धर्म के क्षेत्र में देखें तो हिन्दू मत में Bahudevvad Aur Avtarvad की अवधारणा हैं, इस्लाम एक ईश्वरवादी है, तो बुद्ध अनीश्वरवाद को मानते दिखाई देते हैं। हिन्दू मत में कुछ देवता वे हैं, जिनकी कल्पना वेदों ने की, कुछ प्राक्वैदिक भारत में पूजे जाते थे और बाद में वैदिक धर्म में प्रवेश पा गए। तीसरे प्रकार के देवता आर्य, द्रविड़ मिश्रण के बहुत बाद बाहर से आने वाली नई जातियों के साथ आए होंगे। विभिन्न देवी-देवताओं की उपासना के साथ ही यह भी माना गया कि विभिन्न नामों से पुकारे जाने पर भी सब एक ही हैं।
Polytheism and Anthropomorphism
पुरोहित ब्राह्मणों ने धीरे धीरे बची- खुची कबीलाई व श्रेणी जातियों में भी प्रवेश किया, यह प्रक्रिया आज तक चालू है। इसका अर्थ था नए देवताओं की पूजा। कबीलाई देवताओं को ब्राह्मण धर्म के प्रतिष्ठित देवताओं के समकक्ष मान लिया गया और जिन कबीलाई देवताओं को आत्मसात करना कठिन था, उन्हें प्रतिष्ठित बनाने के लिए नए ब्राह्मण धर्म ग्रंथों की रचना की गई। इन नए देवताओं के साथ नए अनुष्ठान भी अस्तित्व में आए।
इस समूची प्रक्रिया के बारे में महाभारत, रामायण तथा पुराणों में भरपूर सामग्री मिलती है। न केवल कृष्ण को बल्कि बुद्ध और आदिम मत्स्य, कच्छप तथा वराह जैसे मूलक देवताओं को भी विष्णु नारायण का अवतार घोषित कर दिया गया। इसी प्रकार हनुमान, शेषनाग, नन्दी आदि को उपासना में स्थान मिला और Bahudevvad Aur Avtarvad लोगों ने स्वीकार्य किया। आदिम देवताओं की पूजा संस्कृतियों के पारस्परिक आदान-प्रदान की प्रक्रिया का ही अंग थी।
मातृसत्तायुगीन तत्वों को आत्मसात किया गया तथा मातृदेवियों को किसी न किसी नर देवता की पत्नी के रूप में स्वीकार किया गया। लक्ष्मी, पार्वती, सरस्वती आदि के रूप में आप इन्हें देख सकते हैं। शिव की पूजा जिस रूप में हिन्दू समाज में प्रचलित है, वह रूप वेदों में नहीं मिलता। कालान्तर में शिव की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई और कुछ समय बाद लिंग पूजा को भी मान्यता प्राप्त हो गई।
भण्डारकर के अनुसार ’’रुद्र शिव का संबन्ध आरंभ में जंगली जातियों से भी रहा होगा या यह भी संभव है कि जंगली जातियों के बीच प्रचलित देवताओं के भी गुण बाद में चलकर रुद्र शिव की कल्पना में आ मिले। सुनीति कुमार चटर्जी का मत है कि ’’ द्रविड़ लोग भारत में मेडीटरेनियन समुद्र के पास से आए थे और संभवतः शिव और शक्ति विषयक दार्शनिक भाव भी वहीं से लाए।
इसी प्रकार उमा अर्थात पार्वती की उपासना में परमेश्वरी के रूप से आगे जाकर चामुण्डा, काली आदि विकराल रूपों की कल्पना का भी अपना इतिहास है। सांपों की पूजा, भूत पिशाच का भय, अनेक प्रकार के टोटके आदि के बारे में भी अनुमान है कि वे आर्येतर समाज से हिन्दू धर्म में आकर मिले। आर्यों के प्राकृतिक शक्तियों रूपी देवी-देवताओं के स्थान पर विष्णु और शिव की उपासना के साथ-साथ समाज में ऐसे सैकड़ों व्रत, अनुष्ठान और रीति -रिवाज प्रचलित हुए जिनका उल्लेख वेदों में नहीं मिलता।
उत्तर भारत में मुख्य रूप से शिव और उमा की पूजा प्रचलित है, गणेश की प्रतिष्ठा विघ्नहर्ता के रूप में है तो दक्षिण में शिव के पूरे परिवार की पूजा का व्यापक प्रचार है। शिव और उमा के साथ वहां कार्तिकेय और गणेश की पूजा भी बड़े उत्साह के साथ की जाती है। गणेश आर्येतर देवता माने गए हैं। ऋग्वेद में उल्लिखित विष्णु शब्द ’सूर्य’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
प्राचीन काल में वैष्णव धर्म मुख्यतः तीन तत्वों के योग से उत्पन्न हुआ था। पहला वेद में उल्लिखित विष्णु शब्द सूर्य के अर्थ में , दूसरा महाभारत के शान्तिपर्व के नारायणीय उपाख्यान में उल्लिखित नारायण धर्म और तीसरा वासुदेव मत। इन तीन तत्वों ने मिलकर वैष्णव धर्म को उत्पन्न किया। लेकिन उसमें कृष्ण के ग्वाला रूप और राधा के प्रेम की कथाएं बाद में संभवतः आर्येतर प्रभाव से जुड़ीं । आगे चलकर इसमें ’वासुदेव धर्म’ और ’भागवत धर्म’ के रूप हमें मिलते हैं।
