बुन्देलखण्ड अंचल में सोलह संस्कार विख्यात है । बीज दोष और गर्भदोष के निवारणार्थ तथा ‘ब्राह्मीय देह’ करने के लिए यहाँ जो कर्म किये जाते हैं, उन्हें ‘संस्कार’ कहते हैं। प्रस्तुत Bundeli Janam Sanskar Parichay बुन्देलखण्ड की संस्कृति का परिचय है । जबकि महर्षि वेद व्यास जी ने सोलह संस्कारों की बात कही है । कहीं-कहीं तो मात्र दस संस्कार भी प्रचलित हैं । परन्तु गौतम ऋषि के अनुसार संस्कार चालीस कहे गए हैं और इनमें आठ आत्मीय गुण मिलाकर इनकी संख्या अड़तालीस हो जाती है। इन संस्कारों में तीन संस्कार जन्म से पहले सम्पन्न किए जाने का विधान है।
1 – गर्भाधान संस्कार
2 – पुंसवन संस्कार
3 – सीमंत संस्कार
बुन्देलखण्ड के लो जीवन में सोलह संस्कार कदाचित इसलिए प्रचलित हुए कि श्री व्यास जी महाराज का सम्बन्ध बुन्देल भूमि से है। कहा गया है- ‘यथा वेदे तथा लोके’ अत: यहाँ के लोक जीवन में व्यास जी का शास्त्रमत पाया जाना सहज स्वाभाविक है।
पहला संस्कार गर्भाधान का है। यह संस्कार स्त्री का है । स्त्री के प्रथम रजोदर्शन के समय यह संस्कार सम्पन्न होता रहा है । इसमें गणेश, नक्षत्र…आदि का पूजन, पुण्याहवाचन, मातृका पूजन, नन्दी मुख श्राद्ध … आदि आठ अंगों का विधान है । परन्तु वर्तमान में बाल विवाह की प्रथा समाज ने समाप्त कर दी, इसलिए देश-काल-परिस्थितियों के प्रभाव में यह पहला संस्कार अब विलुप्त हो चुका है।
दूसरा संस्कार है ‘पुंसवन संस्कार’ । गर्भ रहने पर यह दूसरे से आठवें महीने के मध्य कुल रीत अनुसार होता है । यह गर्भस्थ शिशु का संस्कार है, स्त्री का नहीं । इसमें स्त्री के केश विशेष प्रकार से बाँधे जाते हैं और उनमें सोमलता या वट वृक्ष की जड़ का चूर्ण लगाया जाता है। इसका उद्देश्य है कि पुत्र का ही जन्म हो। परन्तु वर्तमान में तो बेटा-बेटी एक समान माने जाते हैं । अतः पुत्र जन्म की ही भाँति पुत्री का जन्म भी उतना ही पुनीत माने जाने लगा है जितना कि पुत्र जन्म का रहा । इसलिए इस संस्कार का भी चलन बुन्देलखण्ड के लोक जीवन से अब लोप हो चुका है।
तीसरा संस्कार है- सीमंत या सीमान्तोनयन । इसमें कुशा से स्त्री की माँग सिंदूर से सँवारी जाती है । कहीं-कहीं जंघा पर जल पूर्ण घट भी रखा जाता है । इस शास्त्र सम्मत संस्कार को बुन्देलखण्ड में आगन्नों, सादें और चौक नाम से लोक जीवन में आज भी देखा जाता है । इस अवसर पर यहाँ गर्भवती स्त्री की गोद भरी जाती है। पीहर से भेंट स्वरूप नाना प्रकार की सामग्री आती है। नाते-रिश्तेदारों को नेवता देकर सादर आमंत्रित किया जाता है । इतना ही नहीं, पास- -पड़ोस और गाँव-मुहल्ले में बुलौवा दिया जाता है। महिलाएँ ढोलक बताजे हुए समवेत स्वरों में गा उठती हैं-
कोंना के अँगना जिमिरिया लहर-लहर करै हो ।
कोना की नार गरब से ललन – ललन करै हो ।
ससुरा के अँगना जिमिरिया लहर-लहर करै हो ।
राँमा की नार गरब से ललन – ललन करै हो ।
कोना के अँगना जिमिरिया लहर-लहर करै हो ।
जेठा के अँगना जिमिरिया लहर-लहर करै हो ।
इसी प्रकार क्रम से जेठ, ननदोई, देवर आदि परिजनों के नामोल्लेख के साथ गीत आगे बढ़ता चला जाता है। यह संस्कार बुन्देलखण्ड अंचल के जन-जीवन में आज विशेष पर्व जैसा वातावरण उपस्थित कर देता है । आँगन में मांगलिक चौक पूर कर पटा बिछया जाता है । गर्भवती स्त्री को उस पटे पर बैठाकर उसकी गोद भरी जाती है । आज जन्म से पहले का यह पहला संस्कार है, जिसे न केवल मनुष्य अपितु प्रकृति भी उसी उत्साह से सम्पन्न करती है। महाकवि ने अपनी अमर रचना मेघदूतम् में इसका संकेत देते हुए लिखा है
