बुंदेलखण्ड में अनेक राछरे प्रचलित हैं। राछरे भी लोक-गाथाओं का एक प्रकार है। Bundeli Rachhro ka Vikas तीन वर्गों में विभक्त किया गया है। – वीर गाथा काल, भक्ति काल और रीतिकाल। अधिकांश राछरे वीरगाथाओं के गुण-गान के रूप में गाये जाते हैं।
यह शब्द एक लोकोक्ति रूप में प्रचलित होकर लड़ाई-झगड़े के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता रहा है। इसके कुछ अन्य विकृत रूप भी प्राप्त होते हैं। जैसे- राछरी फिरना, बारात गमन के पूर्व दूल्हा सुसज्जित होकर, मौर (मुकुट) बाँधकर, हाथ में कंकन बाँधकर और हाथ में नंगी कटार लेकर घोड़े या पालकी पर बैठकर नगर भ्रमण के लिए निकल जाता है। नारियाँ मंगल-गीत गातीं हुईं दूल्हा के साथ चलती हैं।
हालाँकि ये सारीसज्जा एक रणबाँकुरे वीर के समान है। यदि इसे युद्ध का पूर्वाभिनय कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्राचीन काल में विवाहोत्सव प्रायः युद्ध में विजय प्राप्त करने के पश्चात् ही सम्पन्न होते थे। इन दिनों उसी लकीर को पीटा जा रहा है।
हालाँकि आजकल विवाह की सारी परिपाटियाँ बदल चुकी हैं, फिर भी विवाहोत्सव युद्ध का ही अभिनय जैसा प्रतीत होता है। जुझारू बाजे बजना, आगौनी छूटना, बारात सुसज्जित करना आदि क्रियाएँ युद्ध के ही नाटक हैं।
आज तो युद्ध की आवश्यकता नहीं है, फिर भी युद्ध का पूरा नाटक ही खेला जाता है। परिक्रमा के पश्चात् ‘राछबधाये’ का उत्सव मनाया जाता है। ‘रास’ का अर्थ है –‘युद्ध’ और ‘बधाये’ का अर्थ है ‘उत्सव’। युद्ध में विजय प्राप्त करने के पश्चात् उत्सव का आयोजन कुछ विद्वानों ने ‘राछरे’ का अर्थ ‘युद्धोत्सव’ या सामूहिक समारोह के रूप में माना है।
राछरे के विकास क्रम को तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है –
1- वीर गाथा काल
2 – भक्ति काल
3 – रीतिकाल।
इस काल में भारत के विभिन्न अंचलों में तत्कालीन वीरों की गाथाओं का गायन किया जाता था। इस क्षेत्र में बुंदेलखण्ड सबसे आगे रहा है। इस काल में तत्कालीन वीरों को प्रोत्साहित करने के लिए और जन-सामान्य में शौर्य भावना जाग्रत करने हेतु वीर रस प्रधान राछरों का गायन किया जाता है। भाषा-भाव और लोक-ध्वनि उनके अनुकूल रहती थी।
इस युग में राजा अमानसिंह कौ राछरौ, रानी लक्ष्मीबाई कौ राछरो, राजा मर्दनसिंह और चन्द्रावलि कौ राछरौ विशेष प्रसिद्ध रहे हैं। राजा अमानसिंह, महारानी लक्ष्मीबाई और बानपुर नरेश मर्दनसिंह ने देश प्रेम की बलिवेदी पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिये थे। सच पूछा जाये तो बुंदेलखंड आदर्श प्रधान महापुरुषों का क्षेत्र रहा है, जिनके त्याग और बलिदान के कारण देश का मस्तक सदैव ऊंचा रहा है।
इस समय के राछरों में भक्ति भावना की अधिकता दिखाई देती है। कुछ राछरे तो भक्ति की ही आधार भूमि पर खड़े हैं। राजा मधुकरशाह, रानी गणेश कुँवरि और सुरहिन नाम के राछरों में भक्ति के दर्शन होते हैं। इन राछरों का कथानक मुगलकाल से संबंधित है।
कहा जाता है कि रानी गणेश कुँवरि अयोध्या से भगवान राम को ओरछा ले आईं थीं। ओरछा में भगवान राम का प्रसिद्ध मंदिर रानी गणेश कुँवरि की याद दिलाता है। कुछ वीर रस प्रधान राछरों में भी भक्ति भावना दिखाई देती है।
