परिवार सभी समाजों में एक प्रमुख सामाजिक संस्था है, जो इसे एक सांस्कृतिक सार्वभौमिक बनाती है। परिवार समाज की एक ईकाई है। परिवारों से मिलकर ही समाज का निर्माण होता है और समाज से मिलकर ही राष्ट्र का निर्माण होता है। अगर परिवार के सभी सदस्य स्वस्थ और खुराहाल होंगे, तो समाज भी खुशहाल होगा। पारिवारिक सुख-शांति के लिए परिवार के सदस्यों के मध्य आपसी स्नेह, विश्वास और सम्मान आवश्यक है।
भारतीय समाज में परिवार
परिवार व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक कल्याण में एक अपरिहार्य भूमिका निभाता है। परिवार समुदायों और व्यक्तियों को प्रभावित करता है और समाज में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान है। लोग परिवार से सामाजिक भूमिकाएँ और जिम्मेदारियाँ सीखते हैं। समाज में काफी बदलाव हो रहे हैं और इसी तरह परिवार को भी अपनी यात्रा में बाधाओं का सामना करना पड़ता है। व्यक्ति की समाजशास्त्रीय मानसिकता को विकसित करने में परिवार की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। एक संस्था के रूप में परिवार’ सदस्यों के बीच समझ और सहयोग के महत्त्व के बारे में जरूरी जानकारी देता है।
अगस्त काम्टे ने परिवार को समाज की आधारभूत ईकाई कहा है। परिवार मनुष्य के जीवन का बुनियादी पहलू है। भारत में तो परिवार का और भी महत्त्व है क्योंकि आदिकाल से ही यह बुजुर्गों का मुख्य आश्रय रहा है, जो उनकी भावात्मक, शारीरिक और आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
भारत में दो प्रकार की परिवार व्यवस्था प्रचलित है
1- संयुक्त परिवार
2- एकल परिवार
संयुक्त परिवार व्यवस्था में बुजुर्गों को अपेक्षानुरूप सुरक्षा, सम्मान, आत्मीयता और मानसिक संतुष्टि प्राप्त थी। संयुक्त पूँजी, संयुक्त निवास तथा संयुक्त उत्तरदायित्व के कारण आर्थिक सुरक्षा होने तथा परिवार की सत्ता बुजुर्ग व्यक्तियों के हाथों में केंद्रित होने के कारण परिवार में उनका प्रभुत्व था। परंतु वर्तमान में उनके स्थान पर एकाकी परिवारों का प्रचलन बढ़ा है, जो युवा पीढ़ी के लिए उपयुक्त व सुविधाजनक सिद्ध हो रहा है। संयुक्त परिवार के टूटने का महत्त्वपूर्ण कारण प्रतिदिन बढ़ता हुआ उपभोक्तवाद है, जिसने मनुष्य को अधिक महत्त्वाकांक्षी बना दिया है।
विभिन्न विद्वानों ने संयुक्त परिवार की विविध संकल्पनाएँ दी है। इरावती कर्वे के अनुसार (1983 : 21) – “परंपरागत प्राचीन भारतीय परिवार (वैदिक और महाकाव्य युग) निवास, संपत्ति और कार्यों (Functions) में संयुक्त था। उसने संयुक्त परिवार की पाँच विशेषताएँ बताई हैं – सह-निवास, सह-रसोई, सह-सम्पति, सह-परिवार पूजा और कोई नातेदारी संबंध। इस आधार पर उसने संयुक्त परिवार की इस प्रकार दी है : व्यक्तियों का समूह जो सामान्यतः एक ही छत के नीचे रहते हैं, एक ही चूल्हे पर पका भोजन करते हैं, सम्पत्ति में समान हिस्सा रखते हैं, पारिवारिक पूजा अर्चना में समान रूप से भाग लेते हैं और एक दूसरे से किसी प्रकार के बंधु (kindred) संबंध रखते हैं।”
(राम आहूजा, भारतीय समाज, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, संस्करण 2022, पृष्ठ 93)
