बुन्देली लोकसाहित्य का एक प्रमुख अंग वहाँ पर पायी जाने वाली Bundeli Lok Kathayen हैं। प्रस्तुत है Bundeli Lok Kathayen-Parichay , प्राचीन काल से ही गाँवों में मनोरंजन के लिए, आधुनिक साधनों के अभाव में, लोककथाएं ही ऐसी साधन हैं, जिनसे लोक का मनोरंजन होता है। रात्रि में छोटे बच्चों को माताएं ऐसी कथाएँ सुनाती हैं जिससे उन्हें नींद आ जाये। दिन भर की थकान मिटाने के लिए कृषक- समाज अलाव पर अथवा चौपाल पर इकट्ठे होकर अनेक प्रकार की कथाओं को सुनते और सुनाते हैं।
इन कथाओं में लोकमानस की कल्पनाशीलता तो देखने को मिलती ही है साथ ही, श्रम, पराक्रम और आचरण से सम्बंधित उपदेश का विधान भी होता है। बुन्देली लोक कथाओं में कथा कहने की एक विशिष्ट शैली होती है, जिससे एक ओर जनमानस का कौतूहल जाग्रत किया जाता है, दूसरी ओर कथा के माध्यम से श्रोताओं के ध्यान को एकाग्रचित्त बनाने के लिए ऐसी बातें कही जाती हैं जिनका तारतम्य कुछ नहीं दिखता। उदाहरण … ।
किस्सा की झूठीं, बातें-सी मीठीं, घरी घरी को बिसराम, जानें सीताराम। सक्कर का घोड़ा, सकरपारे की लगाम, छोड़ देव नदिया के बीच, चला जाय छमाछम छमाछम। ई पार घोड़ा, ऊ पार घास, न घोड़ा घास को खाय, न घास घोड़ा खाय। इत्ते के बीच में, दो लगाईं घींच में, तऊ न आये रीत में, तब धर कड़ोरे कीच में, झट आ गये बस रीत में। हँसिया की सीधी, तकुवा सी टेड़ी, पहला सौ कर्रौ, पथरा सौ कौंरो, हाँथ भर ककरी, नौ हाँथ बीजा, होय होय खेरे गुन होय।
जरिया को काँटो, बारा हाँत लाँबो, पथरा सौ कौंरो, हाँथ भर ककरी, नौ हाँथ बीजा, होय होय खेरे गुन होय खेरे गुन होय। जरिया को काँटो, बारा हाँत लाँबो, आदो छिरिया नें चर लओ, आदे पै बसे तीन गाँव, एक ऊचर, एक खूजर, एक में मान्सई नइयाँ। जीमें मान्सई नइयाँ, ऊमें बसे तीन कुम्हार, एक ठूँठा, एक लूला, एक के हाँतई नइयाँ।
जीके हाँतई नइयाँ, ऊनें रचीं तीन हँड़ियाँ, एक ओंगू, एक बोंगू, एक के ओंठई नइयाँ। जीमें ओंठई नइयाँ, ऊमें चुरोये तीन चाँउर, एक अच्चो, एक कच्चो, एक चुरो नइयाँ। जौन चुरो नइयाँ,
ऊमें न्यौते तीन बामन, एक अफरो, एक डफरो, एक खों भूखई नइयाँ। जो कोउ इन बातन खों झूठी समझै, वो राजा को डाँड़ देबै उर समाज खों रोटी।
ना कैबे बारे कों दोष , ना सुनबे बारे कों। दोष तो ऊखों, जीनें किसा बनाकें ठाँड़ी करी। दोष तो ऊखों सोई नइयाँ, काये सें कै ऊनें तो समै काटबे के लानें बनाकें ठाँड़ी करी। कैता तो कैतई रात, सुनता सावधान चइये।
अपनी इस परम रोचक और विलक्षण भूमिका के साथ कथा कहने वाला अपने श्रोताओं को कहानी जगत के उस अद्भुत और अलौकिक वातावरण में खींच ले जाता है, जहाँ भौतिक जगत की कोई चिन्ता नहीं व्यापती। कल्पना के घोड़े पर बैठकर वे न जाने कहॉ- कहाँ की सैर करने लगते हैं। भूमिका के उपरांत बीच-बीच में आने वाले सौन्दर्य के स्थलों में एक विशिष्ट काव्यात्मकता का दर्शन होता है, चाहे नायिका का सौन्दर्य वर्णत किया जाय अथवा नायक का, दोनों में कथावाचक की प्रतिभा का परिचय मिलता है।
नायिका के सौन्दर्य वर्णन
कैसी है वह ?
