बुंदेलखंड में लोक देवियों ग्राम देवताओं एवं क्षेत्र लोक पालक शक्तियों की आराधना हमेशा से होती आई है समूचे बुंदेलखंड में हर शहर कस्बा गांव-खेड़ों में Bijasen बीजासेन– के छोटे-छोटे मंदिर मडिया मिल जाएंगे घरों में चबूतरो पर स्थापित देवी देवताओं के स्थान मिल जाते हैं ।
बुन्देलखण्ड में अनेक लोक देवियों की पूजा प्रचलित है और सभी का अपना विशिष्ट महत्त्व भी है, किन्तु अन्य देवियों की अपेक्षा में बीजासेन मइया हमारी प्रमुख विवेच्य हैं । इसका कारण यह भी है कि यह देवी जितनी जिज्ञासा उत्पन्न करती है, इसके नाम एवं व्युत्पत्ति के बारे में जितने मत-मतान्तर जनुश्रुतियाँ मिलती हैं, उतनी किसी अन्य देवी के सम्बन्ध में नहीं।
बीजासेन माई की पूजा को बुन्देली महिलाएँ ‘पाटा भरना’ कहती हैं । इनके पूजन में उरैन घर के भीतर ही डाला जाता है। बीजासेन का पाटा वर्ष में एक बार या तीसरे साल सोमवार या शुक्रवार को बीजासेन की मड़िया पर जाकर भरा जाता है और फिर घर आकर सुहागनें जिमाई जाती हैं । विवाह और पुत्रजन्म पर इनकी पूजा अनिवार्य होती है । जिनके यहाँ बीजासेन पूजती हैं, उनके यहाँ चढ़ावे के साथ बीजासेन की तबिजिया चढ़ाना आवश्यक होती है ।
यह एक प्रकार का यंत्रात्मक स्वरूप है। इसमें स्वर्ण या चाँदी के पत्ते पर सात या नौ पुत्तलिकाएँ अंकित की जाती हैं, जिसमें मुखाकृति की प्रतीक गोल बिन्दुओं के साथ सीधी खड़ी लकीरें बनी रहती हैं। विवाह के समय पूजन कर यह यंत्र ताबीज की तरह स्त्रियाँ आजीवन अपने गले में धारण करती हैं । लोक विश्वास है कि जो स्त्रियाँ अपनी यह पुतरिया उतारकर रख देती हैं, उनके यहाँ कुछ न कुछ विपदा आती है।
इस पूजा में चूने से पुती दीवार पर हल्दी अथवा घी में सिन्दूर से नौ टिपकियाँ रखी जाती हैं । इन टिपकियों के ऊपर एक पुतरिया बनाई जाती है, जो बीजासेन देवी होती है । उसी के नीचे गोबर से लीपकर आटे का चौक पूरकर और पटा रखकर सवा गज का लाल कपड़ा बिछाया जाता है, जिस पर नौ चौक पूरे जाते हैं ।
उन पर चार-चार पूड़ी और उन पर मलींदा (पूड़ी का चूरा कर बनाया गया हलुवा) रखकर के नौ खूँट (कोरा ) रखे जाते हैं, उस पर नौ प्रकार की नौ-नौ वस्तुएँ रखी जाती हैं – पान के ऊपर नौ हल्दी की गाँठ, नौ साबुत सुपाड़ी, नौ नारियल के टुकड़े, नौ चिरौंजी, नौ दाख, नौ मखाने, नौ लौंग, नौ इलायची, नौ डोंडा। इसमें नौ सुहागिनें जिमाईं जाती हैं।
पूड़ी और लपसी के लिए सवा सेर आटा लिया जाता है। किन्तु विवाह और जन्म पर दोहरा पाटा भरा जाता है, तब नौ के स्थान पर अठारह खूँट रखे जाते हैं और अठारह सुहागनें जिमाई जाती हैं। सभी सुहागिनें और घर की बहुएँ – बेटियाँ अपनी-अपनी बीजासेन की पुतरिया गले से उतारकर धोकर पूजने के लिए उसी पटा पर रख देती हैं।