अधिकांश वीर माँ शक्ति के उपासक हुआ करते थे। वे माँ शक्ति की आराधना करने के पश्चात् ही युद्ध करने जाया करते थे। यदि उन्हें भक्ति और शौर्य का संभावित रूप कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। राजा मधुकरशाह हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति के प्रतिपालक थे।
मुगल बादशाह के दरबार में भी उन्होंने हिन्दू धर्म का प्रतीक प्रस्तुत किया था। यही कारण था कि उन्हें ‘मधुकरशाह टिकैत’ की उपाधि से विभूषित किया गया था। धर्म के लिए प्राण अर्पण करना उनके लिए सहज था। ऐसे निर्भीक राजा मधुकरशाह की भक्ति-भावना से परिपूर्ण लोक गाथा जन-जन की ज़बान पर है। इस प्रकार के राछरे बुंदेलखंड में भरे पड़े हैं।
रीतिकाल का दूसरा नाम श्रृंगार काल है। इस युग में श्रृंगार प्रधान राछरे गाये जाते थे। कुछ राछरों में प्रकृति के मनोरम दृश्यों का चित्रण है। पावस, शरद और बसंत के रूप में प्राप्त होते हैं। इनका गायन प्रायः पावस ऋतु में मल्हार राग में किया जाता है।
गाड़ी वारे मसक दै बैल, अबै पुरवैया के बादर नये।
कौना रे नई कारी बदरिया, कोंना बरस गये मेह।।
पूरब नई कारी बदरिया, पच्छिम बरस गये मेह।
भीतर बदरिया नई रे रामा, गलुवा बरस गये मेह।।
यह एक उद्दीपन/ उत्प्रेरण (Inducement) श्रृंगार का राछरा गीत है। पावस ऋतु में विरह-व्यथित नायिका के हृदय में विरहाग्नि धधकने लगती है और उसकी आँखों से अश्रु प्रवाहित होने लगते हैं।
राछरों में सर्वाधिक युद्धमय वातावरण दिखाई देता है। राजाओं का पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष के कारण एक दूसरे से युद्ध किया करते थे। राछरे का अर्थ ही संघर्ष है। यही कारण है कि अमानसिंह, मर्दनसिंह और धनसिंह नाम के राछरे युद्ध के लिए प्रसिद्ध हैं। इनमें देश-प्रेम की भावना के दर्शन होते हैं। लोहागढ़ संग्राम का एक दृश्य देखिये-
कटे सूर सामंत वर, हिन्दूपति की आन।
प्रान दान दै राख लई, लोहागढ़ की शान।
राजा धनसिंह माता, पत्नी और अन्य परिवार के लोगों के रोके जाने पर भी युद्ध क्षेत्र में कूद पड़े थे। महारानी लक्ष्मीबाई के आत्म-बलिदान से तो सारा संसार परिचित ही है।
ऐसा लगता है कि तत्कालीन काव्य-साहित्य अतिशयोक्ति की ही आधार भूमि पर खड़ा था। अधिकांश कवि राजाश्रित हुआ करते थे और अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा बढ़ा-चढ़ाकर किया करते थे। इस प्रकार के चित्रण सत्य की सीमा को पार करके असत्य से प्रतीत होने लगते हैं। गाथा साहित्य भी इस प्रभाव से अछूता नहीं रहा। राछरों में वर्णित घटनाएँ और युद्ध कौशल के चित्रण प्रायः अतिशयोक्ति पूर्ण होते हैं।
अस्त्र-शस्त्रों का आकार वीरों का शौर्य, साहस और उनकी कार्य सीमा का उल्लंघन करते हुए दिखाई देते हैं। अस्सी मन का गोला, बीस हाथ की तलवार और पाँच मन का भाला क्या कभी किसी ने देखा है? कदापि नहीं, लोगों ने गाथा गायकों के मुख से केवल सुना ही होगा। इस प्रकार के अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन झूठोक्ति के समीप ही माने जायेंगे।
राछरों में कुछ ऐसी घटनाओं का समावेश किया गया है कि जिन पर आज का बुद्धिवादी वर्ग कभी विश्वास नहीं कर सकता। उदाहरण स्वरूप नाग-कन्याओं के साथ विवाह, भूगर्भ में प्रवेश, पक्षियों द्वारा भविष्य कथन, मणि के द्वारा जल में मार्ग प्राप्त करना, परियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध आदि घटनाएँ असंभव हैं।