गर्भाधानक्षणपरियान्नूनमाबद्धमालाः
सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः ।
जिसे लेखक ने अपने बुन्देली पद्यानुवाद में इस प्रकार से अनूदित किया-
सादें- चौक मनाबे की भर आस,
बगुलिन पाँतें ऊँची उड़त अकास।
आसमान में उड़तन भलीं दिखायें,
सेवा कों बे पाँतें तुमतन आयँ।
अर्थात् प्रकृति में पशु- पक्षी भी इस उत्सव को अपने अनुसार सम्पन्न करते हैं। तब इस प्रथम संस्कार पर गाए जाने वाले लोक गीतों की कल्पना आज के अभिजात्य साहित्य से टक्कर लेने वाली हो तो आश्चर्य क्या ? परिवार हरा-भरा रहे, वंश – बेल आगे बढ़े। यह मनोभाव इन बुन्देलीखण्डी लोकगीतों में प्रतीकों के रूप में सहज व्यक्त होते हैं। जिमिरिया नाम की यह स्थानीय झाड़ी है जो सदाबहार हरी-भरी लहराने वाली है। नवागन्तुक शिशु जन्म आँगन में इस सदाबहार झाड़ी की तरह लहर-लहर कर हँसता खेलता रहे और वंश बेल को समृद्ध करे । दूर्वादल का प्रतीक केवड़े की भीनी सुगन्ध को इन लोकगीतों में अनूठे ढंग से पिरो दिया गया
अँगना में हरी-हरी दूबा, हरी-हरी दूबा,
घिनोंचिन केवरौ री महाराज ।
पैले- -पहर को सपनों सुनों मोरी सास जू महाराज।
चंदा-सूरज दोई भइया आँगन बिच ऊरियो जू महाराज ।
दूजे पहर कौ सपनों सूनों मोरी सास जू महाराज ।
गंगा-जमुन दोई बेंने आँगन बिच बै रई जू महाराज ।
तीजे पहर कौ सपनों सूनों मोरी सास जू महाराज ।
राम-लखन दोई भइया आँगन बिच खेल रये जू महाराज ।
होय परे री मोरे ललना ओली बिच खेल रये महाराज ।
नोंबद बाजें बधइँयाँ, आँगन बिच धूम जू महाराज ।
अँगना में हरी-हरी..
निश्चत ही लोक मन की सुखद कल्पनाएँ स्वप्नों का सहारा लेकर फूट पड़ती हैं। ज्योतिष शास्त्र में स्वप्न में देखने के काल पर विचार किया गया है। प्रथम प्रहर में देखे स्वप्न का फल क्या है? अथवा तीसरे प्रहर के स्वप्न का फल का क्या और कैसा होता है…. .. आदि बातों पर भी लोक मन का अटूट विश्वास इन लोक गीतों में फुट पड़ा है। लोक जानता है कि चौथे प्रहर में देखा हुआ स्वप्न सच हुआ करता है ।
पुत्र हो अथवा पुत्री, शिशु जन्म को लोक ने मांगलिक ही माना है । यदि पुत्र है तो वह सूर्य – चन्द्र समान कुल रूपी आँगन को आलोक से भर देने वाला हो और यदि पुत्री हुई तो वह भी गंगा-यमुना के समान कुल – आँगन की पावनता को सुरक्षित रखती हुई सुख-समृद्धि भरने वाली अवश्य है। अर्थात् लोक मन ने लड़का-लड़की को भेद दृष्टि से कभी भी नहीं देखा। उसके लिए तो दोनों ही समान हैं, राम- लक्ष्मण की तरह पूज्य ।
मात्र इतना ही नहीं, गर्भवती स्त्री को सदैव प्रसन्नचित और तनाव रहित रहने की आवश्यकता पर आज का वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं चिकित्सा जोर दे रहा है। जबकि इस सच्चाई को बुन्देलखण्ड के लोक ने बहुत पहले स्वीकार कर लिया था । इसीलिए अनादिकाल से जन्म के पहले के संस्कार आगन्नों, सादें, चौक के समय गाए जाने वाले लोक गीतों में भरपूर हास- परिहास, तकरार आदि के माध्यम से गर्भवती को प्रसन्न चित रखने वाली अभिव्यक्ति है ।
