बुन्देलखंड की वे रचनाएँ हैं, जो लोकमुख में नहीं आ सकीं, परन्तु उनमें वे लोकतत्त्व मौजूद हैं, जिनसे कोई रचना लोकमुख में आकर लोकप्रचलित हो जाती है। जिनमें कुछ लोकप्रचलित हैं और कुछ केवल लिखित। फागों, खयालों, सैरों रचनाओं की यही स्थिति है। अतएव उन्हें Bundeli Likhit Lokvachik Parampar में स्थान दिया गया है।
बुन्देलखंड के लोकसाहित्य की लिखित लोकवाचिक परम्परा
वीररसपरक राष्ट्रीय काव्य-धारा
आल्हा राइछौ (17वीं शती), प्रथीराज कौ दरेरौ (18वीं शती), शिबू दा का आल्हा (19वीं शती), नवलसिंह प्रधान का आल्हा (19वीं शती) और दिशाराम भट्ट का आल्हा (19वीं शती) आल्हा गाथा की विषय-वस्तु पर आधारित हैं। कटक काव्यों में छत्रासाल जू कौ कटक (18वीं शती), पारीछत कौ कटक (19वीं शती), झाँसी कौ कटक (19वीं शती) एवं मिलसाए कौ कटक (19वीं शती) अब तक उपलब्ध हुए हैं।
इन लोकप्रबन्धों में ऐतिहासिक वीरों के शौर्य और उनके जन्मभूमि के प्रति प्रेमभाव को अभिव्यक्ति मिली है। गेय लोकमुक्तकों में द्विज किशोर, लघुदास नीखरा, भग्गी दास जू, चतुरेश नीखरा की सैरें और मंजें लोकप्रिय हुई थीं।
भक्तिपरक लोककाव्य-धारा
राम, कृष्ण आदि के माध्यम से साधारण आदमी की जीवन-कथा ही कही गई है और वह भी लोकसंस्कृति के ताना-बाना से बुनी हुई। लघुमंति की प्रतीति-परीक्षा (1653 ई.), रसनिधि की अरिल्लें (1700 ई.) बंसी कायस्थ की सजन-बहोरा (1723 ई.) रूपनारायण मिश्र और प्रियासखी की गारियाँ (18वीं शती), प्रेमदास गहोई के लीलाकाव्य(1770-97 ई.), द्विज रामलाल पांडे, दरयावदास दउआ और कवि लछमन की कृतियाँ (18वीं शती) इस धारा की प्रमुख रचनाएँ हैं। रसिक भक्त कवियों में पासवान, वृषभानुकुँवरि, रूपकुँवरि, जुझारसिंह, गंगासिंह, कमलकुँवरि, सुजानकुँवरि और चन्द्रकुँवरि की कृतियाँ प्रमुख रही हैं।
श्रंगारपरक लोककाव्य-धारा
में सैर, फाग, लावनी, गंज, बारामासी और गारी के विविध उदाहरण मिलते हैं। सैरकारों में भैरोंलाल, रामलाल पांडेय, दरयावदास दउआ, भग्गीदाऊ जू, लछमन, द्विज किशोर, चोखे व्यास, गंगाधर व्यास आदि प्रमुख हैं। फागकारों में रसिया, गंगाधर व्यास, ख्याली, खूबचन्द, रामप्रसाद, द्विज दुर्गा, दुर्गागिरि, मनभावन, भुजबल आदि की फागें चर्चित रही हैं। बारामासी काव्य के प्रमुख रचनाकारों में जगन्नाथ, अक्षर, पदमेश, देवीसिंह, रसनिधि, द्विज गुमान आदि प्रसिद्ध थे।
लिखित लोककाव्य में लोकजीवन के यथार्थ के चित्रा भी मिलते हैं। पारिवारिक कलह, झगड़े, सौतिया डाह, पारस्परिक ईष्र्या-द्वेष से लेकर बूढ़े कौ ब्याव और विधवा-विवाह जैसी सामाजिकता, चूहों की समस्या से लेकर अकाल तक और तम्बाकू-बीड़ी की लत से लेकर लूट और डकैती तक जैसी समस्याएँ तथा जमींदारों का दबाव, अछूत, महँगाई, जैसे गम्भीर प्रश्न इन रचनाओं के विषय रहे हैं, जिनसे उनकी प्रासंगिकता सिद्ध होती है।
शिष्ट साहित्य की वाचिक परम्परा