इस प्रकार की घटनाओं को सुनकर कौतुहल वर्धन तो हो सकता है, किन्तु विश्वसनीयता नहीं। लोग इस प्रकार की गाथाओं का जब गायन करते हैं तो श्रोतागण ध्यान पूर्वक सुनते हुए आनंद प्राप्त करते हैं। किन्तु घटनाओं पर विश्वास नहीं करते और ये घटनाएँ सत्य की कसौटी पर खरी नहीं उतरती।
राछरे अनेक चमत्कारिक क्रियाओं से भरे पड़े हैं। उनमें कुछ ऐसी चमत्कारिक क्रियाओं का समावेश किया है, जिन्हें सुनकर लोग आश्चर्य चकित हो जाते हैं। अकेले राजा अमानसिंह की तलवार से अनेक योद्धा धराशायी हो जाते हैं। अंत में वह लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त होता है। राजा धनसिंह को उनकी पत्नी, बहिन और माता युद्ध में जाने से रोकती हैं, किन्तु वे किसी का भी कहना नहीं मानते। युद्ध क्षेत्र में अनेक शत्रुओं को मौत के घाट उतारते हुए स्वयं मौत के घाट उतर जाते हैं। गाथाकार ने स्वयं भी कहा है-
‘तोरी मति कोंने हरी रे धनसिंह, तोरी मति कोंने हरी रे’।
ओरछा की रानी गणेश कुँवरि अपनी प्रतिज्ञा का परिपालन करते हुए भगवान राम को ओरछा ले आती हैं। आचार्य केशव की शिष्या राय प्रवीण , अकबर जैसे बुद्धिमान बादशाह को अपनी काव्य-प्रतिभा के द्वारा आश्चर्यचकित कर देती हैं। हर गाथा में किसी न किसी रूप में चमत्कार की प्रधानता दिखाई देती है।
भारत के समस्त अंचलों का लोक गाथा साहित्य लोक भाषा में ही प्राप्त होता है। लोक भाषा के माध्यम से व्यक्त किये गये भाव इतने सहज और सरल होते हैं कि सुनते ही श्रोताओं के हृदय में चुभ जाते हैं। इनके द्वारा प्रदत्त आनंद इतना सहज और सुलभ होता है कि मानसिक व्यायाम किये बिना ही लोग आनंद प्राप्त कर लिया करते हैं।
बुंदेलखण्ड में प्राप्त राछरे लोक भाषा बुंदेली में ही हैं। बुंदेली में माटी की महक, भाषा की मिठास और मोहक साहित्य भरा पड़ा है। लक्ष्मीबाई के राछरे में सहज बुंदेली भाषा का उदाहरण देखने योग्य है-
बाई ने दीनों हुकम, को यह काँको आय।
कहौ बेगलै जाय गज, धम रहो मचाय।
नत्थे खाँ बोलो तबैं, बचन सहित अभिमान।
टीकमगढ़ दीवान हम, सुन अबला नादान।
राजा अमान सिंह के शौर्य और लोकप्रियता पर आधारित बुंदेलखंड के ग्रामों में एक लोकगीत की पंक्ति प्रचलित हैः-
अरे काँ गये राजा अमान, जिनखौं जे रो रईं चिरइयाँ।
राजा मर्दन सिंह कौ राछरों यहाँ बड़े ही चाव से गाया जाता है, उसमें बुंदेली की सहजता के दर्शन होते हैं।
राजा वीर बानपुर वारो, भरन लगो अपनी हुंकार।
धक-धक छाती भई गोरन की, जब मरदन ने दई ललकार।
जैसें शेर दहाड़े वन में, जरियँन में दुक जाय सियार।
जैसें चूहा दुकें बिले में, वन में बड्डी देख बिलार।
दुकें चिरइयाँ डारन-डारन, जई सैं सामैं देखैं बाज।
खैच सनाकौ रै गये गोरा, जैसें टूट परी हो गाज।
इस प्रकार से समस्त राछरों में चाहे उनमें शौर्य हो और चाहे भक्ति-भावना की प्रधानता हो, किन्तु उनमें बुंदेली की मिठास भरी पड़ी है।
