Homeबुन्देलखण्ड का सहित्यBundeli Ke Kshetriya Roop बुंदेली के क्षेत्रीय रूप

Bundeli Ke Kshetriya Roop बुंदेली के क्षेत्रीय रूप

बुन्देली एक विस्तृत भू-भाग की भाषा है। विस्तृत रूप होने के कारण इसमें क्षेत्रीय स्तरों पर सांस्कृतिक विचारों, परम्पराओं मान्यताओं, रीति-रिवाजों आदि का आदान-प्रदान होता है। Bundeli Ke Kshetriya Roop बुंदेली के क्षेत्रीय रूप यमुना के उत्तरी भू-भाग से लेकर नर्मदा के दक्षिण भू-भाग में क्षेत्रीय विविधता के परिणामस्वरूप बुन्देली भाषा की क्षेत्रीयता के विभिन्न स्वरूप हमें प्राप्त होते हैं।

कुछ निष्चित समान मूल प्रवृत्तियों के बावजूद स्थानीय विषेषताओं के कारण यह बुन्देली भाषा स्थानीय रूप ग्रहण करती है, जिन्हें हम उपबोली के रूप में परिभाषित कर सकते हैं या इन्हें हम बोली के क्षेत्रीय रूप भी कह सकते हैं।

शुद्ध बुन्देली
यह बुन्देली का वह रूप है, जिसके अंतर्गत दतिया, झाँसी, टीकमगढ़, छतरपुर का मध्य और पश्चिमी भाग, विदिशा, सागर, जबलपुर कटनी तहसील को छोड़कर, दमोह, रायसेन, होशंगाबाद सिवनी और हरदा तहसील को छोड़कर एवं नरसिंहपुर क्षेत्रआते हैं। संपूर्ण विश्व में प्रचलित भाषाओं में कोई भी भाषा अथवा बोली पूर्णतया शुद्ध नहीं कही जा सकती, क्योंकि वह न्यूनाधिक मात्रा में आसपास की भाषा अथवा बोलियों से प्रभावित होती है।

लेकिन यह थोड़ा बहुत प्रभाव उसको शुद्ध रूप में पूर्णतः अलग नहीं करता। कमोबेश रूप में यही तथ्य बुन्देली के संदर्भ में भी लागू होते हैं। बुन्देली में सर्वगृहीत प्रवृत्तियों के सिवा स्थानीय प्रभाव इसके अलग-अलग रूपों को प्रस्तुत करते हैं। कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहाँ सीमावर्ती बोलियों के प्रभाव से बुन्देली शत-प्रतिशत मुक्त है और इसी क्षेत्र की बुन्देली शुद्ध अथवा मानक बुन्देली कही जा सकती है।

शुद्ध बुन्देली के क्षेत्र की सामान्य विशेषताएँ
1- भविष्यकालीन हिन्दी के गा, गी, गे रूपों का बुन्देली में अभाव है। उदाहरण के लिए -चढ़ चुका होगा -हुइए। चढ़ेगा-चढ़है। इसी प्रकार था, थी, थे के स्थान पर ता, ती, ते रूपों का प्रयोग व्यवहृत है। उदाहरण के लिए-रजवाड़ा नहीं था-रजवाड़ों नई हतो। फोड़ ली थी- फोर लई हतीं। उड़ जाते थे-उड़ जातते।

2- कर्मकारक परसर्गों में ‘खों‘ और ‘कों‘ रूपों का प्रचलन बुन्देली के मध्यवर्ती क्षेत्र की प्रमुख विशेषता है। उदाहरण के लिए- बहू बेटी को-बहुअन बिटियन खां, विधि की गति को- विध की गत कों।

3- बुन्देली के शुद्ध रूप में संज्ञा का बहुवचन रूप ‘न‘ और ‘अन‘ प्रत्यय लगाकर बनाया जाता है। जैसे- राजाओं ने-राजन ने, आँखों-आँखन, सैनिक-सैनिकन, लरकियन-लरकन, सैनिकों-सेनकन, लड़कांे-लरकन, लड़कियों-लरकियन।

4- कारक के कर्म में कारण से ‘सें‘ के रूप में ही सदैव प्रयोग किया जाता है। यह प्रकृति बुन्देली की मुख्य विशेषता है- प्रजा से-परजा सें, सभी से-सबई सें।