तभी तो इन लोक गीतों में श्लील और अश्लील, कु- वचन और गालियाँ, लांछन बोधक शब्दों में कडुवाहट नहीं, अपितु केवल लोक मंगल और मिठास छलक पड़ा है। इस अवसर पर सास, जेठानी, ननद, देवर… आदि सभी के प्रति लोकगीतों में अपशब्द – लांछन आदि से हास-परिहास की प्रमुखता है। देखिए आगन्ने में गर्भवती के पीहर से आने वाली सामग्री को लेकर गाया जाने वाला एक गीत-
सोंठा के लडुआ मोरे मायके से आए,
उनमें सें दो मोरी सास नें चुराए ।
हाँत पकर कें उनें कुठरिया भीतर कर दइयो
भीतर करकें तारौ – साँकर जड़ दइयो,
सोंठा के लडुआ मोरे मायके सें आए,
उनमें सें दो मोरी ननद नें चुराए ।
हाँत पकरकें उनें कुठरिया भीतर कर दइयो,
भीतर करकें तारौ -साँकर जड़ दइयो । ।…
आगन्ने में जब स्त्रियों का समूह ऐसे गीत गाता है तो गर्भवती स्त्री सुनकर मन ही मन प्रसन्न होती है । हास-परिहास के वातावरण में वह पूरी तरह तनाव रहित हो जाती है, क्योंकि वह जानती है कि यह लांछन वास्तविक सच्चाई नहीं, अपितु परिहास है, ऐसे हास-परिहास के वातावरण में गर्भवती के नौ मास कब और कैसे व्यतीत हो गए? पता नहीं चला और एक दिन प्रसूति हो गई । सोहरे – बधाईयों के लोक गीत गूँज उठे-
आज दिन सोंने कौ महाराज ।
सोने कौ सब दिन सोने की रात, कंचन- कलस धराऔ महाराज ।
गइया कौ गोबर ल्याऔ बारी सजनी, ढिकधर आँगन लिपाऔ महाराज ।
ढिकधर आँगन लिपाऔ बारी सजनी, मुतियन चौक पुराऔ महाराज ।
मुतियन चौक पुराऔ बारी सजनी, कंचन – कलस धराऔ महाराज ।
कंचन-कलस धराऔ बारी सजनी, जगमग जोत जगाऔ महाराज ।
जगमग दियल जगाऔ बारी सजनी, चंदन चौकी डराओ महाराज ।
बैठीं कौसिल्या रानी चौकी पै, सो अमृत अरघ दिवाऔ महाराज ।
सुनकर लोग आश्चर्य कर सकते हैं कि विपन्न कहा जाने वाला बुन्देलखण्ड का अंचल है । वहाँ पर सोने के कलश, मोतियों द्वारा पूरे गए चौक, अमृत का अर्ध्य भला कैसे सम्भव है? परन्तु लोक मन तो प्रतीकों में अपनी अभिव्यक्ति दिया करता है। सोने से उसका आशय है- स्वर्ण, सुवर्ण प्रतीक रूप में समृद्धि से, प्रकाशवान आभा से, ज्योति से, पवित्रता से कलश से प्रतीक है पूर्णता और मांगल्य का ।
मुतियन चौक, मुक्ता का प्रतीक है शीतलता और कांति का । गाय का गोबर – गाय देव माता है सुख- समृद्धि की दैवी शक्ति है, गोबर प्रतीक है लक्ष्मी का (करीषिणी- श्री सूक्त में वेद में देवी लक्ष्मी का विशेषण बनकर आया है) चंदन – चौकी है सुगन्धित, सुरभि । और चौकी है आधार । जगमग ज्योति-शुभ्र प्रकाश जो दुःखों के तिमिर को दूर करता है । अमृत अर्थात् मृत्यु-भय को दूर करने वाला पवित्र जल ।
इस प्रकार के प्रतीकार्थ हैं बुन्देलखण्ड के लोकगीतों के । मृत्यु जो शाश्वत है, उसका भय जन्म से ही नहीं, यहाँ के लोक जीवन में हैं, इसीलिए यहाँ के सोलह संस्कारों में मृत्यु का कोई संस्कार भी प्रचलित नहीं हुआ है। सोलह संस्कारों में सर्वाधिक संस्कार जन्म के पूर्व से जन्म के उपरान्त तक पाए जाते हैं। जिनमें जाति-कर्म का संस्कार जिसे यहाँ ‘नरा छिनाई’ का संस्कार कहते हैं। देश काल परिस्थितियों से अब प्रसूति अस्पताल में होने लगी, तो यह संस्कार भी ओझल हो गया ।
चरुआ, कुआँ पूजन, मुंडन, कनछेदन, पाटी पूजन…. आदि संस्कार जन्म से सम्बन्धित हैं, उसके बाद ही वैवाहिक संस्कार सम्पन्न कर सोलह संस्कारों को सम्पन्न किया जाता है। प्रत्येक संस्कार के पारम्परिक लोकगीत यहाँ युगों से गूँज रहे हैं । यद्यपि आज इन लोकगीतों में प्रदूषण भी आ चला है जो एक चिंता का विषय है। बुन्देली लोक जीवन के संस्कार, लोकगीत स्वयं में सब कुछ हैं।