बार-बार मोती गुहें, सोला सिंगार कियें, बारा आभूषन पहरैं, सेंदुर-सुरमा लगाएँ, लायचिन को बटुवा करहाई में खोंसें। ऊ को रूप कैसो है? सोने कैसी मूरत , चम्पै कैसो रंग, पूनो कैसो चंदा, दिवारी कैसो दिया, कनहर कैसी डार की लफ लफ कर दूनर हो जाय। पान खाय तो गेरे से पीक दिखाय। कंकरी मारो तो रकत झलक आय। फूँक मारो तो आकाश में उड़ जाय। बीच में उमेठ दो तो गांठ पर जाय। लकरिया से घुमा दो तो उसें सॉप सी लिपट जाय। पलका पै हिरा जाय तो बारह बरस लॉ ढूँढ़े न मिले। उक्त वर्णत को मध्ययुग के किसी शृंगारी कवि के नायिका वर्णत से कम नहीं ठहराया जा सकता।
नायक का रूप वर्णन
कैसा है वह ?
गुलाब कैसे फूल, शेर कैसो बच्चा, सूरज कैसी जोत, भौंरा कैसे बाल, सोने कैसो रंग, सिर पै जरी का मंडील बोध, ऊपर से कीमखाव का अंगा और मिशरू का पैजामा पहिने, कमर में रेशमी फेंटा बॉधे, जींयें चोंदी की मूठ को नक्काशीदार पेशकब्ज खुसो भओ , कान में मोतियन के बड़े-बड़े बाला, गरे में सूबेदारी कंठा, हाथ की अंगुरियन में जड़ाऊ आँगूठी- शोभा देरई, मुँह में पान को..बीड़ा दाबें, पावन में लड़ाको चरीटेदार जोड़ा पहिने , छैलु- छबीला .गाबदू ज्वान. . . . .देखते भूख भगे।
इसी प्रकार जब कभी कथा के बीच में ‘बरात’ का वर्णन किया जाता है तो उसका एक सजीव चित्र सामने खिंच जाता है। बरात में चल रही नाना प्रकार की सवारियों, घोड़ों तथा उनकी किस्मों, जलती मशालों, आतसबाजी , बेड़नियों के करतब, बरातियों की पेशाकों आदि का सुन्दर विवेचन मिलता है।
निःसन्देह इन लोककथाओं पर लोकगाथाओं की वर्णन-पद्धति का प्रभाव है। बहुत सी कथाओं में बीच-बीच में दोहा, चौबोला, या गीत भी कहे जाते हैं। कथा कहने वाले उन्हें हाव-भाव के साथ गाकर कहते हैं। उससे कथा की रोचकता और भी बढ़ जाती है।
बुन्देली लोक-कथाएँ नीति, व्रत, प्रेम , मनोरंजन, किम्बदन्ती और – पुराण आदि पर आधारित होती है। इनमें कल्पना के माध्यम से पशु-पक्षियों और मनुष्यों के सम्बंध में नैतिक-शिक्षा दी जाती है। परियों और अप्सराओं के माध्यम से अमानवीय व्यक्तियों की कथायें कही जाती हैं। दन्त कथाओं में सन्तों की जीवनियोँ होती हैं और पुराण के आधार पर धार्मिक देवी-देवताओं के जीवन-वृत्त प्रस्तुत किए जाते हैं।
इन लोककथाओं में प्रधानतः प्रेम, शिष्टश्नंगार, मंगल- भावना, रहस्यमयता, अलौकिकता एवं औत्सुक्य आदि के साथ वर्णन की स्वाभाविकता और सुखान्त परणति होती है। कथा कहने वाला “जैसे उसके दिन फिरे, वैसे सबके फिरे’ कहकर कथा समाप्त करता है।
बुन्देली लोककथाओं का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन है, उपदेश देना नहीं। मानवीय भावों के घात प्रतिघात और उनके उतार-चढ़ाव के चित्रण से उन्हें कोई मतलब नहीं और न बुद्धि और तर्क के उहापोह के लिए वहाँ कोई स्थान है। उनकी तो अपनी एक अलग दुनियों है, जहाँ सभी असम्भव सम्भव है, सभी कुछ वहाँ आसानी से बिना किसी प्रयास के घटित हो सकता है। इनमें जिस परिविश का ज्ञान होता है वह सुख-सम्रद्धि का द्योतक है।
यह समुद्धि आर्थिक तो है ही साथ ही सांस्कृतिक भी है। उनमें आजकल की सामाजिक जटिलताओं का प्रवेश नहीं है। इसीलिए इन लोककथाओं का स्तर आजकल के कथासाहित्य के समान यथार्थवादी न होकर आदर्शवादी, नैतिक, व्यावहारिक और जीवन को दिशा देने वाला है।
बुन्देलखण्ड विन्ध्य की शैलमालाओं से घिरा हुआ भारत का केन्द्र -स्थल है। यहाँ पर जो प्राचीन शैलाश्रम उपलब्ध हुए हैं, उनके आधार पर यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि बुन्देलखण्ड आदिम-मानव की लीला-भूमि रहा है। यहाँ के आम-आदमी ने जीवन-संघर्ष के क्षणों का साक्षात्कार प्राकृतिक आपदाओं के रूप में अधिक किया है।
मध्यकाल में यहाँ अनेक राजे-रजवाड़े का शासन रहा, जो कि आपस में ही लड़ते-झगड़ते रहे। मालगुजारों, जमीदारों और राजा-सामन्तों के अतुलित प्रभाव ने यहाँ के आम-आदमी को दब्बू और निर्गुनियां बना दिया है। अशिक्षा और सत्संग के अभाव ने व्यक्ति-चेतना को अंधविश्वासी एवं भीरू बनाया है। सभ्यता के विकास की गति यहाँ पर ठिठकी-ठिठकी रही है।
अपनी एकांतिकता में यह क्षेत्र लोक-कथाओं में आदिम- वृत्तियों से लेकर घुर मध्यकालीन बोध को समेटे है। यहाँ का पराक्रम , यहाँ की शूरवीरता, यहाँ की आन-वान तथा यहाँ की सिधाई की अपनी कहानियाँ हैं बुन्देलखण्ड के इस सामूहिक स्वभाव को हम इसकी लोककथाओं में खोज सकते हैं।
बुन्देलखण्ड की लोककथाओं में आदिम मनुष्य के जीवन की ‘कल्पना fantasy’ अभी भी स्पष्ट दिखायी देती है। प्रकृति के प्रति व्यक्ति की राग- चेतना ने इन कथाओं में प्रकृति और व्यक्ति को एकाकार किया है। ‘चिड़िया की सेना’ कहानी में राजा चिड़िया की चोंच से गिरा हीरा पा जाता है । चिड़िया के अनुनय से राजा नहीं पिघलता, तब चिड़िया अपनी गाड़ी में आग, नदी, और वायु को बैठाती है, ये सभी मिलकर राजा पर हमला करते हैं।
राजा भयभीत होकर चिड़िया को हीरा वापस कर देता है। ,यह्कहानी प्रतीकात्मक है जिसमें अन्योक्ति क्रे माध्यम से कमजोर को दबाने वाले राजा का प्रतिकार संगठन के आधार पर किया गया है। यदि इस कहानी के उद्देश्य को एक ओर रखकर इसकी संरचना पर विचार करें तो प्रकृति और मनुष्य के बीच की दूरी इसके रचना- विधान में पाट दी गयी है। यही आदिम-मस्तिष्क की भी अन्यतम धरोहर है।
