प्राचीन भारतीय कला को उसकी विशेषताओं के आधार पर धार्मिक और लौकिक दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। प्राचीन भारत के लगभग समस्त कलात्मक अवशेषों का स्वरूप धार्मिक है अथवा उनकी रचना धार्मिक उद्देश्यो से हुई थी। अर्थात आदिकाल से ही Bhartiya Kala Ka Swaroop धार्मिक ही था ।
form of Indian Art
धर्मनिरपेक्ष कला भी अवश्य ही थी, क्योंकि हमें साहित्य से ज्ञात होता है कि राजा लोग सुन्दर भित्ति चित्रों एवं मूर्तियों से सुसज्जित महलों में निवास करते थे। यद्यपि ज्यादातर नष्ट हो गए हैं। लेकिन कहीं – कहीं उनके अवशेष आज भी देखने को मिल जाते हैं ।
अधिकतर भारतीय एवं यूरोपीय विशेषज्ञों ने भारतीय कला के धार्मिक एवं रहस्यात्मक स्वरूप पर एक समान बल दिया है। प्रारंभिक मूर्तिकला के यथार्थवाद एवं लौकिकता को स्वीकार करते हुए अधिकांश आलोचकों ने हमारे समय के कलात्मक अवशेषों में वेदान्त अथवा बौद्ध धर्म के सत्यों को पढ़ा है और उन्हें गहन धार्मिक अनुभूति की अभिव्यक्ति के रूप में स्वीकार किया है।
कुछ अवशेष तो ऐसी धार्मिक भावना से परिपूर्ण हैं, जो संसार में दुर्लभ है, परंतु प्राचीन भारत की कला में उस काल का पूर्ण एवं क्रियात्मक जीवन ही मुख्य रूप से प्रतिबिम्बित है। प्रारम्भ में प्रत्यक्ष रूप में जैसे कि भरहुत, सांची और अमरावती में और फिर कुछ आदर्शवादिता के साथ जैसे अजन्ता में और अन्त में मध्ययुगों में अनेक मन्दिरों में निर्मित दैवी एवं मानवी असंख्य प्रतिमाओं के रूप में एक अत्यधिक चेतन शक्ति है जो हमें Bhartiya Kala Ka Swaroop परलोक की अपेक्षा इसी लोक का अधिक स्मरण कराती है।
मन्दिरों के शिखर यद्यपि लम्बे हैं पर वे दृढ़ता से भूमि पर आधारित हैं। आदर्श रूप अनियमित रूप से लम्बे न होकर नाटे तथा गठीले हैं। देवता एक समान युवा और सुन्दर हैं। उनके शरीर स्वस्थ एवं परिपुष्ट हैं। कभी-कभी वे क्रूर अथवा क्रोधपूर्ण मुद्रा में चित्रित किए जाते हैं, परन्तु सामान्य रूप से मुस्कुराते हैं तथा उनमें दुख का चित्रण बहुत ही कम है।
नृत्य करते हुए शिव के अतिरिक्त अन्य पवित्र प्रतिमाओं को बैठे हुए दिखाया गया है। समस्त भारतीय मन्दिरों की मूर्तियों में, चाहे हिन्दू हों, बौद्ध हों या जैन सदैव कम वस्त्रों से युक्त तथा लगभग भारतीय सौन्दर्य के स्तर के अनुरूप नारी रूप का उपयोग साजसज्जा की सामग्री के लिए किया गया है।
प्राचीन भारत की कला उसके धार्मिक साहित्य से विलक्षण रूप में भिन्न है। एक ओर जहां साहित्य व्यवसायों में संलग्न व्यक्तियों , ब्राह्मणों, मुनियों और सन्यासियों का कार्य है तो दूसरी ओर कला मुख्य रूप से उन धर्मनिरपेक्ष कलाकारों के हाथ से निर्मित हुई, जिन्होंने यद्यपि पुरोहितों के आदेश तथा बढ़ते हुए मूर्ति निर्माण सम्बन्धी शास्त्रीय मानकों के अनुसार कार्य किया, फिर भी वे उस संसार से प्रेम करते थे जिसे वे इतनी गहराई से जानते थे, जो प्रायः Bhartiya Kala Ka Swaroop धार्मिक रूपों में देखा है जिनमें उन्होंने आत्माभिव्यक्ति की।
भारतीय कला की सामान्य प्रेरणा परमात्मा की खोज में उतनी नहीं है, जितनी कि कलाकार द्वारा प्राप्त संसार के आनन्द में तथा पृथ्वी पर जीवित प्राणियों के विकास के समान नियमित और चेतन शक्ति युक्त विकास और गति की भावना में है। भारतीय विचारधारा के अनुसार रूप वही अच्छा है जो अपने प्रतिरूप का अधिकतम परिचय दे सके। भारतीय शिल्पी ने व्यक्तियों की प्रतिकृति या रूपों से मोह करना नहीं सीखा। उसके शिल्प का निर्माण बहुधा उस भाव जगत में होता है, जिसमें वह सर्वरूप का ध्यान करता है।
युग विशेष में स्त्री-पुरुषों के प्रतिमानित सौन्दर्य का ध्यान करके भारतीय शिल्पी उसे चित्र या शिल्प में प्रयुक्त करता है। व्यक्ति विशेष के रूप को वह अपने चित्र में नहीं उतारता। वह समाज में आदर्श सब रूपों का एक बिम्ब कल्पित करता है। मथुरा की यक्षी प्रतिमाएं स्त्री विशेष की प्रतिकृति नहीं , नारी जगत की आदर्श प्रतिकृति हैं, जो उस देश और उस काल में शिल्पी के मन में उभर कर आया , वही इन रूपों में मूर्त हुआ है।
इसी प्रकार बुद्ध मूर्ति देश काल में जन्मे हुए ऐतिहासिक गौतम की प्रतिकृति नहीं है। वह तो दिव्य भावों से सम्पन्न रूप है। योगी के अध्यात्म गुणों से युक्त पुरुष की जो आदर्श आकृति हो सकती है, वही बुद्ध की मूर्ति है। आदर्श मानव का रूप ही भारतीय शिल्प और चित्र में पूजित हुआ है। गुप्त कला में बाह्य रूप की पूर्ण मात्रा को अनुप्राणित करने वाला जो अर्थसौन्दर्य है, वह अद्भुत या विलक्षण रूप प्रस्तुत करता है। कलाकृतियों में जो रमणीयता, सजीवता और आकर्षण है, उसमें मन दिव्य भावों के लोक में विलक्षण आनन्द, शान्ति और प्रकाश का अनुभव करता है।