Homeबुन्देलखण्ड की लोक संस्कृतिBundeli Lok Sanskriti Ka Vaibav बुंदेली लोक सस्कृति का वैभव

Bundeli Lok Sanskriti Ka Vaibav बुंदेली लोक सस्कृति का वैभव

अत्रि, अगस्त, सरभंग, मतंग, बाल्मीक जैसे महामुनियों के तप से सिंचित प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर, दस सरिताओं की प्रभाहित धाराओं से सुशोभित बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति Bundeli Lok Sanskriti Ka Vaibav अपनी विरासत को संजोये लुभावनी सम्पूर्ण देश में अपनी पृथक पहचान बनाये हुये हैं।

सक्षम मन मोहनी, मधुरम स्वरों से सजी ‘‘बुंदेली भाषा’’ बुंदेलखंड के नाम को सजीवता प्रदान करती है। इस संबंध में पंक्तियां लिखना उचित जान पड़ता है।
‘‘ऋषि तप तपी बुंदेली माटी – जीकी अजय कहानी
धार बहत है, दस नदियन की- बौल सनै गुरयानी’’
बुंदेली  माटी  की  शोभा – गुरतर बोल सनी वानी
गजरा है लोक संस्कृति की- धरा बुंदेली की सानी।।

विरासत को सहेजे बुंदेली वेशभूषा कंकड़ो के बीच हीरे के समान है, जिसकी चमक अपनी पहचान स्वतः ब्यां करती , पुरुष पोशाक पैरों में झब्बू जूता, लम्बा कुर्ता (झोला) बंड़ी (कतइया) परदनियां, सिर में स्वाफा, कमर में गाफा मुख्य है, – महिला पोशाक – कांची धोती सलूका (पोलका), कमर में चांदी का पट्टा (डोरा) गले में खंगोरियां, पैरों में पेंजना, मांथे में बूंदा है। इसे इन काव्य पंक्तियों से और स्पष्ट किया जा रहा

‘‘परदनियां संग घुटनन झोरा, – सोहत मूंढ़ बंधत स्वाफा।
जुआन पनइयां झब्बू जूता, – करहा कसन रहत गाफा।।
कंची  धुतिया  बड़ो पोलका, – गुहतीं केश चुटइया में।
कट  करधनियां माथें बूंदा, – सजतीं  नार समइया में।।

बुंदेलखंड की सामाजिक, समरसता, जातिगत भेद भाव को भुलाकर सरस समानता लिये उच्चारण विद्या से सुशोभित है। सामान भाव से रिस्ते उच्चारित होने से बाहरी व्यक्ति, जातिगत भेद भाव जानने में अक्षम रहता है, प्रचलित उच्चारित शब्द सामाजिक सामांजस्य, सामाजिक प्रतिष्ठा, सम्मान बनाये रखकर बुंदेली लोक संस्कृति की धुरी प्रतीत होते हैं।

कक्का, नन्ना, बिन्ना, जिज्जी, दाजू, मम्मा, फुआ, हल्के, मझले, बड़े जैसे सामूहिक सामाजिक, उच्चारित शब्द व सामाजिक समर्पण एवं सहयोग की तत्परता सामाजिक समरसता में सहभागिता निर्वहन यहां की लोक संस्कृति की सुदृढ़ के प्रतीक हैं। जो इन पंक्तियों में अभिव्यक्त है।
‘‘मर्यादा  मों बोल निकासी – चली इतै पुरखाती।
परदेशी सुन भेद न पावै – को जाती परजाती।।’’

बुंदेलखंड का रहवासी अपने स्थानीय संसाधनों द्वारा अधिकांशतः जीवन यापन करते हैं। यहां पर जातिगत व्यवसाय जैसे बढ़ई गीरी, नाई, लुहार, सुनार, सोनकर, बारी, माली, भी जीवन यापन को अपना पुश्तैनी व्यवसाय करते हैं। इसके अतिरिक्त कृषि भी जीवन यापन का आधार देखा जाता है। आदिवासी समुदाय अधिकांशतः वन क्षेत्र के समीप निवासरत होने के कारण वन सम्पदा से जीवन यापन करते प्रसन्न और संतुष्ट दिखाई देते हैं। हरबौला भी अपने पारम्परिक मजीरा बजाते गान करते हुए अपना जीवन यापन का आधार बनाये हैं।
‘‘करकें जनम जात कछु धंदा – करत किसानी मुलक दिखाएं
बजा   मंजीरा   इतै  हरबौला  अपनो  पालत पेट  जनांएं’’