पाटा बीजासेन के मन्दिर में पुजारी द्वारा भरा जाता है। जिनके घर में पूजा होती है, उनके यहाँ घर की जेठी बड़ी महिला मैर के कोठे में सबसे पहले दीवाल पर बनी पुरिया को महावर लगाती है, फिर छोटी बहुएँ सुहागिनों को महावर लगाती हैं। घर की जेठी बीजासेन की पुतरिया पर जल चढ़ाकर हल्दी, रोरी, अक्षत और फूल चढ़ाती हैं, बैसॉदुर लाकर घी और धूप से हो करती हैं, अगरबत्ती और आरती जलाकर ताबीजों की पूजा करती हैं। नौ कोरों को पूजती हैं। आरती कर निम्न गीत गाती हैं-
सुहागिल रानी मोरे महल होकें जइयो
सुहागिल रानी सेंदूर तो घरैइ धरे हैं।
सुहागिल रानी माँग भराये घरै जइयो ॥
सुहागिल रानी बूंदा तो घरैइ धरे हैं।
सुहागिल रानी बूंदा लगाये घरै जइयो ॥
सुहागिल रानी बीरा तौ घरैइ धरे हैं।
सुहागिल रानी बीरा रचाय घरै जयौ ॥
सुहागिल रानी जोरौ तो घरैइ धरौ है । सुहागिल रानी जोरौ पैर घरै जइयो ॥ सुहागिल रानी चुरियाँ तो घरैइ धरी है। सुहागिल रानी चुरिया पैर घरै जइयो ॥ सुहागिल रानी माँदी तौ घरैइ धरी हैं। सुहागिल रानी माँदी रचाय घरै जइयो ॥ सुहागिल रानी माहुर तो घरैइ धरौ है । सुहागिल रानी माहुर रचाय घरै जइयो ॥ सुहागिल रानी बिछिया तौ घरैइ धरै हैं । सुहागिल रानी बिछिया पैर घरै जइयो ।
फिर सभी महिलाएँ श्रद्धा से बीजासेन मैया को सिर रखकर पैर छूती हैं। उसके बाद पूजा करने वाली जेठी महिला उनको टीका करके माँग में सिन्दूर भरकर बूँदा, चूड़ी और एक-एक कोरा देती है। सुहागिनें यह कोरा अपनी साड़ी के आँचल में लेती हैं और पूजा करने वाली जेठी के और घर की सभी बड़ी-बूढ़ियों के पैर छूती हैं।
तत्पश्चात् आमंत्रित सुहागिनें भोजन कर अपने-अपने कोरे लेकर घर चली जाती हैं, जिसमें प्रसाद – स्वरूप वितरित किया जाने वाला ‘कोरा’ केवल उन्हीं को दिया जाता है, जिनके यहाँ बीजासेन की मान्यता होती है । यह प्रसाद घर के लड़कों को ही दिया जाता है। कुँआरी लड़कियों को नहीं देते हैं और न ही वे पूजा देखती हैं और न ही उन्हें आरती और दिये की जोत देखने दी जाती है ।
पिछोर, बामोर कलां आदि गाँवों में बीजासेन के प्रसाद की बड़ी ही मान्यता है । यहाँ पर पुजारी के पाटा भर दिये जाने के बाद मन्दिर में ही सभी आमंत्रित नाते-रिश्तेदारों को भोजन कराया जाता है और वहाँ उपस्थित सभी स्त्री-पुरुषों, बालकों को मलीदे का प्रसाद दिया जाता है ।
इन गाँवों में बीजासेन के प्रसाद का बड़ा ही महत्त्व है। मालूम पड़ जाने पर कि मन्दिर में किसी का पाटा भर रहा है, बिना आमंत्रित किए हुए भी प्रसाद लेने लोग आ जाते हैं। फिर ये तो है ही कि विवाह हो जाने पर जिन लड़कियों की ससुराल में बीजासेन नहीं होती है, वे अपने मायके में आकर पाटा भरती हैं।