5- हकार लोप की प्रवृत्ति एक सामान्य विशेषता है, यही विशेषता उसे शुद्ध बुन्देली प्रमाणित करती है- कहता-केत, कात, कहा-कई, उन्होंने-उननें, बहुत ही-भौतई।

6 -शुद्ध बुन्देली में लोच और माधुर्य का अपूर्व संगम है। अनेक भाषाशास्त्री इसे ‘मधुर बोलियों का सिरमौर‘ कहते हैं। यह माधुर्य कठोर वर्ण ‘ड‘ बुन्देली में ‘र‘ एवं ‘ण‘ के ‘न‘ में परिवर्तित होने के कारण दिखायी देता है। जैसे-फोड़ लीं-फोर लईं, लड़ने-लरबे, बिगाड़- बिगार।

7 – अर्द्ध अक्षर को पूर्ण करके बोलने, लिखने की प्रवृत्ति पायी जाती है। जैसे- प्रजा – परजा, कर्जा-करजा, भ्रम-भरम।

8 – शुद्ध बुन्देली में स्थान-स्थान पर अनुस्वरित उच्चारण दिखायी देता है – सुना-सुनों/सुनीं, कोई-कोनउँ/ कोउ/ काउ, उसने-ऊने/ उननें/ बानें, भेदी ने-भेदी नें। ये सभी  विशेषताएँ बुन्देली के मध्यवर्ती क्षेत्र की हैं, जो कि भाषायी दृष्टि से मानक बुन्देली अथवा शुद्ध बुन्देली का क्षेत्र कहा जाता है, किन्तु ये ही विशेषताएँ जब इसी रूप में प्राप्त नहीं होतीं और अन्य प्रभावों सहित प्रयुक्त होती हैं, तब ऐसे रूप को हम बुन्देली का मिश्रित रूप कहते हैं।

मिश्रित बुन्देली
प्रत्येक भाषा या बोली का एक सर्वस्वीकृत रूप तो होता ही है और दूसरा मिश्रित रूप होता है। यही रूप उसे अन्य बोली या भाषा से पृथक् अस्तित्व प्रदान करता है। लेकिन इतने विशाल जनसमूह की अपनी विशेषताएं  होती हैं, जो उसके बोली रूप को भी प्रभावित करती हैं। परिणामतः उसमें विशिष्ट प्रभावगत मिश्रण उपस्थित होता है। इसी कारण इस प्रकार के बोली रूप को हम मिश्रित बोलीरूप कहते हैं। बुन्देली के मिश्रित रूप को दो बिन्दुओं पर देखा जा सकता है –

स्थानीय शब्दावली का प्रभाव
क्षेत्र विशेष एवं जाति विशेष की अपनी विशिष्ट कार्यशैली एवं परंपरा होती है, जिसका प्रभाव वहाँ की भाषा अथवा बोली पर भी स्पष्ट परिलक्षित होता है। बुन्देली पर भी क्षेत्रीयता का प्रभाव हुआ है, जिसे हम मिश्रित बुन्देली के रूप में परिभाषित कर सकते हैं। उदाहरण के लिये बालाघाट जिले के लोधियों, पँवारों और छिन्दवाड़ा जिले के एवं नागपुर के कोष्ठियों एवं कुम्हारों द्वारा प्रयुक्त होती बुन्देली।

सीमावर्ती बोलियों का प्रभाव
बुन्देली क्षेत्र के चारों ओर विभिन्न बोलियों का प्रचलन है। इसके उत्तर में ब्रज-कन्नौजी, दक्षिण में मराठी पूर्व में अवधी-बघेली-छत्तीसगढ़ी एवं पश्चिम में निमाड़ी एवं मालवी बोलियाँ प्रचलन में हैं। परस्पर संपर्क के कारण इन बोलियों का प्रभाव बुन्देली पर हुआ है। परिणामतः इनके मिश्रण से बुन्देली के नये रूपों का जन्म हुआ है जो बुन्देली के मिश्रित रूप हैं। अन्य बोलियों के संसर्ग से बुन्देली के जो नये रूप परिलक्षित होते हैं, उनका विश्लेषण निम्नानुसार है –

