महोबे के जिन बनाफर बंधुओं की बावनगढ़ में धाक थी, उनकी वीरता का सामना करने की हिम्मत प्रायः राजा नहीं जुटा पाते थे। राजा परिमाल तो शस्त्र त्याग कर चुके थे। सच तो यह है कि परिमाल बनाफर बंधुओं के बल पर ही शांति से राज कर रहे थे। एक दिन ऐसा आया कि राजा परिमाल ने आल्हा को महोबा छोड़ने का आदेश दे दिया। ऐसे समय मे Alha Ka Mahoba Chhodna – Kathanak महोबा के लिये कितना घातक था ।
मामा माहिल राजा परिमाल और बनाफरों को हानि पहुँचाने की छल भरी चाल चलने का कोई अवसर नहीं छोड़ता था। एक दिन उसे खुराफात सूझी और वह दिल्लीपति पृथ्वीराज के दरबार में जा पहुँचा। राजा ने उसे सादर बिठाया और आने का कारण पूछा। माहिल ने कहा, “चंदेले परिमाल आपके समधी हैं। आप जाँच के देखो कि वे आपको अधिक सम्मान देते हैं या बनाफरों को? आप उनसे हाथी पंचशावद, घोड़ा पपीहा, वैदुल, मनुरथा और घोड़ी कबूतरी कुछ दिन के लिए माँगकर देखो। पता चल जाएगा कि मान-सम्मान किसका ज्यादा है?”
पृथ्वीराज को यह उपाय अच्छा लगा। उसने तुरंत कागज-कलम उठाकर राजा परिमाल को पत्र लिखा। एक धामन के हाथ पत्र महोबे भेज दिया। राजा परिमाल को जैसे ही पत्र मिला, उन्होंने आल्हा को बुलवाकर पत्र पढ़वा दिया। आल्हा-ऊदल दोनों ने उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। आल्हा ने कहा, “आप हमारे पिता समान हैं। आपके एक संकेत पर हम अपनी जान कुर्बान करने को तैयार हैं, परंतु क्षत्रिय अपनी सवारी किसी को नहीं देते। यह हमारे लिए अपमानजनक है।”
राजा परिमाल ने क्रोधपूर्वक आज्ञा दी तो आल्हा ने साफ इनकार कर दिया। राजा ने क्रोध में कहा, “महोबा से तुरंत निकल जाओ। यहाँ का भोजन किया तो गोमांस भक्षण का पाप लगेगा।” आल्हा-ऊदल ने अपनी माताओं तथा रानियों को तुरंत तैयार होने को कहा। दिवला माता ने समझाया कि मल्हना ने तुम्हें पाला है, उसका कहना मानो। मल्हना ने मनाने का प्रयास किया, पर आल्हा नहीं माना। राजा ने सख्त लहजे में कसम ही ऐसी दिलाई थी कि अब महोबा का पानी भी पीना हराम था। किसी ने मलखान को खबर कर दी। वह स्वयं आया। कारण जाना और फिर उन सबसे सिरसा चलने का आग्रह किया।
आल्हा ने जो निश्चय किया था, उस पर अटल रहा। राजा ने उन्हें भादों के महीने में निकाला है, जिसमें साधुसंन्यासी तक भी प्रवास नहीं करते। ये लोग करणयी और परहुल से होते हुए सियारमऊ जा पहुँचे। वहाँ इन्होंने अपने डेरे लगा दिए। वहाँ से एक दिन आल्हा कन्नौज में राजा जयचंद से मिलने के लिए गए। दरबान ने परिचय पूछा तो आल्हा ने बताया कि “मैं आल्हा महोबा से आया हूँ।” राजा जयचंद ने तुरंत आदर से बुलवाया। राजा परिमाल का तथा महोबे का हाल पूछा। आल्हा ने कहा, “परिमाल का महोबा हम सदा के लिए छोड़ आए हैं। आपकी शरण में हैं, बताइए कहाँ रहें?”
जयचंद का जवाब था, “जिन्हें चंदेलों ने निकाल दिया है, उन्हें हम नहीं रख सकते।” आल्हा इतना सुनते ही बाहर चले आए और सीतारमऊ वाले डेरे पर पहुँच गए। ऊदल को इस पर बहुत क्रोध आया। उसने देवी फलमती के मंदिर में पजा की तथा कन्या जिमाई। इसके पश्चात आस-पास बाजार की दुकानों को लूटने का आदेश दे दिया।
सिपाही लूटने लगे। राजा जयचंद को सूचना मिली तो लाखन को तोपें ले जाकर ऊदल को मारने के लिए भेजा। इसी बीच ताला सैयद ने जयचंद से कहा, “तोपों से भी तुम ऊदल को नहीं हरा सकते। उसने मांडौगढ़ जीता, पथरीगढ़ जीता, पृथ्वीराज की कन्या से ब्रह्मा का ब्याह कराया, बलख बुखारा और कुमायूँगढ़ भी जीता।”
जयचंद ने कहा, “हमारे जौरा-भौरा दोनों हाथियों को शराब पिला दी जाए। फिर यदि ऊदल उन्हें काबू में कर ले तो हम उसको सम्मानित करेंगे।” ऐसा ही किया गया। शराब छकाकर हाथी द्वार पर खड़े कर दिए। ऊदल को उनसे लड़ने का आह्वान किया गया। पंचशावद पर आल्हा और दुल घोड़े पर ऊदल आए।
जयचंद ने उनसे द्वार पर खड़े हाथियों से भिड़ने को कहा। ऊदल अपने घोड़े से उतरा और हाथी को एक भाला मारकर गिरा दिया। दूसरे भौरा हाथी का दाँत पकड़कर उसे पटककर दे मारा। तब जयचंद ने ऊदल का बल स्वीकार कर लिया। जयचंद ने तब राजगिरि नगर को इन्हें पुरस्कार स्वरूप दे दिया। आल्हा-ऊदल का परिवार तब से वहीं बस गया।