जिस वस्तु का हमें ज्ञान होता है अथवा जिसकी रचना की जाती है, उस सबको मूर्ति कहते हैं। Bhartiya Sanskriti Me Murtikala सबसे प्राचीन कला है । ऐतिहासिक काल की प्रारंभिक मूर्तिकला में हड़प्पा की मूर्तिकला से व्यापक समानता मिलती है।
Sculpture in Indian Culture
सिन्धु घाटी में पाषाण शिल्प की 11 मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। इनमें त्रिफुलिया अलंकरण से युक्त उत्तरीय ओढ़े हुए पुजारी की प्रतिमा से सभी परिचित हैं। ताम्र मूर्तियों में नर्तकी की प्रसिद्ध मूर्ति है। सिंधु घाटी की मानव मूर्तियों की अपनी अलग विशेषता है। सुमेर से प्राप्त मूर्तियों में नेत्रों की आकृति गोल है तो हड़प्पा में लम्बी और अधमुंदी पलकों वाली हैं।
मिट्टी की मूर्तियों में मनुष्यों और पशुओं की अनेक मूर्तियां हैं। सिन्धु घाटी के नगरों के बाद अशोक स्तंभों के शीर्ष Bhartiya Sanskriti Me Murtikala के प्रारंभिक उदाहरण हैं। सारनाथ के स्तंभ के प्रसिद्ध सिंह तथा रामपुरवा के स्तंभ का कम प्रसिद्ध परंतु अधिक सुंदर वृषभ, यथार्थवादी मूर्तिकारों की कृतियां हैं, जो कुछ न कुछ ईरानी और यूनानी परंपरा के ऋणी हैं।
स्तंभों पर बनी हुई पशु आकृतियां सिन्धु घाटी की मुद्राएं खोदने वालों की शैली से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित थी, जिनमें एक यथार्थवादी दृष्टिकोण भी मिलता है। सजीव स्थिति में पशु, बुद्ध तथा मौर्य विश्व सम्राट का प्रतिनिधित्व करने वाले चक्र, फूल पत्तियों से बनी चित्राकृतियां, जिनमें आदर्शभूत भारतीय विचार पश्चिम से लिए गए विचारों के साथ प्रकट किए गए हैं।
स्तंभों के अतिरिक्त मौर्य शैली के कुछ अन्य स्मारक हैं, जिनमें उत्कृष्ट पॉलिश और फिनिशिंग है। हाथ में चंवर से युक्त दीदारगंज की यक्षी में मौर्य शैली की विशिष्ट चमकदार पॉलिश है। लोककला की परंपरा का प्रमाण उन महाकाय यक्ष Bhartiya Sanskriti Me Murtikala द्वारा प्राप्त होता है, जो मथुरा से उड़ीसा, वाराणसी से विदिशा और पाटलिपुत्र से शूर्पारक तक के विस्तृत क्षेत्र में पाई जाती हैं।
मथुरा से प्राप्त परखम यक्ष की मूर्ति तथा पटना के दीदारगंज से मिली आदमकद यक्षी प्रतिमा विशेष उल्लेखनीय हैं। सबसे महत्वपूर्ण परखम यक्ष जैसी महाप्राण और बलशाली मूर्तियां थीं। मथुरा की महाकाय बोधिसत्व मूर्तियों का विकास परखम यक्ष जैसी महाप्राण यक्ष मूर्तियों से हुआ। कला की दृष्टि से भी परखम यक्ष और सारनाथ बोधिसत्व की शैली में बहुत सादृश्य है।
यक्ष मूर्तियों के कलात्मक सौन्दर्य आश्चर्यजनक शारीरिक बल की प्रतीक हैं, जिनका प्रभाव इनकी शिल्पगत अपरिष्कृतता से कुंठित नहीं होता। इनकी कला पुरुष प्राकृतिक है, जिसमें पशुओं जैसी दृढ़ता है, कहीं भी आध्यात्मिकता या अन्तर्मुखी वृत्ति नहीं है और न इनमें विचार प्रवणता या आन्तरिक भावों की कोई झलक है। शैली की दृष्टि ये मूर्तियां महाप्राण या महाकाय हैं।
उत्तरी भारत में मथुरा कला का बड़ा केन्द्र था। सांची, सारनाथ, कौशाम्बी, श्रावस्ती, पंजाब, राजस्थान का बैराट प्रदेश, बंगाल, अहिच्छत्र, कोसम आदि स्थानों में मथुरा के लाल चकत्तेदार पत्थर की मूर्तियां पाई गई हैं। मथुरा बौद्ध, जैन और सनातन तीनों धर्मों का केन्द्र था, अतः तीनों कलाओं के अवशेष वहां मिले हैं।
उत्तर मौर्यकाल में भरहुत, गया और सांची के बौद्ध स्थलों की पाषाण वेष्टिनियां और प्रवेश द्वारों पर खुदी यक्षों-यक्षिणियों की मूर्तियां हैं। सांची स्तूप में हाथी दांत पर कार्य कुशलता, बुद्ध एवं जातक कथाओं के चित्र, हाथी व घोड़ों पर सवार निकलते जुलूस, मन्दिर में पूजा करते स्त्री पुरुष, जंगलों में घूमते हाथी, शेर, मोर, यक्षी, नाग, पौराणिक कथाओं में वर्णित पशु और अलंकारों से युक्त पुष्पों की चित्रकारी आदि प्रमुख हैं।
