अपनो देस बुन्देलन बारो अपनो देस बुंदेलन बारो । Apno Des Bundelan Baro.
महतारी बुन्देलन भूमि, है सूरज पिता हमारो ।
अपनो देस बुंदेलन बारो ॥
अभउँ बुंदेल खण्ड के हारन – खेतन श्रम की गंगा
खान पान में रहन-सहन में लखौ फक्कड़ी ढंगा,
पहार पहारियाँ बने हिमालय जट जूट बेहड़ियाँ,
बुन्देलन के गढ़ी – किलन के वासी भूत भुजंगा
झीलें चन्दरमा सीं सीतल शिव ने डेरा डारो
अपनो देस बुन्देलन बारो ॥
मुरगा बोलें मोरे भैया उठें काम पै जावें ।
भोर भुरारें भौजी उठतीं चकिया पीसें गावें ।
चौका वासन झार समेटी बहनें जुरमिल करतीं,
अम्मा घर भर के लरकन को गह गह बाँह जगावें ।
बब्बा करें भजन, बउ डारें बैल ढोर को चारो ।
अपनो देस बुन्देलन बारो ॥
पानी भरन बहुरियाँ चलतीं करती बात जिजी से ।
दो दो जनी खैंचती गगरा भरतीं कुआ हँसी सैं।
दो दो मटका धरें अछंगा एक बगल में दावें,
चलें मोर की चाल बाँटती सगुन समेट असीसें ।
दो उँगरी घुँघटा में झाँकें एक नयन अनयारो ।
अपनो देस बुन्देलन बारो ॥
जेठ मास की लपट झँझावें टीका टीक दुफरिया ।
कढ़ें पसीना तपन परी है घट घट जात उमरिया
विलम बटोरी छोर पुटरिया गुर सें सतुआ खावें
कुआ चौंतरा भांकर जू को झूमें हरी पिपरिया
लीलकण्ठ के घरे घेंसुआँ बोलै कौआ कारो
अपनो देस बुन्देलन बारो ॥
लगे असाढ़ चले पुरवई घिरे बदरवा कारे ।
मातन की मढ़िया धु बाँधे नारियल उसारे ।
भुमियाँ, कारस देव, जखैया, हुल्का मैया पूजी,
बरसो राम न अब दिन खँचौ लरका बारे बारे ।
अबकी साल पटक देव सोनौ आधिव्यापी निवारो ।
अपनो देस बुंदेलन बारो ॥
रचनाकार – शिवानंद मिश्र “बुन्देला”