इस परम्परा में कथाकाव्य-धारा महत्त्वपूर्ण रही है। सर्वप्रथम महाकवि विष्णुदास ने 1435 ई. में पांडव कथा ‘महाभारत’ की रचना की, फिर 1442 ई. में ‘रामायण-कथा’ की। ‘महाभारत’ आदि पर्व में ही ‘कहना’ और ‘सुनना’ क्रियाओं का प्रयोग किया है।
सुनहु देव इक चितह समानी। गोगहु भारथु कहों बखानी।।
जो फल गंगा न्हान तें, सो भारथ तें जानि।
पंडव कौरवनि आदि तें, उतपति कहों बखानि।।
आदिपर्व तें कहों बखानी। सुनियहु पंडित कथा सुजानी।।
इसी तरह अन्तिम पंक्तियों में ‘कथा श्रवन करि देहि जे दानू’ से स्पष्ट है कि ‘महाभारत’ इस परम्परा का प्रथम ग्रन्थ है। ‘रामायन-कथा’ में भी ‘कहने’ और ‘सुनने’ की संवादात्मकता है। कवि प्रथम छन्द में ही संकेत दे देता है ‘सुनत हुलास जीव संतोषु। कहत कथा नर पावै मोषु।।’ साथ ही रामायन-कथा के कई वक्ता और श्रोता हैं। ग्रन्थ के अन्त में कथा सुनने का फल दिया हैं।
मन थिर बुद्धि सुनै जो कोई। ता कहँ ब्याधि पीर ना होई।।
अरसठ तीरथ कौ फल लहै। विष्णु दास निज गुरुवर कहै।।
छिताई-कथा (1475-80 ई.) में कथारम्भ के पूर्व आख्यान-गान की पंक्तियों से भी स्पष्ट है कि कवि ने कथा को गाकर ही सुनाया था और गाकर सुनाने के लिए ही इस कथा की रचना हुई थी। निम्न संकेत द्रष्टव्य हैं।
मोहि न हँसहु सुनहु चउपही
कथा छिताई जंपन लई
बहुत बात को कहै बढ़ाई
बाढ़े कथा जु करउ बखाना
सुनहु सभा सब मनि धरि भाऊ
जो यहु कथा सुनई दे काना।
ता फलु होइ गंगा असनाना।
उक्त पंक्तियों में संक्षिप्त कथा का भाव समझने का आग्रह भी है। असल में, कथाकार कथा के रूपक द्वारा एक सन्देश देना चाहता है, जो वह शासन के दबाव में स्पष्ट नहीं कर सकता। इस तरह कथाकारों ने युग-धर्म का निर्वाह करने के लिए कथा का ताना-बाना बुना था।
चतुर्भुजदास निगम का प्रेमाख्यानक काव्य ‘मधुमालती विलास’ (1479-86 ई.) इस परम्परा का ऐसा ग्रन्थ है, जिसका उद्देश्य चतुरों के चित्त को रिझाना है।
‘चातुर चित हित सहित रिझाना मधुमालती मनोहर गाना ।।’
प्रसिद्ध कवि बोधा की रचना ‘माधवानल-कामकन्दला’ (1755) में वाचिक परम्परा के इतिहास का संकेत है।
सुन सुभान अब कथा सुहाई। कालिदास बहु रुचि सह गाई।।
सिंहासन बत्तीसी माहीं। पुतरिन कही भोज न प पाहीं।।
पिंगल कहै बैताल सुनाई। बोधा खेतसिंह सह गाई।।
रुचिर कथा सुनि है दिलमाहिर। इसक हकीकी है जग जाहिर।।
इन पंक्तियों में ‘कहीं’ और ‘सुनाई’ के साथ ‘गाई’ क्रिया प्रयुक्त हुई है। तीनों कथा की वाचिक परम्परा की स्वीकृति देते हैं। अधिकांश कथाकाव्यों में कथा-वारता शब्दों का प्रयोग भी हुआ है, जिससे कथा-वार्ता के प्रचार-प्रसार का पता चलता है।
कथा रचने के लिए बीड़ा लेना और प्रण करना तथा लोकमानस को जाग्रत करने के लिए कथा-वाचन करना बुन्देलखंड के कथाकारों की उल्लेखनीय प्रवृत्ति रही है। एक ओर वे दृढ़ संकल्प कर लोकभाषा या भाषा की सेवा करते थे, तो दूसरी ओर कविता को लोक-जागरण का सशक्त माध्यम बनाते थे। लोकमंच पर कथा-वाचन साहस का काम था, जो मध्ययुग के कथाकारों ने सफलतापूर्वक सम्पन्न किया था।