बुन्देली का पूर्वी रूप
बुन्देली के पूर्वी हिस्से में जालौन, हमीरपुर, छतरपुर का पूर्वी भाग, पन्ना एवं जबलपुर जिलों का उत्तरी भाग सम्मिलित किया जाता है। पूर्वी हिस्से के पश्चिमोत्तर में शुद्ध बुन्देली का जालौन जिला, बुन्देली एवं अवधी के संयुक्त रूप का कन्नौजी भाषी, कानपुर उत्तरी सीमा से बैसवाड़ी भाषी, पूर्वोत्तर क्षेत्र में फतेहपुर जिले में बघेली, पूर्वी सीमा से दक्षिणी एवं दक्षिण पूर्वी सीमा क्षेत्र में छत्तीसगढ़ी और बुन्देली भाषा का क्षेत्र, पश्चिमी सीमा से जुड़ा हुआ है। सीमावर्ती विभिन्न बोलियों के संपर्क से बुन्देली ने अनेक अभिनव रूप धारण किये हैं।

लोधान्ती एवं राठौरी रूप
हमीरपुर जिले का पश्चिमोत्तर भाग, राठ तहसील तथा जालौन जिले के उरई तहसील में बुन्देली का प्रचलित रूप है। इस रूप को लोधियों एवं राठौरों द्वारा अधिक संख्या में प्रयोग करने के कारण क्रमशः लोधान्ती एवं राठौरी कहा जाता है। इसकी प्रमुख विशेषताओं में ‘ओ‘ के स्थान पर ‘औ‘, ‘वह‘ के स्थान पर ‘बो‘, ‘यह‘ के स्थान पर ‘जो‘ एवं ‘कों‘, ‘खों‘ के स्थान पर ‘काँ‘, ‘खाँ‘ प्रचलित है।

बनाफरों की बनाफरी बुन्देली
बनाफर क्षत्रियों के द्वारा बोली जाने वाली बुन्देली बनाफरी नाम से अभिहित की जाती है। इस रूप के अन्तर्गत हमीरपुर जिले का दक्षिणी पूर्वी भाग आता है। बनाफरी का भी संपूर्ण क्षेत्र समान नहीं है। इसके साथ वर्तमान में प्रचलित बनाफरी अपने प्राचीन स्वरूप से भिन्न है।

बनाफरी के प्राचीन स्वरूप में उर्दू, अरबी भाषा के शब्दों के साथ बुन्देली के मिश्रण से युक्त शब्दों का प्रयोग मिलता हैं। उदाहरण के लिए ‘नज़र‘ शब्द में बुन्देली का ‘त‘ प्रत्यय लगाकर बना शब्द ‘नजरत‘/सलामें/ परवानो, खत्म से खातमा/खतमई, आफत से आफतई/आफत में इसी प्रकार के शब्द हैं। बनाफरी भी बघेली मिश्रित बुन्देली एवं बुन्देली मिश्रित बघेली दो रूपों में मिलती है। महोबा चरखारी क्षेत्र की बनाफरी इसी प्रकार की है, जिसमें बघेली का मिश्रण है।

बनाफरी बुन्देली की विशेषताएँ
1- अधिकांश स्त्रीलिंग संज्ञाएँ एकारान्त होती हैं एवं वे सानुनासिक हो जाती हैं। जैसे – लड़कियें।

2- ईकारान्त स्त्रीलिंग संज्ञा के बहुवचन रूप में याँ प्रत्यय लगाया जाता है। जैसे-मौंड़ी, मौंड़ियाँ।

3- अकारान्त पुल्लिंग संज्ञाएँ ओकारान्त उच्चरित होती हैं, जैसे बहुवचन रूप में एकारान्त हो जाती हैं। जैसे- घोरो – घोरे, गधरो – गधरे।

4- संबंधसूचक सर्वनाम बनाफरी में ‘जे‘ अथवा ‘ज्या‘ स्त्रीलिंग के लिये ‘जा‘ तिर्यक रूप में ‘जेह‘ ‘जे‘ ‘ज्या‘ होते हैं। ‘सो‘ का रूप बघेली की तरह ‘तो‘ अथवा ‘तोन‘ होता है।

5- बनाफरी में कारकों के परसर्ग बुन्देली और बघेली दोनों के प्रयुक्त होते हैं।

6- व्यंजनों में ‘न‘ के स्थान पर ‘ल‘ उच्चरित होता है – जनम-जलम, नीम-लीम। इसके विपरीत-ल- के स्थान पर ‘न‘ का प्रयोग भी प्रचलित है-लकड़ी-नकड़ी, लाने-नाने।