एकल परिवार से तात्पर्य केवल पति-पत्नी और उनके बच्चे से है, एकल परिवारों के प्रति बढ़ती दिलचस्पी के पीछे सबसे बड़ा कारण है पति-पत्नी दोनों अब आर्थिक रूप से स्वतंत्र रहना चाहते हैं, खुद से संबंधित किसी भी मसले में दूसरे व्यक्ति का हस्तक्षेप सहन पसंद नहीं करते, उनके इस अति महत्त्वाकांक्षी निर्णय का सबसे बड़ा नुकसान यही है कि वे परिवार की अखंडता और एकता पर बहुत गहरा प्रहार कर रहे हैं।
भारतीय समाज में विवाह व्यवस्था
भारत के सभी विद्याशास्त्री हिन्दू विवाह को एक संस्कार मानते हैं क्योंकि हिन्दू धर्म में 16 संस्कारों (षोडश संस्कार) का उल्लेख किया गया है, जो मानव को उसके गर्भाधान संस्कार से लेकर अन्त्येष्टि क्रिया तक किए जाते हैं। इनमें से विवाह, यज्ञोपवीत इत्यादि संस्कार बड़े धूमधाम से मनाए जाते हैं। जिसके धर्म (धार्मिक कर्त्तव्यों की पूर्ति), रति (यौन संतुष्टि) और प्रजा (प्रजनन) तीन उद्देश्य हैं।
धर्म के लिए किया गया विवाह ‘धार्मिक विवाह’ कहलाता है, जबकि यौन सुख के लिए किया गया विवाह ‘अधार्मिक विवाह’ कहलाता है। हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख हैं – ब्रह्म, देव, आर्ष, प्रजापत्य, असुर, गन्धर्व, राक्षस और पैशाच विवाह। वैदिक काल में ये सभी प्रचलित थे। समय के साथ इनका स्वरूप बदलता गया। वैदिक काल से पहले जब हमारा समाज संगठित नहीं हुआ करता था तो उस समय उच्छृंखल यौनाचार था। हमारे मनीषियों ने इस उच्छृंखलता को समाप्त करने के लिए विवाह संस्कार की स्थापना करके समाज को संगठित एवं नियमबद्ध करने प्रयास किया। आज उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हमारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत है।
हिन्दू धर्म में विवाह को पवित्र संस्कार माना जाता है। वेदों में कहा गया है कि विवाह दो शरीर, दो मन, दो हृदय, दो प्राण और दो आत्माओं के मिलन का पवित्र संस्कार है।
अतः इस प्रकार कहा जा सकता है कि विवाह केवल शारीरिक सुख के लिए नहीं होता। बल्कि विवाह एक-दूसरे के सुख-दुख, हँसी-खुशी का हिस्सा बनना है। एक-दूसरे का जीवनभर ध्यान रखना है। एक-दूसरे का सदा के लिए हो जाना है।
भारतीय मनीषियों ने विवाह को पवित्र माने जाने के अनेक कारण बताए गए हैं –
1- धर्म विवाह का सर्वोच्च उद्देश्य हैं।
2- विवाह समारोह में कुछ संस्कार शामिल हैं। जैसे – हवन, कन्यादान, पाणिग्रहण, सप्तपदी आदि, जिन्हें पवित्र माना जाता है।
3- यह संस्कार पवित्र ब्राह्मणों द्वारा पवित्र वेद ग्रन्थों से मंत्रोच्चारण के साथ पवित्र अग्नि देव के समक्ष सम्पन्न होते हैं।
4- संयोग (बन्धन) (स्त्री पुरुष के बीच) अटूट व अटल माना जाता है।
5- स्त्री की पवित्रता और पुरुष की बफादारी पर बल दिया जाता है।
आज भी विवाह की पवित्रता इस सत्य के बाबजूद भी मानी जाती है कि विवाह सहचारिता के लिए होता है, न कि कर्त्तव्यों के पालन के लिए और जब यह असफल हो तो यह तलाक द्वारा विच्छेदित माना जाए। परस्पर विश्वास और साथी के प्रति बफादारी आज भी विवाह के आवश्यक हैं।