भरहुत, गया और सांची में और वस्तुतः इस समय की समस्त बौद्ध मूर्तिकला में स्वयं बुद्ध का प्रदर्शन कभी नहीं किया गया है। एक चक्र, रिक्त राजसिंहासन, चरण चिन्हों अथवा एक पीपल वृक्ष जैसे संकेतों द्वारा उन्हें प्रकट किया गया है।
कुषाण राजाओं के समय में विकसित गांधार और मथुरा शैली के अन्तर्गत बुद्ध और बोधिसत्वों की सुंदर मूर्तियों का निर्माण हुआ। जैन तीर्थंकरों की भी अनेक मूर्तियां बनीं। ये दो प्रकार की हैं- एक खड़ी हुई और दूसरी बैठी मुद्रा में।
मथुरा शैली की उत्तरकालीन मूर्तियों में सौन्दर्य और धार्मिक भावना का विकास दिखाई देता है। मथुरा शैली नेप्रारंभिक शताब्दियों की हृष्टपुष्ट यक्ष मूर्तियों तथा ध्यानावस्थित जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों से प्रेरणा प्राप्त की। मथुरा की जैन कला की एक प्रमुख विशेषता थी आयागपट्ट (पूजा शिलाएं)। स्तूप के चतुर्दिक इस प्रकार की पूजा शिलाएं स्थापित की जाती थीं।
कला की दृष्टि से ये अत्यंत सुन्दर हैं। मथुरा कला के वेदिका स्तंभों की शालभंजिकाएं उद्यान क्रीड़ा और सलिल क्रीड़ा की विविध मुद्राओं में दिखाई गई हैं। जैन वेदिका स्तंभों पर बनी हुई शालभंजिका मूर्तियां वैसी ही मुद्राओं में हैं, जैसी बौद्ध स्तूपों में। गांधार और मथुरा से प्राप्त बुद्ध की बहुसंख्यक मूर्तियों में एकभी कनिष्क से पूर्वकाल की नहीं है।
कुषाण काल के आरंभ में सनातन धर्म के देवताओं की अनेक मूर्तियां मथुरा शिल्प में बनाई जाने लगीं। धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ी और गुप्त काल में अपने पूरे विकास पर पहुंच गई। गांधार शैली रोमन कला से प्रभावित है। स्वात, काबुल और सिंधु इन तीन नदियों की द्रोणियों में घिरा हुआ प्रदेश गांधार था। इसके सात केन्द्र थे- तक्षशिला, पुष्कलावती, नगरहार, स्वात घाटी, कपिशा, बामियां, वाह्लीक या बैक्ट्रिया।
गांधार कला की मूर्तियों की विशेषताएं हैं- बुद्ध के जीवन की घटनाएं, बुद्ध और बोधिसत्वों की मूर्तियां, जातक कथाएं, यूनानी देवी देवताओं और गाथाओं के दृश्य, भारतीय देवता और देवियां, वास्तु सम्बन्धी विदेशी विन्यास, भारतीय अलंकरण एवं यूनानी, ईरानी और भारतीय अभिप्राय एवं अलंकरण।
गांधार कला में बुद्ध की जीवन घटनाओं के शिलापट्ट अत्यधिक हैं। बुद्ध की जीवन लीला और जातक कथाओं का अंकन मध्यदेश की कला से ग्रहण करने के साथ-साथ गांधार के शिल्पियों ने ईरानी और यूनानी कला के अनेक प्रभाव और अलंकरण स्वीकार किए। स्वभावतः इसमें भारत, ईरान एवं यूनान, रोम की कलाओं के प्रभावों का सम्मिलन हुआ।
इस कला में मथुरा कला से कुछ अभिप्राय लेते हुए शालभंजिका मुद्रा में खड़ी वृक्षका स्त्रियों का भी अंकन किया गया। गचकारी के मस्तक और बुद्ध तथा बोधिसत्व की मूर्तियां बहुत प्रशंसित हुईं। उनमें से कुछ उतनी ही श्रेष्ठ हैं, जितनी बुद्ध कला की सर्वोत्तम मूर्तियां। गांधार शैली के इस स्वरूप का उत्थान चौथी-पांचवीं शताब्दी में हुआ।
भाजा की गुफा में और उड़ीसा में उदयगिरि में प्राप्त अत्यंत प्राचीन मूर्तियां हैं। सातवाहन काल (दूसरी से तीसरी शताब्दी) में अमरावती के स्तूप में उत्कीर्ण बुद्ध के जीवन के दृश्य हैं और उनके चारों ओर मुक्त रूप से खड़ी हुई बुद्ध की आकृतियां हैं। चौथी से छठी तथा सातवीं शताब्दियों का उत्तरार्द्ध गुप्तकाल में सम्मिलित किया जाता है।
