दै टटिया हो,
दै टटिया धंधे में लगन देव आग हो……निकर चलौ हो……।
बननियाँ बगवा व्यानी हो,
बगवा ब्यानी बो तो सारे बनियन धर-धर खाय हो…..बननियाँ हो….।
बननियाँ माया है, जिसने बाघ रूपी अहंकार को जन्म दिया है और वह सभी मायापतियों को पकड़-पकड़ कर खा रहा है। गाँव के लोग इस अर्थ से परिचित हैं, तभी तो वह लोकमुख में है। मार्ग में जाते स्त्री-पुरुष श्रृंगारिक गीतों में भी रस लेते हैं। भक्तिरस एक तरह से अलौकिक श्रृंगार है। लौकिक से अलौकिक की तरफ जाने की गली काफी पुरानी है। इस युग में वीरता के बाद श्रृंगार को ही स्थान मिला था, इस वजह से इन गीतों में भी श्रृंगार का सुंदर स्वरूप चित्रित किया गया है।
कजरवा तो थोरो दओ रे,
थोरो दओ तोरे ऊसई लगनियाँ हैं नैन रे….. कजरवा हो …….।
मिलन खों बहयाँ फरकें रे,
बइयाँ फरकें दरस खों तरस रये दोई नैन हो….. मिलन खों हो……।
बरस जा दो बुँदियाँ रे,
दो बुँदियाँ मोरे कंता घरईं रै जायॅ हो……. बरस जा हो…….. ।
सभी गीत अपने भीतर रस की गगरिया रखे हुए है जो धीरे-धीरे रिसती रहती है और मन को भिगोती रहती है। लमटेरा की विशेषता है लोकजीवन का चित्रण। वह जीवन, जिसकी कसौटी लोकत्व है। Bundelkhand ka Lamtera गीतों में देवत्व को भी मानवत्व प्रदान किया गया है और मानवत्व को उसके यथार्थपरक संबंधों से जोड़ा गया है आदि देवता गणेश गजरे के लिए मचलते हैं। ठीक उसी तरह, जिस तरह एक छोटा बालक मेले में माला पहनने के लिए मचलता है और माली या मालिन के पास खड़ा हो जाता है।
गणेश देव गजरा खों बिरजे, अरे बिरजे बे तौ ठाँड़े मलिनियाँ के दोर हो…….।
आधुनिक कथासाहित्य में तीसरे आदमी को काफी महत्व मिला है, लेकिन अंचल के परिवार में तीसरी नारी ननद की चर्चा बेजोड़ है। उसके बिना तो सारा लोकसाहित्य सूना है। भौजी ननद से तंग आकर कितनी तीखी चोट करती है, इसका पता लमटेरा के दो उदाहरणों से चलता है।
ननद जू बड़ी बिषकरमा हो,
बिषकरमा री बिष बाँदे चुनरिया के छोर रे….ननद जू हो…..।
ननद मोरी बटुआ सी,
बटुआ सी ननदोई हैं कोलू कैसे बैल हो……ननद मोरी हो……।
ननद और भौजी की नोंक-झोंक, भौजी और देवर की हँसी-खुशी तथा ब्याहता और सौत का ईष्या-द्वेष लोकसंस्कृति के घरेलू यथार्थ हैं, जो इन गीतों को वास्तविकता के बहुत नजदीक ला देते हैं। इस आधार पर लमटेरा गीत आदर्श और यथार्थ दोनों की मिली-जुली अभिव्यक्ति के गीत ठहरते हैं।
शिल्प की दृष्टि से इन गीतों की विशेषता उनकी व्यंजना है। केवल एक पंक्ति का एक गीत और इतनी अर्थवत्ता। रस जैसे छलका पड़ता हो। उसमें भाव या विचार का एक टुकड़ा बैठ जाता है और हृदय या बुद्धि को चमत्कृत कर देता है। लमटेरे लोकजीवन की यात्रा में जहाँ तन के श्रमपरिहार के साधन है, वहाँ मन के उल्लास के माध्यम भी हैं।
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संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल
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