जन जीवन स्तर एवं विकास लोक संस्कृति से सदा प्रभावित रहता है, खान पान तथा व्यंजन लोक संस्कृति के प्रतिबिम्ब है, इस धरा के व्यंजन मौसम अनुसार औषधि स्वरुप, रुचिकर, स्वादेय, होते हुये क्षेत्र विशेष में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश में लोक प्रियता अर्जित करके बंुदेल खंड की लोक संस्कृति को प्रकाशित करते हैं। इन व्यंजनों को प्रमुखता के आधार पर उल्लेखित कर रहा हूँ ।

‘‘छरमा, लपटा, लपसी, घेंगों,-गुड़ला बरी, महेरो
डुगरी बिरचुन, मुरका कूचो- मिरचानी मनफेरो
सुरा सेव गुडगुला ठढ़ूला-चीला, मीढ़ा हलुआ
दरभजिया  पनपथू, मलीदा-बरा मगौरा सतुआ
कढ़ी पपरिया, गुझिया, खुरमा-लावै मों में पानी
जग  भावै  बुंदेली छांरी-नौनी घट-घट जानी

बुंदेली व्यंजनों का नाम सुनते ही रसना में इनके रसा स्वादन की ललक उत्पन्न हो जाती है।

‘‘साहित्य कला लोक संस्कृति का दर्पण है’’
तीनों रसों से ओतप्रोत बुन्देलखण्ड का साहित्य अमरता प्राप्त किये मानवता से सिंचित, ज्ञानवर्धक प्रेरणा स्रोत दिग्दर्शक प्रसिद्ध लोक प्रिय धार्मिक ग्रंथ रामचरित मानस की रचना बुंदेल खंड अंचल में होना और इस महाकाव्य में बुंदेली शब्दों का प्रचुरता के साथ समाहित रहना बुंदेली धरती के पुन्य प्रताप का प्रतिफल कहना अति श्योक्ति नहीं होगी।

गोस्वामी तुलसीदास, केसवदास ईश्वरी ओज कवि जगनिक, भूषण पदमाकर मैथलीशरण गुप्त, बृन्दावन लाल वर्मा बिन्दु भोपाल संतोष सिंह बुन्देला, बहादुर सिंह परमार, गोविंद यदुवंशी प्रमुख साहित्य स्थम्भों ने बुंदेल खंड के साहित्य को प्रेरक व प्रसिद्धि देने अनुपम साहित्य सृजन करके साकार किया।

राम चरित मानस, रामचंद्रिका प्रबोध बुंदेल खंड महाकाव्य, मृगनयनी विराटा की पदमनी, बिन घुंघरु ककरा बोले प्रमाणिक बृहद बुंदेली शब्द कोश, महाकाव्य, काव्य ग्रंथ, ग्रंथ, उपन्यास अपनी विरासत को उद्दीप्तमान करते हैं। बुंदेल खंड के लोक साहित्य में वाचक परम्परा की प्रधानता मिलती है। गांरी, फाग, लमटेरा, बनरा, दिबारी, दादरे, राई, आल्हा लोक साहित्य के प्रतिबिम्ब है। लोक साहित्य व सृजन में दिनकर समान प्रकाशवान साहित्यकारांे के सम्बंध में लिखना आवश्यक है।

‘‘फाग, राई, लमटेरा,  गांरी, – बनरा ब्याव करत जगमक
मणि, बुन्देली लखौ ईश्वरी – आल्हा ओज रचत जगनिक
अमर  बने  भव केशव तुलसी -गात बुंदेली कवि संतोष
परमार  गुनौ  बुंदेली रवि –  बिन्दु, सिंधु  बुंदेली कोष

बाद्ययंत्रों में नगड़िया, ढ़ोलक, मृदंग, मजीरा, रमतूले, बांसुरी, तमूरा, ढांक, के स्वर गुंजन बुंदेली लोक संस्कृति को पोषक और प्रफुल्लित कर गदगद करने वाले हैं। बुंदेली खेल मनोरंजन के साथ, स्वास्थ्य लाभ प्रदाता रहकर अपनी लोक संस्कृति को प्रकाशवान बनाये हैं। गिल्ली डंडा, खिपड़ी गद्दा, लगड़ी घप्पा, चपेटा, रहचकुआ, छू छुबैला, रस्सी खेंच, गपनी गपा बड़े ही मनोरंजक व उत्साह वर्धक बुंदेली खेल हैं। इस संबंध में चंद काव्य पंक्तियां लिखना आवश्यक है।