वाचिक शैली की परम्परा
वाचिक शैली वह है, जिसमें या तो वक्ता-श्रोता की संवादात्मकता प्रमुख होती है या आश्रित कवि अपने आश्रयदाता को रचना सुनाता है अर्थात् वक्ता स्वयं कवि एवं श्रोता आश्रयदाता और दरबारी होते है। 1526 ई. के लगभग रचित ‘परमाल रासो’ होना चाहिए ।
चन्द बचन जे उच्चरे, ते भक्खत सुनु राज
सो रावल òवनन सुनो, वदति चन्द बरदाय।
अनँगपाल सह व्यास कहि, रावल सो कहि चन्द।
कहत जगन कविराज वर, सुनि नृप पंगुलराय
रासो-परम्परा में गुणवन्त भाट के ‘सत्राजीत राइसौ’ (1801 ई.) दूसरे प्रकार की शैली का संकेत करता है ‘बिदी बार रन रार सुन पारीछत छितकन्त।’ लाल कवि के इतिहास-लेखन के ग्रन्थ ‘छत्रा प्रकास’ (1710-21 ई.) भी इस शैली को आंशिक रूप में अपनाता है
अनुभूति की विशेषता
वाचिक परम्परा के साहित्य और खासतौर से कविता में अनुभूति का पक्ष इतना प्रबल होता है कि उसे ‘अनुभूति-प्रधान’ की संज्ञा से विभूषित किया जा सकता है। लोकवाचिक परम्परा में लोक से बहुत अधिक जुड़ाव अनिवार्य है, इसीलिए हर लोकदेवता को लोक पुरुष और हर लोकदेवी को लोकस्त्री की भूमिका अदा करनी पड़ती है।
यही कारण है कि लोक का इतिहास और संस्कृति अनुभूति के अनिवार्य अंग होते हैं। लोकवाचिक अनुभूति में भाव की प्रधानता रहती है और लोकविवेक से भावुकता ही उसका प्राणतत्त्व है। कल्पना को उतना प्रश्रय नहीं मिलता। लोकरचनाकार तत्कालीन लोकचेतना से अपनी लोकानुभूति को सम्बद्ध रखता है, इसीलिए उसमें ‘लोकत्व’ रहता है।
शिष्ट साहित्य की वाचिक परम्परा में भी सारा संवाद लोक या जनता से होता है, अतएव उसकी अनुभूति भी किसी-न-किसी रूप में लोक से जुड़कर ही मंच की अनुभूति बनती है। उदाहरण के लिए, कथाप्रबन्धकों में कथा-रूपकों के द्वारा लोकहित के उद्देश्य की सम्पूर्ति वैसे ही हुई है, जैसे आधुनिक राष्ट्रीय काव्य में अन्योक्तिकाव्य द्वारा। यह बात अलग है कि शिष्ट वाचिक अनुभूति उतनी सहज, सरल और लोकमयी नहीं होती, जितनी लोकवाचिक अनुभूति। उनमें बौद्धिक स्तर की भिन्नता भी होती है।
बुन्देलखंड की लोकवाचिक और शिष्टवाचिक अनुभूति की एक सर्वोपरि विशेषता है उसकी संघर्षपरक तीव्रता। इस जनपद में 10वीं शती से लेकर पूरे मध्ययुग तक और 1857 ई. के प्रथम स्वतन्त्राता-संग्राम से द्वितीय स्वतन्त्राता-संग्राम तक बाहरी आक्रमणों और भीतरी संघर्षों का ताँता लगा रहा। इसीलिए यहाँ वीरगाथा-काल हमेशा बना रहा, भक्ति तक वीररसात्मक हो गई। इस लिये वाचिक अनुभूति में ओजत्व की प्रधानता स्वाभाविक थी।
अभिव्यक्ति का स्वरूप