7- ‘व‘ के स्थान पर ‘म‘ का प्रयोग भी अनेक शब्दों में मिला है – दीवान – दीमान, जवान – जमान।

8- बनाफरी में बुन्देली के अन्य रूपों की तरह भविष्य कालवाची हौं, हो, हे, है, हैं, हाँ प्रत्ययों का प्रयोग होता है।

9- अपूर्ण भूतकाल क्रिया में ‘हतो‘ अथवा ‘रहे‘ रूपों का प्रयोग होता है।

10- बनाफरी की सामान्य भूतकालीन क्रिया के खड़ी बोली और पूर्वी हिन्दी की तरह दो रूप होते हैं। इस स्थिति में क्रिया के लिंग वचन कर्म के लिंग-वचन की तरह ही होते हैं अन्यथा क्रिया का लिंग पुरुष के अनुसार होता है। जैंसे-पुल्लिंग-मैंने मारोय किसी पुल्लिंग को मारा, स्त्रीलिंग- मैंने मारयू किसी स्त्रीलिंग को मारा, तृतीय पुरुष एक वचन में मारिस, मारुष का भी प्रयोग मिलता है।

11- पूर्ण भूतकाल में ‘हौं‘ प्रत्यय का प्रयोग होता है, जो वास्तव में बुन्देली का भविष्यकाल द्योतक है। यथा- ‘मैं मारहों‘ का अर्थ बुन्देली के अन्य रूपों ‘मैं मारूँगा‘ होता है, किन्तु बनाफरी में इसका अर्थ होता ‘मैंने मारा‘। ‘मारहों‘ के स्थान पर ‘मारो हो‘ का भी प्रयोग होता है। कुछ स्थानों में ‘हों‘ के स्थान पर ‘हताये‘- तथा ‘हतोय‘ प्रत्यय का भी प्रयोग मिलता है। इन विशेषताओं के साथ बुन्देली-बघेली का पूर्ण प्रभाव देखा जा सकता है।

बुन्देली का कुन्द्री (कुण्डरी) रूप
केन नदी के पश्चिमी तटवर्ती भाग की बघेली जो हमीरपुर जिले में स्थित है को भाषा भौगोलिक आधार पर ‘कुन्द्री‘ नाम से पुकारते हैं। इस बुन्देली रूप पर बुन्देली, बघेली और अवधी का प्रभाव मिलता है।

निभट्टा बुन्देली
निभट्टा, तिरहारी का ही एक रूप कहलाता है जो कि जालौन के पश्चिम एवं उत्तर के सीमावर्ती स्थानों में प्रचलित है। तिरहारी और निभट्टा में फर्क इतना है कि जहाँ निभट्टा बुन्देली प्रधान है, वहीं तिरहारी बघेली प्रधान है। इसके उत्तरी हिस्से पर कन्नौजी प्रभाव भी दिखायी पड़ता है।

तिरहारी बुन्देली
यमुना नदी के ‘तीर‘ (किनारे या तट पर) पर बोले जाने के कारण ही इसे ‘तिर-हारी‘ (तीरावाली) अथवा किनारे वाली बोली के रूप में जाना जाता है। इसके तीन जिले जालौन, हमीरपुर, बाँदा यमुना के दक्षिणी तट पर तथा फतेहपुर और कानपुर जिले उत्तरी तट पर हैं। लेकिन इन पाँच जिलों की तिरहारी भी अन्य बोलियों के प्रभाव के कारण भिन्न-भिन्न रूप लिये हुए है।

उदाहरण के लिए जालौन और हमीरपुर जिले बुन्देली भाषी, बाँदा अवधी और बघेली से प्रभावित, कानपुर, कन्नौजी भाषी और फतेहपुर अवधी के रूप बैसवाड़ी का प्रभाव लिए हुए है। इसी प्रकार इन रूपों पर भी एक सीमावर्ती बोली का प्रभाव दूसरी पर है। इस प्रकार कहीं तिरहारी बुन्देली प्रधान है तो कहीं अन्य बोली प्रधान है, लेकिन सभी रूप मिश्रित ही कहे जा सकते हैं।

पूर्वी क्षेत्र के बुन्देली के अन्य रूप
1- पन्ना जिले की अजयगढ़ तहसील का बोलीरूप – इस तहसील का अधिकांश भाग शुद्ध बुन्देली के अन्तर्गत है, किन्तु इसका पूर्वी सीमावर्ती भाग एवं दक्षिणी पूर्वी भाग बघेली से जुड़ा होने के कारण इन हिस्सों में बघेली का मिश्रण मिलता है।

2- कटनी का बोलीरूप- कटनी क्षेत्र मुख्यतः बुन्देली सीमा के अधिक निकट है, इसी कारण यह बघेली प्रभावित बुन्देली का हिस्सा कहा जा सकता है।

3- जबलपुर तहसील का बोलीरूप – जबलपुर तहसील दक्षिण में सिवनी जिले से और पूर्व में नरसिंहपुर से संलग्न है। इसका पूर्वी भाग बघेली से और दक्षिणी भाग की बोली मण्डला के मिश्रित रूप से प्रभावित है, किन्तु दक्षिण और पश्चिमी भाग की बोली लगभग शुद्ध बुन्देली है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि बुन्देली के पूर्वी हिस्से जालौन से लेकर दक्षिणी हिस्से जबलपुर तक के सभी बोलीरूप बघेली प्रभावित हैं। कहीं यह प्रभाव या मिश्रण कम है तो कहीं अधिक मात्रा में है, लेकिन कहीं भी शुद्ध रूप नहीं है। बघेली और बुन्देली का मिश्रित रूप ही प्रचलन में है, जो बुन्देली के मिश्रित रूप के अन्तर्गत ही है। इसलिए सभी पूर्व हिस्सों के बोलीरूपों को बघेली मिश्रित बुन्देली रूप ही कह सकते हैं।

बुन्देली का दक्षिणी रूप
बुन्देली के दक्षिणी क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों के बारे में भाषावैज्ञानिकों, विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान् जहाँ इसके क्षेत्र में बैतूल, छिन्दवाड़ा, सिवनी तथा बालाघाट जिले सम्मिलित करते हैं, वहीं कुछ विद्वान इस क्षेत्रान्तर्गत बैतूल जिले को छोड़ते हैं, तो कुछ बालाघाट जिले को दक्षिणी क्षेत्र के अंतर्गत सम्मिलित नहीं करते हैं।

बैतूल जिले की बोली को मालवी के अन्तर्गत रखा है, क्योंकि इस क्षेत्र के निवासी मालवी का प्रयोग ही करते हैं। छिन्दवाड़ा जिले को, बुन्देली के दक्षिणी क्षेत्र के अंतर्गत प्रमुखता से सम्मिलित किया जाता है। इस जिले के दक्षिण में नागपुर जिला जो मराठी भाषी है, उत्तरी सीमा पर नरसिंहपुर तथा होशंगाबाद का बुन्देली क्षेत्र, पश्चिमी में मालवी का बैतूल जिला एवं पूर्व में बुन्देली भाषी सिवनी जिला है।

इसी कारण इस क्षेत्र के बुन्देली रूप की एक अजीबो-गरीब स्थिति बन गई है। सीमावर्ती क्षेत्रों को छोड़कर इसके मध्य भाग में ही बुन्देली का आधिक्य मिलता है। छिन्दवाड़ा जिले में भिन्न-भिन्न जातियों की प्रमुखता है और जन-जातियों की बोली बुन्देली होते हुए भी जातिगत विशिष्टता से सम्पृक्त है।

इस कारण बुन्देली के इस क्षेत्र में विभिन्न जातिगत रूप विद्यमान हैं। इन्हीं बुन्देली रूपों को डॉ. ग्रियर्सन ने विकृत बुन्देली रूपों की संज्ञा प्रदान की है, क्योंकि इनमें मराठी एवं बघेली के मिश्रण से अनेक नये शब्दों का निर्माण हुआ है। इस क्षेत्र में कोष्ठियों की कोष्ठी, किरारों की किरारी, कुम्हारों की कुम्हारी, ग्वालों की गाओली, रघुवंशियों की रघुवंशी जैसे बोलीरूप प्रचलित हैं।

यहाँ पर हम चौरई तहसील के कपुरधा ग्राम से प्राप्त बुन्देली का नमूना प्रस्तुत कर रहे हैं, जो बुन्देली भाषी सिवनी जिले के निकट है। यही कारण है कि यह स्थान बुन्देली के अधिक निकट है। यहाँ की बुन्देली की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं –

1- बुन्देली के भविष्यकालीन रूप – खाऊंगा-खांहूँ, करूँगा-करहूँ, जाउँगा-जाहूँ आदि यहाँ मिलते हैं। ‘हते‘ के लिए ‘हिते‘ शब्द का प्रयोग स्थानीय वैशिष्ट्य का प्रतीक है।

