बुन्देलखण्ड (उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के मध्य) विशेषकर दक्षिणी-पूर्वी बुन्देलखण्ड की भूमि पहाड़ी, पठारी, ढालू, ऊँची-नीची, पथरीली, ककरीली रांकड़, शुष्क वनों से भरपूर है। इस भूभाग की भूमि पर बरसाती जल ठहरता ही नहीं है, जिस कारण बुन्देलखण्ड में पानी की कमी बनी रहती है । आदि काल से बेतवा-केन नदियों के मध्य का दक्षिणी पूर्वी बुन्देलखण्ड मात्र पशुपालन वाला ही क्षेत्र था, क्योंकि इस क्षेत्र में पानी का सदैव अभाव रहा।
पानी केवल चार माह बरसात के मौसम में और चार माह ठंड के मौसमों में नदियों, नदियों के भरकों, नालों, नालियों में प्राप्त होता था। ग्रीष्म ऋतु में पानी नदियों के डबरों, भरकों में कहीं -कहीं मिलता था, क्योंकि इस क्षेत्र की नदियाँ पठारी, पहाड़ी शुष्क हैं, जिनमें पानी पठारों से आता है और चट्टानों से टकराता बाहर निकल जाता रहा है। पशुपालक चरवाहे नालों-नदियों के तटवर्ती उन क्षेत्रों में जहाँ नदियों की दहारों, डबरों में पानी भरा मिलता था, वहीं झोंपड़े बनाकर अस्थायी बस्तियाँ बसा लेते थे।
जब डबरों का पानी समाप्त होने को होता तो चरवाहे नीचे, ऊपर घुमन्तु जीवन काटते हुए जिन्दगी बिताते थे। गाय, बैल, भैंस बकरी,भेद , गधे लिये घुमक्कड़ी जिन्दगी बिताते थे । वे नदियों के किनारों की पहाड़ी समतल पटारों में धान, उर्द, तिल,चना, मसूर, कोदों, समां, सवांई, पसाई के चावल की थोड़ी-थोड़ी खेती कर लेते थे। जंगलों में रहते हुए जंगलों की उपज महुआ, गुली, अचार, तैंदू एवं गौंद गाद कंडौ, लाख इत्यादि इकट्ठा करते अपनी गुजर-बसर करते रहते थे।
वनो से प्राप्त होने वाले फलों पर वनवासी जातियाँ पूर्ण रूप से निर्भर थी। महुआ, बेर अचार गुलगुट, छीताफल (सरीफा), समां सवांई, पसाई धान पर ही उनका जीवन चलता था। वनवासी वनों में स्थायी रूप से बसे थे। इनमें सौंर, गौंड़, कौंदर, राजगौड़ प्रमुख थे।
विशेष रूप से दक्षिणी बुन्देलखण्ड का क्षेत्र जो बेतवा नदी से केन, सोनार, नर्मदा के मध्य का पहाड़ी टोरियाऊ ढालू ऊँचा-नीचा पठारी शुष्क भूभाग अधिक अविकसित जंगली पिछड़ा क्षेत्र था। पानी नहीं था, सो रोटी-रोजी का पक्का स्थायी प्रबन्ध नहीं था। लोग पानी, रोटी एवं रोजगार की तलाश में, पहाड़ियों दर पहाड़ियों और नदियों के तटवर्ती भूभागों में भटकते घूमते-फिरते रहते थे।
वे लोग कबीलों, जातीय समूहों में बसते थे एवं घूमते थे। वे निर्भीक होकर रहते थे तथा आपस में कबीला समूह लड़ भी जाते थे। आपस में पशुओं की चोरी, बकरियों, भेड़ों की चोरी अधिक होती थी क्योंकि लोगों के पास पशुधन ही तो था।
7वीं- 8वीं सदी में चन्द्रब्रम्ह के वंशज चन्देल राजाओं का उद्भव महोबा में हुआ जिन्होंने अपने दक्षिणी, मध्य एवं पूर्वी राज्य की पहाड़ी, पठारी, जंगली, पथरीली, ढालू, रांकड़ भूमि के विकास की योजना सुनिश्चित कर बरसाती धरातलीय जल नीची ढालू भूमि पर, पहाड़ों, टौरियों में, खन्दकों, खंदियों, दर्रों में, पत्थर मिट्टी के लम्बे, चौड़े, ऊँचे सुदृढ़ बाँध बनवाकर तालाबों में बरसाती धरातलीय बहाने वाला पानी ठहरा दिया था।
उन चन्देली तालाबों से पानी बाहर निकालने का कोई निकास द्वार नहीं रखा जाता था, ताकि तालाबों में संग्रहीत धरातलीय पानी जनहिताय तालाबों में सदा भरा रहे और लोगों को पानी के अभाव का संकट न हो।
चन्देलों-बुन्देलों ने, गौंड़ राजाओं और मराठाओं, अंग्रेजों ने इस जल अभाव ग्रस्त बुन्देलखण्ड क्षेत्र में कुल मिलाकर 4000 से अधिक तालाबों का निर्माण कराया था। तालाबों का जल जन-निस्तार के लिये एवं कृषि के लिये था, तो मनुष्यों के पीने के लिये बावड़ी, बेरे, पगवाही और कुएँ गांवों के पास तालाबों के बाँधों के पीछे, पहाड़, पहाड़ियों की तलहटी में, सड़क सड़क के किनारे खुदवा दिए थे, कि जिससे न ग्रामजन पानी को परेशान हों, न कोई पैदल यात्री न व्यापारी, पानी को परेशान हो सके।
चन्देल राजाओं ने पहाड़ों में, गुफा मन्दिर बनवाए थे, जिनमें कुंड कटवा दिए गए थे। ऐसे गुफा मन्दिरों में पहाड़ों का जल धीरे-धीरे निरन्तर झिरता हुआ गुफा कुंडों को भरता रहता रहा है, जिसका उपयोग लोग आदिकाल से करते रहे हैं।
गौंड राजाओं ने जो किले बनवाए थे, उनके परकोटों के अन्दर बड़ी विशाल सीढ़ीदार बावड़ियाँ निर्मित कराई थीं, जो सदैव पहाड़ के झिरते स्वच्छ जल से भरी रहा करती थीं चन्देलों से बुन्देलों, गौंडों एवं अन्य स्थानीय राजाओं ने जन-हितार्थ जल का प्रबन्ध किया था कि लोग तालाबों, कुओं के जल से कृषि सिंचाई कर लेते रहे एवं दैनिक निस्तार भी होता रहता था।
आजादी से पहले किसान और अन्य व्यवसायी एक निर्धारित मात्रा से अधिक पानी तालाबों से नहीं निकाल पाते थे। पानी केवल पांखी, उबेला और औनों, कुठिया अथवा सलूस-जो तालाबों के भंडारों से कुछ दूर ऊँचे स्थल पर बनाए जाते थे, द्वारा ही निकाला जाता था। कुठिया से पानी बहना बन्द होने से तालाबों के भंडार जल से भरे रहते थे। इस कारण मवेशियों, वन्य प्राणियों एवं मनुष्यों को गर्मी की ऋतु में भी जलाभाव नहीं होता था।