वाचिक परम्परा में रचनाकार को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में श्रोता-समूह से सीधा संवाद करना पड़ता है, अतएव प्रकट है कि उसकी अभिव्यक्ति कुछ भिन्न होती है, साथ में लोक से संवाद की अपार क्षमता होती है। शिष्टवाचिक अभिव्यक्ति में है लोकवाचिक अभिव्यक्ति में सहजता, सरलता और अनगढ़ तो होता ही वाचिक शैली के बल पर संवादात्मकता कायम की जाती है। वाचिक सम्बोधनों और वाचिक संवादों के मेल से रचना की अभिव्यक्ति में पाठकों या श्रोताओं के प्रति एक निराली आत्मीयता होती है, जो रचनाकार की अनुपस्थिति में भी पाठकों या श्रोताओं से संवाद करा देती हे।
लोकवाचिक और शिष्टवाचिक अभिव्यक्ति में अन्तर यह है कि लोकवाचक अभिव्यक्ति में बोलचाल की भाषा, सहजता, अनलंकृति, पुनरावृत्ति, गेयता और संवादात्मकता होती है, जबकि शिष्टवाचिक अभिव्यक्ति में साहित्यिक भाषा अलंकृति, वाचिक शैली एवं संवादात्मकता रहती है। बुन्देलखंड लोकवाचिक और शिष्टवाचिक अभिव्यक्ति की विशेषता है उसकी रोमांटिक ओजमयता, जो कि संघर्ष परकता से प्रस्फुटित हुई है और संवादात्मकता की शक्ति बनी है।
सीमा और शक्ति
लोक वाचिक और शिष्ट वाचिक परम्परा की रचनाओं की प्रमुख सीमा यह है कि वे आभिजात्य वर्ग और विशिष्ट बौद्धिक स्तर के वर्ग को आकर्षित नहीं करतीं; उनका साहित्यिक स्तर जनसाधारण के स्तर से मेल खाता है।
बुंदेलख ड जनपद में चंदेलकालीन उत्सव, मध्ययुगीन अखाड़े और उत्तरमध्य तथा पुनरूत्थान-युग के फड़ ऐसे संस्थान रहे हैं, जिन्होंने रचनाकारों और जनता के बीच आत्मीय संवाद निरंतर बनाये रखा था। इसीलिए चंदेल-काल और मध्यकाल की हस्तलिखित और प्रकाशित रचनाओं में इन संस्थाओं का उल्लेख मिलता है।
यही वजह है कि इस बुंदेलखंड में वाचिक परम्परा हमेशा बनी रही। आधुनिक युग के विकसित मीडिया और रचनाकारों की उच्च स्तर के सीमित पाठकों से जुड़ने की आकांक्षा के कारण वाचिक परम्परा का अभाव है, लेकिन उनके विरूद्ध एक व्यापक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप लोकवाचिक रचनाओं का आंदोलन उभरा है, जिससे वाचिक परम्परा को नयी दिशा मिलने की संभावना है।
काल-निर्धारण के आधार
लोक साहित्य का काल-निर्णय कोई सरल कार्य नहीं है, उसके लिए उस जनपद के इतिहास, भाषा, संस्कृति और लोकचेतना का सम्यक् ज्ञान अनिवार्य है। लोकगीत जो लोककवि द्वारा रचा जाता है, अपनी लोकानुभूति और लोकाभिव्यक्ति की वजह से लोक द्वारा अपना लिया जाता है और लोकमुख में जीवित रहता हुआ गायकों द्वारा थोड़ा-बहुत रूपान्तरित होकर संचरित होता रहता है।
कुछ लोकगीतों में रचयिता की छाप होती है अथवा प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों में संग हित होने पर उनके रचयिता का पता चल जाता है। उनके सम्बन्ध में विशेष कठिनाई नहीं होती। लिखित परम्परा के लोककाव्य के जिन कवियों का कालखंड निश्चित हो जाता है, उन्हें ऐतिहासिक क्रम में रखा जा सकता है, परन्तु जिनके सम्बन्ध में खोज नहीं हो पाती, उनके समय का अनुमान लगाया जा सकता है।
कथानकरूढ़िया