बुन्देली लोककथाओं में पुनर्जन्म
बुन्देलखण्ड की लोककथाओं में कहीं-कहीं पुनर्जन्म की विश्वास-चेतना इस रूप में प्राप्त होती है कि कोई अभागिन या गरीब स्त्री अपने दैवीय गुण या दैवीय कृपा से आगे बढ़ जाती हैं। तब उसकी बहिन या जेठानी या उसकी सौत उसे एकान्त में मार डालती है, किन्तु वह घूरे पर फूल बनकर उगती या बॉस बनकर जन्म लेती या कमल बनकर जलाशय में प्रकट होती है। ये प्राकृतिक उपादान किसी न किसी रूप में उस पूर्व जन्मवाली नारी की दुखकथा का वर्णन करने वाले उपादान बनते हैं।
‘कुमारी अनारमती’ कहानी में व्यक्ति और प्रकृति के दरम्यानी रिश्तों का परिचय इसी रूप में मिलता है। ‘संत-बसंत’” कहानी में संत व बसंत, दो भाइयों का हरे बॉसों से पैदा होना, भाई- भाई का विछोह, एक भाई का राजा बन जाना तथा दूसरे का साधु बनकर आप बीती सुनाना, जिससे दोनों बिछुरे भाईयों का मिल जाना इस कथा का सार है। निश्चित ही इस प्रकार की कथाओं की संरचना में मानवीय ज्ञान-चेतना के साथ उसकी स्वप्न-शीलता की भी बुनावट है।
बुन्देलखण्ड का आम-आदमी जंगल के सानिध्य में रहा है। पहाड़ों की ढ़लानों और ऊचाइयों पर बसा है। उसने अपने परिवेश से जो जीवन्त सम्पर्क बनाया था, वही इन लोककथाओं की बुनावट में झाकता है। इन लोककथाओं में राक्षस-चुड़ैल, भूत- प्रेत आदि की हिस्सेदारी समाई रहती है। धुर देहातों में इस तरह की लोककथाएँ पर्याप्त संख्या में प्राप्त होती हैं। यहाँ के जंगलों में निवास करने वाले गोंडों की कथाओं में इन आधिदैविक शक्तियों की उपस्थिति बहुत अधिक है।
बुन्देली लोककथाओं में जादू-टोना और तंत्र-मंत्र
जादू-टोना और तंत्र-मंत्र ने भी बुन्देली लोककथाओं में अपना आसन जमा रखा है। मूठमारना, जादू की पुड़िया का प्रयोग, जादुई गलीचा की प्राप्ति आदि के माध्यम से रहस्य-रोमांच और चमत्कार की सृष्टि तो की ही गयी है साथ ही कल्पना -विस्तार का मनोवैज्ञानिक आनन्द भी इन सन्दर्भो में निहित है।
बुन्देली लोककथाओं में डाकू और ठग
बुन्देलखण्ड में डाकू और ठगों का बाहुल्य रहा है। पिंडारियों की कारगुजारियों तो इतिहास की विषयवस्तु बन चुकी हैं। अत: यहाँ की लोककथाओं में डकैतों और ठगों की वारदातें भी प्रमुख हैं। डाकू के साथ जो भयंकरता और नृशंसता का भाव जुड़ा है उसे तो ये कथायें उभारती ही हैं किन्तु इनके भीतर के मानवीय आचरण को वे असल महत्व देती हैं। कथाओं में कोई स्त्री डाकू को भाई बना लेती है और वह डाकू उसकी रक्षा का बीड़ा उठा लेता है।
कन्या के विवाह के लिए लूट का धन दे देने वाले डाकू भी कथाओं में है। डाकू-वृत्ति से सम्बंधित लोककथाओं में वह अत्यन्त विकसित- मानव मस्तिष्क सक्रिय है, जिसमें भाव को उच्च बिन्दु पर अनुभव किया गया है। ठगों की कारगुजारियों को आधार बनाकर रची गयी लोककथाओं में बौद्धिक चातुर्य पर बल दिया गया है।
बुन्देलखण्ड का आम-आदमी अपनी ऐकान्तिकता में इस चतुराई का लुत्फ उठाता है, अपनी आनन्द को तृप्त करता है। इन कथाओं में सामान्य-जन की बौद्धिक चतुराई को भी कभी परितृप्त करता है। इन कथाओं में सामान्य-जन की बौद्धिक चतुराई कभी परिस्थितिजन्य होती है तो कभी अनायास।
भोंदूभाई, जो प्रायः बड़ा होता… है, ठगा जाता है. तो छोटा भाई अपनी बुद्धि के बल पर ठगों से अपने भाई का बदला लेता है । इस तरह की कथाओं में सेठ साहूकार भी ठगों की तरह प्रस्तुत होते हैं। ‘जहॉन खाँ चोर”, कोरी कौ भाग, तीसमार खाँ आदि लोककथाओं में इस तरह के वर्णन हैं।
बुन्देली लोककथाओं में प्रेम
प्रेम को केन्द्र बनाकर कही गयी कथाओं में अक्सर राजकुमार और राजकुमारियों को सम्मिलित किया गया है । राजकुमार किसी निर्धन या अपने से हीन जाति की लड़की पर रीझ जाता है और उसे अनेक विरोधों के बावजूद पाने की चेष्टा करता हैं। कभी अपने तीर कमान के माध्यम से कभी किसी योगी गुरू द्वारा दी गयी किसी ईन्द्रजालिक वस्तु या फिर कभी घर में बड़ी भाभी के सामने सिरदर्द का बहाना बनाकर।
राजकुमारियोँ भी अपने से निर्धन व्यक्ति पर रीझती हैं और उन्हें पाने का प्रयत्न करती हैं, यद्यपि वह बाद में किसी देश का राजा निकलता है। ऐसी लोककथाओं में अन्ततोगत्वा प्रेम की विजय ही होती है। राजकुमार और राजकुमारियोँ सामान्य जनों की तरह संघर्ष झेलते हुए जीवन- यापन करते हैं। उन पर बुरा वक्त अपना असर डालता है किन्तु बाद में सब ठीक हो जाता है। सबका अच्छा समय आ जाता है।
बुन्देली लोककथाओं में ‘प्रेम” केवल दाम्पत्य-भाव प्रधान बनकर ही नहीं आया है वरन् भाई-बहन, माता-पुत्र, पिता-पुत्र, भाई-भाई आदि के सम्बंधों- का चित्रण भी मिलता है। बुन्देलखण्ड में सम्बंधों की अवधारणा को केन्द्र बनाकर लिखी गयी कथाओं में मामा- भांजा, स्वामी -सेवक, पति-पत्नी आदि के सम्बंधों को व्याख्यायित किया गया है।
जीजा- साली, देवर-भौजाई आदि के सम्बंधों में प्रेम केहास्य-विनोद-पक्ष भी सम्मिलित हैं। सम्बंध परक लोककथाओं में सम्बंधों की गरिमा, पवित्रता और प्रेम की तेजस्विता को महत्वपूर्ण माना गया है। सम्बंधों की रक्षा के लिए किए जाने वाले व्रतों- उपवासों में भी लोककथाएं सुनाने का प्रचलन बुन्देलखण्ड की स्त्रियों में है, जिसमें करवा-चौथ, महालक्ष्मी, दसारानी आदि व्रतों उपवार्सों से सम्बंधित कथाएं सम्मिलित हैं।
सुहागनों के पर्व पर कार्तिक- स्नान के समय भी स्त्रियों ऐसी कथाएं आपस में सुनाती हैं। सौभाग्य-रक्षा और संतान-प्राप्ति के निमित्त ऐसी कथाएं कही-सुनी जाती हैं। इन कथाओं में धार्मिकता का पुट है, दैवीय- शक्ति का आह्वान है। वे प्रकट होती हैं और दुख के दिन सुख में तब्दील हो जाते हैं।
इस प्रकार जन-जीवन के समस्त पक्षों को बुन्देलखण्ड की लोककथाएं अपने में समेटे हुए हैं। इनमें धर्म, प्रेम, सत् की रक्षा, चतुराई आदि को सर्वाधिक महत्व प्रदान किया गया है। लोक ने अनेक सम्बंधों का साधारणीकरण किया है, राजा-रानियोँ सामान्य जन बनकर लोककथाओं में आते हैं।
यहाँ की सांस्कृतिक की पहचान इसकी लोककथाओं में सुरक्षित है। वेश-भूषा , खान-पान, रहन-सहन, घर-मकान आदि का वर्णत बिल्कुल बुन्देली परिवेश का है। अधिकतर लोककथाएं निर्धन, गरीब, सताये गये आम-आदमी के प्रति करुणा प्रकट करती हैं तथा उस प्रतिकार का बदला लेने के लिए समायोजन अपने ढंग से करती हैं।
बुन्देली लोककथाओं में अधिकांशत:. मध्यकालीन भाव-बोंध को अभिव्यक्त करती हैं। इन कथाओं के चरित्र सामान्यतया मध्यकालीन समाज के हैं। अभिजात्यवर्गीय चरित्रों में राजा-रानी, राजकुमार, सेनापति, मंत्री आदि हैं, तो सामान्य जनों में कोरी, नाई, अहीर, बढ़ई, राजगीर, माली, फसिया (बहेलिया) आदि को अधिसंख्य लोककथाओं में प्रस्तुत किया गया है। व्यापारी -वर्ग की अहम भूमिका इन कथाओं में विद्यमान है।
बंजारों के व्यापारिक काफिलों का उल्लेख लोककथाओं में मिलता है। लोककथाओं में इन पात्रों की जीवन-प्रणाली को सूक्ष्मतापूर्वक ढाला गया है। सभी लोककथाओं में बुन्देली-भाषा की अभिव्यक्ति का सुन्दर समाहार है। खॉँटी बुन्देली- भाषा का स्वरूप इन लोककथाओं में सुरक्षित है।
बुन्देलखण्ड में कुछ ऐसी लोककथायें प्रचलित हैं, जिनका फलक अत्यंत विस्तृत है। जिनकी लम्बाई रातों में मापी जाती है। खजाना, राजकन्या आदि की प्राप्ति इन कथाओं का चरम लक्ष्य होता है। कुछ लोककथायें ऐसी होती हैं जिन्हें गा-गाकर कहा जाता है । इन कथाओं के कहने में कथक्कड़ (कथा कहने वाला व्यक्ति) का कौशल विशेष रूप से दिखता होता है। किस्सा कहने वाले ये लोग भाषा के नाटकीय प्रयोगों से परिचित होते हैं। उनकी हाव-भावपूर्ण मुद्रायं होती हैं। वे अपनी किस्सा कथन- शैली में पारंगत होते हैं।
According to the National Education Policy 2020, it is very useful for the Masters of Hindi (M.A. Hindi) course and research students of Bundelkhand University Jhansi’s university campus and affiliated colleges.