‘‘बजत नगड़िया और ढुलकिया, ढांक मंजीरा रमतूले।
सातउ सुर बरसाय बांसुरी, बजत तमूरा मन फूले।।
गिल्ली  डंडा,  खिपड़ी गद्दा, लगड़ी घप्पा चपेटा।
रहचकुआ  में घुमत चका से, छुबा में मारें सरपेटा।।

नृत्यों में दिबारी, राई, रावला, बुंदेलखंड की लोक संस्कृति को समृद्धता प्रदान करते हैं।
विवाह अवसर पर खजूर के पत्तों की मौर बनना, दूल्हे की पोषाक जिसे वागो कहते, हल्दी में रंगना कंगनों में घुन्चू लगाना, घर में नई दुल्हन के द्वारा खिचरी बनाकर परोस करना आदि परम्पराएं  बुंदेलखंड की लोक संस्कृति को विशेष बनाती हुई संक्रमण की अवरोधी है।

प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर बुंदेली धरती में प्रकृति की उपहार स्वरुप उपयोगी छटा, घास पत्तों से बनी झोपड़ी कच्चे मकानों के खाड़ू के छप्पर, कुओं से पानी निकालने, लकड़ी की ढुकरी, पशुओं को पानी पीने हेतु लकड़ी की ड़ोंड़ी, बुंदेल खंड की लोक संस्कृति को प्रथक पहचान देते हैं। वन सम्पदा व वन जीव संरक्षण अपनी प्राकृतिक सौन्दर्य छटा से देश विदेश में आकर्षण का केन्द्र बन गया।

‘‘नदियन में किल किल राग बहत-अभ्यरण्य बने भये कुंड मिलत
मीन  दहारन  मैं  लौरत –  मगरन  के  देखन  झुंड  मिलत
सांप   बसेरो   वन   बामी  –   गिरवर   पेड़न  सें  सोहत
घन  देख  मुरैला  नांच  करत  –  कोयल कूका दै-दै मोहत
निकरत  चुर  से  नाहर  तिंदुआ  –  देखन   आवें  सैलानी
बुंदेल  खंड  की  छटा  निराली – ढुकरन कुअन खिचत पानी

बुंदेली लोक संस्कृति वीरत्व से भरी सदह्रदयी, मानवता संजोये धर्म परायणता में भी अग्रणी है, धार्मिक आस्था के केन्द्र मंदिर, लोक गान, भजन, कीर्तन, भक्ति गीत, यहां की लोक संस्कृति के धार्मिक भाव प्रतीक व सुदृढ़ स्वरुप प्रदर्शित करते हैं। धार्मिक आस्था एवं परम्पराओं का निर्वहन यहां की लोक संस्कृति को पूरी तरह प्रभावित किये हुये अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित किये हैं, बुंदेल खंड अंचल के ग्रामों-ग्रामों दीवान हरदेव सिंह (हरदौल) के चबूतरा रहना और काज अवसरों पर उनको प्रथम निमंत्रण देना की रीति का प्रचलन बुंदेल खंड की लोक संस्कृति की भाग बन चुकी। लोक संस्कृति के धार्मिक पक्ष को इन पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त करना उचित होगा।

‘‘वृषभान लली संग पन्ना में – कृपा के सागर गिरधारी।
राम रजा  जी  रहत ओरछा – झांसी में डमरु धारी।।
लाखा  बंजारा बलदानी – वन नीर दिखाई सागर में।
अमर करौ नर आल्हा जीनै- वे शारद माई मैहर में। ।
हरदौल  चौंतरा  गांव,  गांव –  बुंदेला सत्य निसानी।
लोक  संस्कृति  बुंदेली  की –  ओढ़त धरम ओढ़ानी।।

आर्यावर्त ह्रदय के ह्रदय में स्थापित बुंदेल खंड की लोक संस्कृति- गंगा सी पावन, सागर सी गहरी रजत सी उज्जवल, मणिक सी चमकीली, मधु सी मिठास लिये, त्रिगुणी रश्मिता समाहित, संवेदन शील अपनी विरासत को प्रदर्शित करती मौलिकता का बाना पहने बुंदेली लोक जीवन की वैतरणी समान है। 

‘‘बुंदेल  खंड  की  लोक  संस्कृति -जग में जाहर जानी।
त्रिगुन गुनी, गुनन से गढ़ गई – गहवें गुनियां ग्यानी।।

जगदीश कुमार कुशवाह (प्रबोध)
अध्यक्ष
बुंदेली साहित्य संस्कृति भाषा विकास
एवं संरक्षण समिति जिला पन्ना म.प्र.

बुन्देली व्यंजन 

admin
adminhttps://bundeliijhalak.com
Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

error: Content is protected !!