बुन्देलखंड का अधिकांश लोक साहित्य मौखिक है। राछरे भी लोक-मुख में सुरक्षित हैं। लोग इन्हें वयोवृद्ध लोगों के मुख से सुन-सुनकर याद करते रहे। परम्पराबद्ध होने के कारण ये मूल्यवान सामग्री आज तक सुरक्षित है। कभी-कभी किसी गाथा का तो स्वरूप ही बदल जाता है। कुछ सत्य घटनाएँ लुप्त हो जाती हैं और कुछ नई घटनाओं का समावेश हो जाता है।
कल्पना प्रधान एवं नई घटनाओं के समावेश के कारण उन्हें लोग संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं। ऐसा लगता है कि प्रारंभ से ही विद्वानों का इनकी ओर उपेक्षित दृष्टिकोण रहा है। यदि इन्हें लिपिबद्ध कर दिया जाता तो इनका वास्तविक स्वरूप सुरक्षित बना रहता। इतिहास और कल्पना के मिश्रण के कारण आज इनमें इतना अधिक उलझाव हो गया है कि विद्वान इन्हें सत्यता की कसौटी पर कसने में असमर्थ हो जाते हैं। इसी कारण से इनका वास्तविक स्वरूप सुरक्षित नहीं हो सका।
भारत के समस्त अंचलों की लोक गाथाएं किसी न किसी रूप में इतिहास से सम्बन्धित हैं। इनमें वर्णित नायकों के नाम और कुछ घटनाएँ ऐतिहासिक ही होती हैं। राछरों के नायक भी ऐतिहासिक होते हैं। जैसे -मर्दनसिंह बानपुर के राजा, बखतबली शाह शाहगढ़ के राजा थे। झाँसी वाली रानी लक्ष्मीबाई से तो सारा संसार परिचित ही है। ढोला-मारू गाथा के नायक ढोला, महाभारत कालीन राजा नल के पुत्र थे। राछरो में किसी न किसी रूप में ऐतिहासिकता दिखाई देती है।
सम्पूर्ण गाथा साहित्य पद्यबद्ध एवं गेय हैं। राछरे भी पद्यबद्ध एवं गेय हैं। समस्त राछरे बुंदेली लोक ध्वनियों में आबद्ध हैं। अधिकांश राछरे मल्हार की ध्वनि में पावस ऋतु में गाये जाते हैं। प्रायः इनका गायन लोक वाद्य ढोलक, नगड़िया और झाँझ के साथ किया जाता है। अमानसिंह कौ राछरो ढोलक के साथ उच्च स्वर में गाया जाता है।
वर्षा ऋतु में बादल की गर्जन के साथ लोक गायक की गर्जन एक विशेष प्रकार के आनंद की सृष्टि करती है। गाँव के श्रोतागण एकत्रित होकर आनंद प्राप्त करने लगते हैं। संगीतबद्ध होने के कारण ये बड़े ही आकर्षक और रूचिपूर्ण प्रतीत होने लगते हैं।
राछरों में एक विस्तृत कथा अथवा किसी घटना विशेष को पिरोया जाता है। कथा में जिज्ञासा तत्त्व का समावेश होना आवश्यक है। जिज्ञासा के बिना कहानी नीरस हो जाती है। राछरों में इस तत्त्व की प्रधानता है। राछरे का गायक पूरी रात साज-बाज के सहित गायन करता रहता है। ग्रामीण श्रोतागण रूचिपूर्वक झूम-झूमकर सुनते रहते हैं। ये सब कौतुहल का ही चमत्कार है।
युद्ध का सजीव चित्रण, अस्त्र-शस्त्रों का संचालन और कहानी की जिज्ञासा वृत्ति मानव मन को लुभाती रहती है। मर्दनसिंह, अमानसिंह और धनसिंह राजाओं के राछरे इसी प्रकार के हैं। ढोला-मारू की गाथा जब तक लोग पूरी नहीं सुन लेते, तब तक लोग डटे ही रहते हैं। राय प्रवीण नाम की गाथा में राय प्रवीण की बोलने की कला और हाज़िर जवाबी का स्वरूप दिखाई देता है। इसी प्रमुख बिंदु के आधार पर किसी भी गाथा का मूल्यांकन किया जा सकता है।
लोक साहित्य जन-मानस का साहित्य है। लोक भाषा के माध्यम से व्यक्त किये गये भाव जन-मानस को मोहित किये बिना नहीं रहते। लोकगीत, लोककथा और लोकगाथा मानव मन की स्वाभाविक अनुभूतियाँ हैं। राछरों में गेय तत्त्व और लोक संगीत का प्राधान्य है। इसी कारण यह जन-जन को प्रिय है। बुंदेलखंड के हर क्षेत्र में इनका गायन किया जाता है।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’