2- कर्मकारक विभक्ति ‘खौं‘ के स्थान पर ‘खें‘ का प्रयोग मिलता है।

3- ‘स्नान कर रही‘ के लिए ‘खैररई‘ शब्द का प्रयोग स्थान वैशिष्ट्य का प्रतीक है।

4- ‘अकारान्त‘ को ‘ओकारान्त‘ एवं ‘एकारान्त‘ का ‘ऐकारान्त‘ बुन्देली की तरह ही विद्यमान हैं।

5- बुन्देली की एक विशेषता ‘हकार‘ लोपीकरण है, परन्तु इस क्षेत्र का बोलीरूप शुद्ध बुन्देली नहीं तो बुन्देली के अधिक निकट अवश्य कहा जा सकता है।

6- लड़का के लिये टूरा, लड़की के लिये टूरी शब्द व प्रयोग।

7- बहुवचन के लिए अन प्रत्यय लगाया जाता है-दूरियों-दुरियन।

सिवनी जिले का बुन्देली रूप
सिवनी डिस्टिंक्ट गजेटियर में श्री रसेल ने इस जिले में बुन्देली बोलने वालों  की संख्या तिरपन प्रतिशत बतलायी है, शेष मराठी एवं गोंडी बोलने वाले हैं। इसके पूर्व में ‘छत्तीसगढ़ी‘- बुंदेली का प्रभाव दिखायी देता है। बाकी सीमाओं पर छत्तीसगढ़ी एवं मराठी प्रभावित बुन्देली का रूप प्राप्त होता है। सिवनी का बरघाट क्षेत्र इसी प्रकार का मिश्रित क्षेत्र है।

बालाघाट जिले का बुन्देली रूप
जैसा कि हम पूर्व में स्पष्ट कर चुके हैं कि बालाघाट जिला बुन्देली के अन्तर्गत सम्मिलित नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस क्षेत्र में मराठी मिश्रित बघेली का प्रयोग अधिक है। बालाघाट की बुन्देली के सम्बन्ध में सर ग्रियर्सन का मत है कि – ‘बालाघाट में मराठी के एक रूप के अतिरिक्त पूर्वी हिन्दी के रूप बोले जाते हैं, जो बघेली के मिश्रित रूप हैं। इस जिले के लोधी जाति के लोग जो बोली बोलते हैं, वह बुन्देली और मराठी का मिश्रित रूप है।

बालाघाट गजेटियर के लेखक सी.ई.लो के मतानुसार इस जिले के आदिवासियों के अतिरिक्त हिन्दू परिवारों की बोली मराठी मिश्रित हिन्दी है। इनमें से इस जिले में बसे पँवार बघेली और मराठी मिश्रित बुंदेली रूप बोलते हैं और लोधी बुन्देली और मराठी का मिश्रित रूप बोलते हैं।

बुन्देली के पश्चिमी रूप
बुन्देली के पश्चिमी क्षेत्र के अंतर्गत शिवपुरी, गुना और विदिशा जिले का पश्चिमी भाग, सीहोर (आष्टा तहसील छोड़कर) भोपाल की सिवनी (मालवा) एवं होशंगाबाद की हरदा तहसीलें एवं मुरैना की श्योपुर तहसील (मुरैना का पश्चिमी भाग) आते हैं। विदिशा का पश्चिमी हिस्सा सीहोर तहसील का भी पश्चिमी क्षेत्र तथा होशंगाबाद के बुन्देली हिस्से का पश्चिमी भाग मालवी की सीमाओं को स्पर्श करता है।

इसी तरह मुरैना की श्योपुर तहसील की उत्तरी एवं पश्चिमी सीमा से राजस्थान की पूर्वी सीमा, पूर्वी सीमा से मुरैना का भदावरी भाषा क्षेत्र तथा दक्षिण में राजस्थानी भाषी क्षेत्र स्थित है। इसी कारण इन सीमावर्ती बोलियों का प्रभाव बुन्देली पर है। इसी मिश्रण या प्रभाव के कारण बुन्देली ने विभिन्न क्षेत्रीय रूप धारण किये हैं। बुन्देली के पश्चिमी क्षेत्र के विभिन्न बुंदेली

बुन्देली का काव्य साहित्य 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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