आख्यानक लोकसाहित्य में तत्कालीन कथारूढ़ियों का प्रयोग मिलता है। पँवाड़ों, राछरों, गोटों, नोरता और माता के गीतों में विभिन्न कथारूढ़ियों की संयोजना की गई है। जिस प्रकार परिनिष्ठित काव्य में प्रयुक्त कथारूढ़ियाँ मोटे तौर पर एक निश्चित कालखंड का आभास देती हैं, उसी प्रकार लोककाव्य की। उनसे आख्यान गीतों का काल निर्धारित किया जा सकता है।
लोकसाहित्य की अधिकांश कथारूढ़ियों का अनुकरण करना परिनिष्ठित साहित्य में हुआ है। उदाहरणार्थ लोकमहाकाव्य आल्हखंड में गृहीत कथारूढ़ियाँ मध्ययुग के रासो और वीरचरित प्रबन्धों के कथानकों में समाविष्ट हुई है।
ऐतिहासिक वस्तु, कथा एवं पात्र
लोकसाहित्य में ऐतिहासिक वस्तु, घटना और पात्र की योजना मिलती है, जिनके आधार पर उसका काल-निर्णय सरलता से हो जाता है। उदाहरण के रूप में, ओरछा के दिवान हरदौल और पन्ना के राजा अमानसिंह से सम्बन्धित आख्यानक गीत लिए जा सकते हैं। हरदौल के बलिदान को लेकर रचे गए गीत सं. 1688 (1631 ई.) और अमानसिंह की उदारता तथा उनके बहनोई सम्बन्धी घटना को केन्द्र में रखकर गाए जानेवाले राछरे सं. 1815 के बाद के मध्यकालीन गीत हैं।
कुछ गीतों में तुर्कों या मुगलों द्वारा सुन्दर नारियों के अपहरण की घटनाएँ हैं और कुछ में छोटे युद्धों का वर्णन, वे सब मध्यकालीन हैं और तुर्कों या मुगलों के आक्रमणों के बाद या उनके राज्य-काल में लिखे गए हैं। मथुरावली की गाथा में सतीत्व की रक्षा के लिए खड़े-खड़े जलने की करुण कथा है। पारीछत और लक्ष्मीबाई के युद्धों का वर्णन 1840 ई. और 1857 ई. के बाद के हैं।
लोकप्रसिद्ध घटना या पात्र
ऐतिहासिक घटनाओं और पात्रों के स्थान पर लोकप्रसिद्ध घटनाओं या पात्रों को लेकर कुछ लोकगीत रचे गए हैं। ‘तेजबली कौ राछरौ’ में तेजसिंह के चिंगीगढ़ में जूझने का वर्णन है। तेजसिंह या तेजबली इतिहास प्रसिद्ध नहीं हो सके, किन्तु लोक में उनका यश छाया रहा। वे कोंच के बुन्देला राजा सरूपसिंह के सुपुत्र थे और उनका युद्ध इतना प्रसिद्ध हुआ कि आज भी राछरे के रूप में गाया जाता है।
इसी प्रकार कुछ गीतों में अकाल, सती होना आदि उन ख्यात घटनाओं का आधार लिया जाता है, जो विशेष क्षेत्रा के लोकमुख में जीवित रहती है और उसी क्षेत्र में उनकी खोज करने पर काल-निर्धारण सम्भव है। उदाहरण के लिए, ‘कजरियन कौ राछरौ में कजरियाँ या भुजरियाँ खोंटते समय बहिन की रक्षा के लिए भाई के युद्ध का वर्णन किया गया है।
तत्कालीन लोकसंस्कृति
लोकसंस्कृति में लोकविश्वास, संस्कार, रीति-रिवाज प्रमुख होते हैं। संस्कार के किसी विशेष विधि-विधान या किसी विशिष्ट प्रचलित रीति से उस समय का अनुमान लगाया जा सकता है। वस्त्राभूषणों और शस्त्रो के नाम अधिक सहायक सिद्ध होते हैं। श्रृंगार-प्रसाधन, रुचियाँ आदि भी रचना-काल की प्रामाणिकता के साक्षी बनते हैं।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल