भोर
बीरन ! हो रओ भोर, दूद-सीं डूबन लगीं तरइयाँ ।
बड़ी भुजाई ने बखरी कौ, टाल – टकोरा कर लऔं ।
माते जू के बड़े कुआ कौ, मीठा पानी भर लऔ ।
मुरगन नें दई बाँग, डरइयँन बोलीं भयाम चिरइयाँ ।
न! हो रऔ भोर दूद सीं डूबन लगीं तरइयाँ ।
मानकुँवर ने सारन को सब, कूरा करकट भर लऔं ।
दूर देत गइयँन भौंसन खौं, दन्नों दर कैं धर दऔ ।
सौकारू कर लेव गोसली लगी रमाउन गइयाँ ।
बीरन ! हो रओ भोर, दूद-सीं डूबन लगीं तरइयाँ ।
नन्नीं बउ नें दोउ भाँउन कौ, दई भाँ लऔ सबरौ ।
जुनइ रखाउन हरियन सें, डरूआ खेतन खौं डगरौ ।
कहा करइयाँ हौ आँगन में आ गई ऐन उरइयाँ ।
बीरन ! हो रओ भोर, दूद-सीं डूबन लगीं तरइयाँ ।
बेर बीनवे कड़ गऔ पनुआँ, जो त लैकें बड़ौ ढिकौला ।
चून माँगबे आ गऔ दोरें, बौ सादू, हरबोला।
उँ झूठी मानौ, हेरौ खोल किबइयाँ ।
न! हो ओ भोर, दूद-सीं डूबन लगीं तरइयाँ ।
आलस छोड़ किसान, भोर कर लेय काम जई अपनें ।
‘मित्र’ सदा बेइ सुक्ख उठावैं, मोय छोड़ नइँ कोऊ तोखौं कभऊँ जगइयाँ ।
बीरन! हो रओ भोर, दूद-सीं डूबन लगीं तरइयाँ ।
रचनाकार – रामचरण हायारण “मित्र”