कृष्ण का प्राचीनतम उल्लेख पहले छान्दोग्य उपनिषद में और फिर महाभारत में मिलता इन महान देवताओं के अतिरिक्त अल्प महत्व के असंख्य देवता थे। प्रत्येक ग्राम का एक स्थानीय देवी-देवता होता था, जिसे ग्राम देवता कहते थे, जो प्रायः एक अपरिष्कृत आदि देवता की शक्ति के रूप में किसी पूज्य वृक्ष के नीचे स्थापित होता था। स्थानीय देवियों का बहुधा दुर्गा के साथ तादात्म्यीकरण identification कर दिया गया, किन्तु वे कभी पौराणिक कथाक्रम में सम्पूर्णतः सम्मिलित नहीं की गईं जैसे शीतला, मनसा आदि।
इसी प्रकार सर्पात्माएं, यक्ष, गन्धर्व, अप्सराएं, विद्याधर आदि अर्धदेवता थे। इसके अलावा पीपल, वट, अशोक, तुलसी आदि वृक्ष पूजा के रूप आए। हिन्दुत्व के कुछ गिने हुए सिद्धांतों में कट्टरता से विश्वास करने के बदले , अत्यंत व्यापक उदारता का विकास किया। आदिवासी जनता के पास जो अनेक देवी-देवता थे तथा बाद को जो देवता दूसरी जातियों के साथ बाहर से आए उन सबको हिन्दुत्व ने स्वीकार कर लिया एवं कालक्रम में उसने यह भी सिद्ध कर दिखाया कि ये देवी-देवता हिन्दुत्व के ही हैं।
अनेक जातियों के देवी-देवताओं के आ मिलने के कारण बहुदेववाद हिन्दुत्व का अनिवार्य अंग बन गया। इस लिए सब हिन्दू किसी एक देवी देवता को नहीं पूजते हैं। अनेक देवी देवताओं के आने से उनके महात्म्य की भी अनेक कथाएं पुराणों में आ मिलीं। जिन विभिन्न वंशों की संततियों को लेकर हिन्दू जाति की रचना हुई, उनके विभिन्न उपासना मार्ग भी हिन्दुत्व के अपने अंग बन गए, अतः हम नहीं कह सकते कि हिन्दुत्व की अपनी उपासना पद्धति कौन सी है।
जिन ग्राम देवता और देवियों के पूजकों को मनु ने अनेक स्थानों पर पतित कहा है, तो गांवों में अब ब्राह्मण भी भूत प्रेत और ग्राम देवता की पूजा करते हैं। आरंभ में इन देवताओं के पुरोहित भी शूद्र रहे होंगे । आर्येतर परंपराओं से वृक्षों, नदियों की पूजा, होली, वसंतोत्सव आदि अनेक उत्सव आदि हिन्दू समाज में आए।
किसानों द्वारा कुछ दूसरे उच्च श्रेणी के देवताओं की भी पूजा की जाती है, जो स्थानीय देवताओं से एक सीढ़ी ही ऊपर होते हैं। जैसे एक पत्थर पर उच्चित्रित नाग देवता को क्षेत्रपाल माना जाता है। अन्य छोटे देवताओं को जोताई, बुवाई, कटाई आदि के अवसर पर सन्तुष्ट करना होता है। और भी ऊँचे स्तर पर ब्राह्मण देवता हैं। कभी कभी स्थानीय आदिम देवी या देवता को सनातन धर्म के ग्रंथों में वर्णित किसी देवी-देवता के रूप में भी पहचाना जा सकता है।
पुराने देवताओं को समाप्त नहीं किया गया, उन्हें अपनाकर नए रूप में ढाला गया। इस प्रकार सनातन धर्म में उन सामाजिक समूहों को कुछ हद तक एकजुट किया गया, जिनमें आपस में कोई एकसूत्रता नहीं थी। इसने देश को कबीले से समाज व्यवस्था की ओर आगे बढ़ाया और फिर इसने देश को अन्धविश्वास के गंदे दलदल में फँसाकर रखा।
दूसरी ओर अवतारवाद भारतीय संस्कृति की एक प्रमुख विशेषता रही है। विष्णु के दस अवतार विष्णु के वामनावतार की कथा का संकेत ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में पाया जाता है।
बुद्ध विष्णु के अन्तिम अवतार थे। बौद्ध और जैन साहित्य को छोड़कर और सभी भारतीय साहित्य में राम विष्णु के अवतार के रूप में सामने आते हैं। बौद्ध धर्म के साथ राम कथा का जो रूप भारत से बाहर पहुंचा, उसमें वे विष्णु के अवतार नहीं रहे। दिनकर के अनुसार राम एक ऐसे चरित्र हैं, जो सनातन धर्म में विष्णु के अवतार, बौद्ध धर्म में बोधिसत्व तथा जैन धर्म में आठवें बलदेव के रूप में प्रतिष्ठित हुए और Bahudevvad Aur Avtarvad के उदाहरण बने । तथा आगे चलकर जिनकी भक्ति में शिव भक्ति भी समाहित हो गई।