बीजासेन के नाम-रूप के बारे में जैसा कि पूर्व में कहा गया है, बुन्देली लोक में अनेक मत-मतान्तर मिलते हैं। प्राय: यह माना जाता है कि बीजासेन देवी की पूजा का प्रचलन पूरे बुन्देलखण्ड में है, जो ठीक नहीं हैं। बीजासेन देवी की मान्यता बुन्देलखण्ड के झाँसी – दतिया जिलों, विशेषतया ओरछा की अष्टमैया कही जाने वाली जागीरों एवं बुन्देलखण्ड से लगे मालवा के बौद्ध धर्म से प्रभावित क्षेत्रों में ही है । अन्य राजस्थान 15 आदि स्थानों पर इन्हीं क्षेत्रों से गये निवासियों के द्वारा बीजासेन की पूजा मिलती है।
बीजासेन में अंकित नौ देवियों की नौ शक्तियों को उन प्रतीकों के रूप में लिया जा सकता है, जो स्त्री में उसके सुखी दाम्पत्य जीवन, परिवार के कुशल संचालन, संतान के पालन-पोषण तथा उसकी भौतिक उन्नति के साथ ही आत्मिक-अध्यात्मिक विकास और रक्षा हेतु होना आवश्यक है, जैसे सृष्टि की धुरी आदिशक्ति है, घर की धुरी स्त्री है । माँ, पत्नी, बेटी, गृहिणी की अपनी अनेक भूमिकाओं में देवी माँ से प्रेरणा लेते हुए स्त्री परिवार व समाज के प्रति अपने अनेक दायित्वों का बखूबी निर्वाह कर सकती है।
देवी माँ का दिव्य रूप आराध्य तो है ही, साथ ही मानव जीवन को उन्नत बनाने के लिए स्त्रियों के लिए आदर्श भी है। इसीलिए विवाह जैसे महायज्ञ के अवसर पर बीजासेनी ताबीज में इन नौ देवियों का आवाहन कर उन्हें ताबीज में ‘स्थित कर’ दिया जाता है और उनका पूजन कर नववधू के गले में पहिना देते हैं, ताकि ये शक्तियाँ समय-समय पर उसमें संचरित होती रहें।
जिससे वह अपने पुरुष की शक्ति बन अपने सभी तरह के कर्त्तव्यों का निर्वाह करती हुई धर्म के साथ परिवार का कुशल संचालन कर सके। सम्भवत: इसीलिए स्त्रियों को बीजासेन की पुतरिया सदैव के लिए कहीं गोबर तो कहीं मिट्टी अथवा शक्कर की पुतलियाँ ही गले में धारण करना आवश्यक होता है ।
महिलाएँ बीजासेन देवी के इन नाम-रूपों, कारणों, धार्मिक- सामाजिक सन्दर्भों की गहराईयों, तात्त्विक विवेचनों के पचड़ों में न पड़कर परम्पराओं को निभाती हुई अपने और अपने परिवार की सुख-समृद्धि के लिए बड़े ही भक्तिभाव से माई की पूजा-अर्चना करती हैं और उलझ जाती हैं, फिर अपने रोजमर्रा के कामों में। इसीलिए प्रभावहीन हो जाता है उनका भक्तिभाव ।
बीजासेन के अतिरिक्त अन्य अनेक लोक देवियाँ हैं जिनकी शान्ति, सौभाग्य, रोगों, आपत्तियों आदि से रक्षा हेतु विभिन्न अवसरों पर पूजा होती है । इन पर अलग से शोध किये जाने की आवश्यकता