इसी समय भारत ने अपनी कुछ वास्तविक धार्मिक कलाकृतियों की रचना की, विशेष रूप से सारनाथ की सुन्दर बुद्ध मूर्तियों की। इनके अलावा गुप्त कालीन ग्वालियर, झांसी की उत्कृष्ट शैली, हिन्दू देवता तथा पौराणिक दृश्यों से युक्त देवगढ़ के मन्दिर की नक्काशीदार मूर्तियां, उदयगिरि की एक गुफा के प्रवेशद्वार पर नक्काशीदार रूप में उत्कीर्ण बाराह की मूर्ति, आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक बिहार और बंगाल के पाल व सेन राजाओं के शासन में स्थानीय काले पत्थर से निर्मित सुन्दर मूर्तियां, उड़ीसा में भुवनेश्वर तथा कोणार्क की सुन्दर मूर्तियां, खजुराहो के मन्दिरों की युगल मूर्तियां प्रमुख हैं।
दक्षिण में ऐहोल और बादामी के मन्दिरों में पांचवीं शताब्दी और उसके आगे की उत्कृष्ट कलाकृतियां हैं। कांची के पल्लव राजाओं द्वारा निर्मित मामल्लपुरम की मूर्तियां, जिनमें सबसे अद्भुत गंगावतरण की विशाल उभरी हुई आकृति है तथा अन्य सुन्दर उभरी हुई मूर्तियां हैं। मामल्लपुरम, एलोरा और एलीफैंटा के बाद पाषाण की अनेक मूर्तियां निर्मित हुईं, परंतु प्रायः अधिक श्रेष्ठ होते हुए भी उनमें प्रारंभिक शैलियों की गंभीरता एवं सौन्दर्य का अभाव है।
भारतीय कला में मिट्टी की मूर्तियों का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी सामग्री बहुत है और प्राचीन भी है तथा मूर्तियों में ढाले गए विषय भी विविध प्रकार के हैं। सिन्धु सभ्यता से लेकर विभिन्न कालों में इन मूर्तियों और खिलौनों का प्रचलन रहा है। उत्तरी भारत के कई ऐतिहासिक स्थानों की खुदाई में मनुष्य और पशुओं की आकृति के बहुत से खिलौने और बड़ी मूर्तियां भी मिली हैं।
महाभारत और उत्तरकालीन साहित्य में मृण्मय मूर्तियों के उल्लेख पाए जाते हैं। मार्कण्डेय पुराण में दुर्गा की मिट्टी की मूर्ति का उल्लेख है। गुप्त काल में कला की दृष्टि से सुन्दर खिलौने बनते थे। पत्थर की प्रतिमाओं के समान ही बड़े आकार की मिट्टी की मूर्तियां भी बनाई जाने लगीं।
मिट्टी के सबसे प्राचीन खिलौने लगभग 2500 ई.पू. हड़प्पा सभ्यता में पाए गए हैं, जिनके निर्माण में साँचों का प्रयोग नहीं हुआ है। इनमें स्त्री मूर्तियाँ और पशु-पक्षी के रूप हैं। स्त्री मूर्तियाँ मातृदेवी की हैं। मातृ मूर्तियों की यह परंपरा सिन्धु युग के बाद भी चलती रही। मथुरा, अहिच्छत्र, कौशाम्बी, तक्षशिला आदि स्थानों से मौर्य,शुंग युग की पुरानी मातृ मूर्तियाँ मिली हैं, वे उसी परंपरा में हैं।
ऐतिहासिक युग के खिलौने सिन्धु काल से लगभग दो सहस्र वर्ष बाद के हैं, फिर भी शैली और विषय की दृष्टि से अपने पूर्ववर्ती खिलौनों से सम्बन्धित हैं। मौर्य युग के वास्तविक खिलौनों की प्रामाणिक सामग्री सीमित है। इनमें सबसे विशिष्ट वे मूर्तियाँ हैं जो पाटलिपुत्र से मिली थीं और विशेष प्रकार की प्रभावशाली नर्तकी या नाट्य स्त्रियों की मुद्रा में हैं।
शुंग काल से साँचे मिलते हैं और तीसरी दूसरी शताब्दी ई. पू. के लगभग साँचे काम में आने लगे थे। बसाढ़ (वैशाली), कोसम(कौशाम्बी) शुंग कालीन खिलौनों के प्रमुख केन्द्र थे। शक.सातवाहन युग (प्रथम द्वितीय शताब्दी) में दक्षिणापथ में मिट््टी की मूर्तियों में विशेष सौन्दर्य दिखाई देता है।गुप्त युग के आरंभ से उत्तर भारत के अनेक केन्दों में कलात्मक मूर्तियां बनने लगीं। इनमें सनातन धर्म संबन्धी देवी देवताओं की मूर्तियां, सुन्दर स्त्री-पुरुषों की मूर्तियों से अंकित टिकरे या मस्तक जो सांचों से बने हैं तथा पौराणिक आख्यानों और अलंकरण के विषय से संबन्धित फलक प्रमुख हैं।