हिन्दू विवाह में गठबंधन को विवाह का प्रतीक माना जाता है। यह गठबंधन ही इस बात को दर्शाता है या बताता है कि वर-वधु जीवनभर के लिए एक-दूसरे के हो गए हैं। साथ ही वर-वधु पर इस बात की जिम्मेदारी भी होती है कि वे इस गठबंधन को कभी टूटने नहीं देंगे। चाहे कुछ भी हो जाए, वे सदा एक-दूसरे का साथ देंगे।
गठबंधन के समय वर के गठबंधन में सिक्का, हल्दी, अक्षत, पुष्प, दूब इत्यादि रखकर वधू के से गांठ बांधी जाती है। सिक्का रखने का अर्थ यह है कि धन पर केवल एक व्यक्ति का ही अधिकार नहीं होगा। बल्कि घर में आने वाले धन के पति और पत्नी समान रूप से अधिकारी होंगे। फूल इस बात के प्रतीक के तौर पर रखा जाता है कि पति-पत्नी सदैव एक-दूसरे को देखकर प्रसन्न होते रहेंगे। हल्दी सेहत, दूब हरियाली, अक्षत अन्न को दर्शाते हैं। ऐसी ही अन्य परंपराओं से विवाह पवित्र संस्कार बन जाता है।
राम आहूजा हिन्दू विवाह की विवेचना करते हुए लिखते हैं –
“सरल शब्दों में, हिन्दू संस्कृति में आध्यात्मिक के लिए स्त्री पुरुष के बीच आत्मिक बन्धन है। हिन्दू संस्कृति ब्रह्म विवाह के अतिरिक्त अपेक्षाकृत कम और निम्न आदर्शो वाले विवाह के सात अन्य स्वरूपों को भी मानती है। इनमें से चार विवाहो को अधार्मिक विवाह की संज्ञा दी जाती है।”
विवाह के ये चार अधार्मिक विवाह इस प्रकार हैं – गन्धर्व विवाह (समाज की मान्यता से पूर्व ही यौन व्यवहार में प्रवेश), असुर विवाह (स्त्री को भगा ले जाना), राक्षस विवाह (स्त्री को घर से जबर्दस्ती ले जाना) और पैशाच (सोई हुई स्त्री को नशे में या असंतुलित मस्तिष्क अवस्था में गलत व्यवहार करना)।
(राम आहूजा, भारतीय समाज, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, संस्करण 2022, पृष्ठ 107)
शेष तीन जिन्हें धार्मिक माना गया है – देव विवाह (स्त्री का विवाह किसी पुजारी, धनवान या बुद्धिमान व्यक्ति से करना, जो कुलीन वर्ग का हो), प्रजापत्य विवाह (यौन तुष्टि और संतान के जैविक कार्यों के उद्देश्य से संपन्न विवाह) और आर्ष विवाह (बुद्धिमान व चरित्रवान व्यक्ति से विवाह (ऋषि) जो कि विवाह का इच्छुक न हो ताकि बुद्धिमान संतान प्राप्त कर सकें और अच्छा घरेलू वातावरण प्राप्त कर सकें।
हमारे हिन्दू समाज में जीवनसाथी को चुनने की तीन अवधारणाएँ प्रचलित हैं –
1- अन्तर्विवाह – सामाजिक कानून के अनुसार व्यक्ति को अपनी ही जाति या उपजाति में से जीवनसाथी का चयन करना पड़ता है।
2- बहिर्विवाह – सगोत्र और सपिंड समूह से चयन का निषेध करता है अर्थात् चचेरा, ममेरा, फुफेरा या मौसेरा सहोदरज-संतति का विवाह नहीं होता।
3- अनुलोम विवाह – इसमें उच्च जाति का लड़का निम्न जाति की लड़की से तथा लड़की इसके विपरीत विवाह कर सकती है।
प्राचीन काल के विवाह की बात करें तो उस समय जीवनसाथी का चुनाव माता-पिता तथा परिवार के बड़े सदस्यों की सहमति से होता था। परन्तु वर्तमान में विवाह व्यवस्था में अब परिवर्तन हुए हैं। अब बच्चे सम्मिलित चयन में विश्वास करते हैं, जिसमें माता-पिता व बच्चे शामिल हों। यद्यपि व्यक्तिगत चयन के मामले भी अब कुछ काम नहीं है यानी बच्चों के द्वारा स्वयं चयन।
माता-पिता द्वारा चयन में परिवार-प्रस्थिति, संस्कार, जाति, दहेजू आदि को महत्त्व दिया जाता है, जबकि बच्चे शिक्षा, चरित्र, शारीरिक रूप-रंग, दक्षताएँ एवं गुणों को महत्त्व देते हैं। हमारे भारतीय समाज में विवाह की परम्परा बहुत ही अनोखी और पवित्र है।
भारतीय समाज में नातेदारी व्यवस्था
राम आहूजा नातेदारी व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं –
“हमारे समाज में नातेदारी व्यवस्था का अर्थ है, प्रस्थितियों और भूमिकाओं और सम्बन्धों की एक ऐसी संचरित व्यवस्था जिसमें नातेदार (प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक व दूरस्थ ) जटिल श्रृंखलाबद्ध बन्धनों द्वारा परस्पर परस्पर बंधे रहते हैं।”
नातेदारों या रिश्तेदारों के बीच संबंधों को बताने वाला पारस्परिक व्यवहार ऐसे शब्दों से संगिप्त होता है, जिनके द्वारा प्रत्येक नातेदार एक-दूसरे को सम्बोधित करता है अर्थात् व्यक्तिगत नाम से या नातेदारी की शब्दावली से जैसे – पिताजी, दादाजी, बहिनजी या व्यक्ति व नातेदारी शब्दावली के सम्मिलित नाम से जैसे – राम के पिता, रीता की माँ आदि।
नातेदारी की शब्दावली भी कई प्रकार की है। जैसे –
1- प्रारंभिक – जिन्हें किन्हीं अन्य शब्द में कम नहीं किया जा सकता। जैसे – माता, पिता, काका, चाचा भाई बहन आदि।
2- यौगिक – जो प्रारम्भिक शब्द के योग से बना हो। जैसे – बहनोई, मौसा आदि।
3- वर्णात्मक – जो दो या अधिक प्रारम्भिक शब्दों के मेल से बना हो। जैसे – मौसेरी बहन, फुफेरा भाई आदि।
4- एकाकी – जो एक ही नातेदारी पर लागू होता है, जो कि पीढ़ी, लिंग और वंश-सम्बन्धों से जाने जाते हों। जैसे – भाई, बहिन, पति, पत्नी आदि।
( राम आहूजा, भारतीय समाज, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, संस्करण 2022, पृष्ठ 115)
5- वर्गात्मक – जो दो या दो से अधिक नातेदारी श्रेणी के लोगों पर लागू होते हैं। जैसे – ‘सम्भ्राता’ पिता के भाईयों के पुत्रों और माता की बहिन के पुत्रों, दोनों के लिए प्रयुक्त। क्योंकि वर्गात्मक शब्दावली एक या अधिक मूल आधार की अवहेलना करते हैं। जैसे – लिंग, आयु, पीढ़ी, दाम्पत्य मूलक निकटता, सह सम्बद्धता, विभाजन आदि। अतः नातेदारों की श्रेणियों की संख्या हजारों से कुछ गिनी-चुनी संख्या तक ही सीमित कर देते हैं।
हिन्दुओं के सामाजिक समारोहों, संस्कारों और दैनिक जीवन में परिवार के बाद नातेदारी समूह ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जीवन के संकटकाल में ही लोग केवल नातेदारों की ओर नहीं देखते हैं, बल्कि अन्य निर्यागत अवसरों पर भी उनकी सहायता लेते हैं।
विभिन्न परिक्षेत्रों में नातेदारी की विशेषताएँ
राम आहूजा ने विभिन्न परिक्षेत्रों में नातेदारी की विशेषताएँ इस प्रकार बताईं हैं –
उत्तर परिक्षेत्र – उत्तरी परिक्षेत्र में नातेदारी की विशेषताएँ दक्षिण भारत और मध्य भारत से भिन्न होती हैं। नातेदारी व्यवस्था के सामाजिक – सांस्कृतिक तत्व हैं – भाषा, जाति (मैदानी और पहाड़ी) और क्षेत्र। यद्यपि उत्तरी परिक्षेत्र में नातेदारी व्यवहार क्षेत्र में और एक ही क्षेत्र में जाति से जाति में भिन्न है। फिर भी तुलनात्मक अध्ययन दर्शाता है कि एक आदर्श उत्तरी संरूप पर बात करना संभव है। विशेष रूप से अधिकतर जातियों के बीच अधिकतर सामान्य रूप से जाने वाली अभिवृत्तियों तथा प्रथाओं के संदर्भ में।
मध्य परिक्षेत्र – मध्य भारत के नातेदारी संगठन की विशेषताएँ उत्तर भारत से अधिक भिन्न हैं। मध्य भारत में नातेदारी की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार है –
1- प्रत्येक क्षेत्र में विवाह प्रथाएँ उत्तर के सामान ही मानी जाती हैं। अर्थात् समरक्ता मुख्य विचार है, जो विवाह में लागू रहता है।
2- अनेक जातियाँ बहिर्विवाही कुलों में विभाजित होती हैं।
3- नातेदारी शब्दावली विभिन्न नातेदारों के बीच घनिष्टता और निकटता दर्शाती है। नातेदारों के बीच सम्बन्ध ‘न्योता उपहार’ रीति से संचालित होते हैं। जिसके अनुसार, प्राप्त नकद भेंट के बदले में बराबर की नकद भेंट दी जाती है।
4- गुजरात में नियत-कालिक विवाह के रिवाज में बाल-विवाह और असमान विवाह को प्रोत्साहन दिया जाता है।
दक्षिणी परिक्षेत्र – दक्षिण परिक्षेत्र एक जटिल नातेदारी व्यवस्था का संरूप प्रस्तुत करता है। यद्यपि अधिकतर जातियों और समुदायों में परिवार के रूप मुख्यतः पितृवंशीय और पतिस्थानिक हैं। जैसे – नम्बूदरी। परंतु जनसंख्या के ऐसे भाग भी हैं, जो मातृवंशीय और पत्नीस्थानिक हैं। जैसे – नायर। काफी संख्या में ऐसे भी हैं, जिसकी व्यवस्था में पितृवंशीय व मातृवंशीय दोनों संगठनों की विशेषताएँ मौजूद हैं। जैसे – टोड़ा।
ऐसे ही बहुत-सी ऐसी जातियाँ और जनजातियाँ भी हैं, जिनमें केवल बहुपत्नी प्रथा ही है। जैसे – असारी, नायर। तथा ऐसे भी हैं, जिनमें बहुपत्नी प्रथा और बहुपति प्रथा दोनों प्रचलित हैं। जैसे – टोड़ा।
फिर, बहुपति प्रधान पितृवंशीय समूह भी हैं। जैसे – असारी। और बहूपति प्रधान मातृवंशीय समूह भी हैं। जैसे – तियान, नायर। और बहूपत्नी प्रधान पितृवंशीय समूह भी हैं। जैसे – नम्बूदरी। लेकिन बहुपत्नी प्रधान मातृवंशीय समूह नहीं हैं।
इसी प्रकार, पितृवंशीय संयुक्त परिवार और मातृवंशीय संयुक्त परिवार भी हैं। यह सब दक्षिण परिक्षेत्र में नातेदारी संगठन की विविधता को दर्शाता है।
स्त्रियों की बदलती प्रस्थिति
आजकल भारत में स्त्रियों की स्थिति सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सामान्य प्राचीन और मध्यकाल से अधिक बदल गयी है। आज के समय में स्त्रियों को अनेक अधिकार (सामाजिक और वैधानिक) प्राप्त हैं, उन्हें अधिक स्वतंत्रता प्राप्त है, उनकी आवाज में पहले की अपेक्षा अब अधिक शक्ति है, और वे सार्वजनिक मामलों में अधिक भाग लेती हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि उनके साथ अभी भी भेदभाव किया जाता है, उन्हें सताया जाता है, अपमानित किया जाता है, उन्हें आधीनता में रहना पड़ रहा है और उनका शोषण भी हो रहा है।
आज के लोगों को यह बात पता होनी चाहिए कि प्राचीन भारत में (वैदिक व महाकाव्य युग में) स्त्रियों को अधिकतर पुरुषों के समान माना जाता था। उन्हें सम्मानित भी किया जाता था और पृथ्वी पर स्त्रियों को दैवी गुणों का प्रतीक माना जाता था। उन्हें न केवल गृहस्थ जीवन का बल्कि समूचे सामाजिक संगठन का भी आधार माना जाता था।
सामाजिक क्षेत्र में उन्होंने कभी पर्दा नहीं किया, उन्हें जीवनसाथी के चुनाव की आजादी थी। शिक्षा प्राप्ति से भी वंचित नहीं थीं तथा घर और बाहर स्वतंत्र थीं। आर्थिक क्षेत्र में भी उन्हें माँ व पत्नी के रूप में संपत्ति में सीमित अधिकार प्राप्त थे। परंतु वे नौकरी नहीं करती थीं और पारिश्रमिक प्राप्त नहीं करती थीं क्योंकि ऐसा करना उनके लिए आवश्यक नहीं था।
राजनैतिक क्षेत्र में उनकी प्रस्थिति तत्कालीन राजनैतिक व्यवस्था पर निर्भर करती थी। उन दिनों क्योंकि चुनी हुई सरकार नहीं होती थी। अतः उन्हें न तो मानवाधिकार प्राप्त थे और न ही उन्हें किसी राजनैतिक पद प्राप्त करने के अवसर प्राप्त थे।
उन्हें सभाओं में प्रवेश की अनुमति नहीं थी क्योंकि इनमें जुआ, शराब व अन्य उद्देश्य भी पूरे किए जाते थे। आचार्य चाणक्य ने अर्थशास्त्र में धनुष-वाण से सुसज्जित स्त्री सैनिकों का वर्णन किया है। धार्मिक क्षेत्र में उन्हें पूर्ण अधिकार प्राप्त थे और वे नियमित रूप से धार्मिक समारोहों में भाग लेती थीं।
तदोपरांत पौराणिक, ब्राह्मण व मध्य काल में स्त्रियों की स्थिति अनेक प्रतिबंधों के लगने के कारण कुछ इस प्रकार हो गई थी –
1- पूर्व-यौवनारम्भ में ही विवाह होने लगे।
2- विधवा – पुर्नविवाह निषिद्ध हो गया।
3- पति को पत्नी के लिए देवता का दर्जा दिया गया।
4- शिक्षा पूर्ण रूपेण अस्वीकृत कर दी गई।
5- सती प्रथा प्रचलित हो गई।
6- पर्दा प्रथा प्रचलित हो गई।
7- बहुपत्नी विवाह सहन किया जाने लगा।
किन्तु स्त्रियों को बलि चढ़ाने, प्रार्थना करने व धार्मिक पुस्तकें पढ़ने की अनुमति नहीं दी गई। मुस्लिम काल में जाति प्रथा के कठोर प्रतिबंधों को थोपने तथा संपूर्ण समाज पर ब्राह्मणी शुद्धता थोपे जाने के कारण उन पर अधिक प्रतिबंध लागू किए गए परंतु भक्ति आंदोलन के कारण स्त्रियों की स्थिति में कुछ परिवर्तन आया, जिसके कारण स्त्रियों को कुछ सामाजिक और धार्मिक स्वतंत्रता मिली।
ब्रिटिश काल में स्त्रियों की स्थिति में कुछ सुधार आया, जिसके कुछ प्रमुख कारण थे – शिक्षा का विस्तार, लड़कियों की शिक्षा में ईसाई मिशनरियों की रूची, सती प्रथा जैसी सामाजिक बुराई का अंत तथा समाज के कई समाजसेवियों तथा सामाजिक संगठनों द्वारा स्त्रियों की स्थिति बदलने के कई सार्थक प्रयास किए गए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात स्त्रियों की प्रस्थिति में परिवर्तन में थोड़ी और गति आया क्योंकि स्वतंत्रा के बाद भारत में कुछ नए कानून लागू किए गए। जैसे – विशेष विवाह अधिनियम-1954, हिन्दू विवाह अधिनियम-1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम-1956 और दहेज विरोधी अधिनियम-1961 इत्यादि।
लेकिन स्त्रियों की वास्तविक ऊँची प्रस्थिति की ओर संकेत करने वाले कारक हैं – स्त्रियों का भुगतान प्राप्त वाले कार्यों में संलग्न होना और आर्थिक आजादी प्राप्त करना, स्त्रियों द्वारा संभाले हुए विभिन्न विभागों में उच्च और बेहतर पदों की संख्या में वृद्धि, महिला उद्यमियों और प्रबंधकों की संख्या में वृद्धि, विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या में वृद्धि, विद्यालयों और व्यावसायिक संस्थाओं में लड़कियों की संख्या में वृद्धि आदि।