बुन्देली के आशु कवि श्री रामसहाय कारीगर का जन्म झाँसी जिले के ग्राम स्यावरी में सन् 1898 में हुआ। Aashukavi Ramsahay Karigar के पिता जी का नाम श्री हीरालाल था, जो स्वयं बुन्देली कवि थे। इनके दादा श्री खुमान भी बुन्देली के अच्छे कवि रहे हैं। इनकी शिक्षा चौथी तक ही हुई। इनके काव्य गुरु पं. बैजनाथ द्विवेदी थे।
दोहा – निरख चंद्र को कुमुदिनी, कली देत विकसाय।
जो कलियां विकसित नहीं, भँवर वृथा लुभयाय।।
चन्द्रमा को देखकर कुमुदिनी कली के रूप में विकसित हो जाती है अर्थात् वह कली बन जाती है। लेकिन जो कलियाँ विकसित होकर फूल नहीं बनती उन पर भ्रमर व्यर्थ में ही लोभी बनकर मंडराने लगते हैं।
चौकड़िया – मधु रस लेन भँवर लुभयाये, कमल दलन पे छायें,
झूले नलिन आन कें मधुकर, कलिन-कलिन पे भाये।
खिली न जिन कंजन की कलियां, राम सहाये गाएं,
तौन कली को कभी भौंरहू, अंतस कबहुं न चाये।
लोभी भँवरे कमल के फूलों की पंखुड़ियों का सामूहिक रूप से रस-मकन्द-मधु का सेवन करते हुए उनपर मंडरा रहे हैं। जो कुमुदनी हवा के मदमस्त झोंके से झूल रही हैं उनकी कलियों पर भँवरे चाहत लिए उड़ रहे हैं। लेकिन जिस कमल के फूलों की कलियाँ अभी खिली नहीं है। रामसहाय कवि गाकर कहते हैं उन कलियों की अंतरंगता वह भ्रमर कभी नहीं चाहता है।
दोहा – पापी मन मानत नहीं, मदन करत इत तंग।
उत सुख सेजन है नहीं, मिलत प्रेम का संग।।
एक तो वह पापी मन प्रणय-प्रसंग की कामना से मुक्त नहीं है, इसलिए मानता नहीं है और इस पर कामदेव भी परेशान करता है। उधर-सुख रूपी सेज पर मेरे अपने प्रणय (प्रेम) का साथ ही प्राप्त नहीं हो पा रहा है।
दोहा – कामिन सुन्दर दृश्य दिखाये, वक्ष स्थल पर पाये,
मनहु मनोज खेलवे गेंदन, वर-वक्षोज बनाये।
बिंब फलन की कली अधर जनु लख लाली शरमाये,
नैनरू बैन सैंन सुख दै कें, मानो मैंन बुलाए
‘राम सहाय’ प्रेम की बिरियां अंतस कबहु न चाये।
कामिनी (नायिका) ने उसके सीने (छाती) पर अवस्थित सुन्दर दृश्यों का अवलोकन कराया है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे साक्षात कामदेव ने गेद का खेल खेलने के निमित्त वक्ष-स्थल पर गेंद रूपी उरोजों की रचना की हो। नायिका के होंठ बिम्बों के फलों की कली से इतने अरुणाई लिये हुए हैं जिसे देखकर स्वयं लालिमा (लाली) शरमा जाती है।
ऐसा लगता है कि आँखों की वाणी के इशारों से सुख प्राप्ति के लिये मैंने नायिका को बुलाया हो। कवि रामसहाय कहते हैं कि इस प्रेम-वेला के समय मैंने कभी अपनी प्रेयसी से अंतरगता (शारीरिक संबंध) जोड़ने की चाह नहीं की है।
दोहा – श्री शारदा आन कें, कर कंठन स्थान।
हे जननी हरि के चरित, करन चहत कछु गान।।
शैर – अज्ञान जान जननी दै जन को ज्ञाना।
दैं जोर कड़ी छंद शैर सुनें सुजाना।
टेक – राजा टेक धनुष की बनें, सीता जी के लानें
छंद – सुन्दर धनुष जस की साजा, आये देश-देश के राजा,
टूटा धनुष हुआ कछु काजा, कयें जनक नरेश।
नैयां छत्रानी जग कोय, जाने छत्री जाया होय
निज-निज घर को जाना होय, सुन सकल नरेश।
हे सरस्वती माता! तुम आकर मेरे गले में निवास कर विराजमान हो जाओ। हे माँ शारदे! मैं भगवान राम के चरित्र का कुछ गुणगान करना चाहता हूँ। हे माता वीणापांणि! मुझे अज्ञानी समझकर ज्ञान प्रदान करो, जिससे मैं आशु कवि के रूप में कविता से कड़ियाँ जोड़कर छंद और शैर बनाऊँ, जो सुधीजन ध्यान से सुनें।
सीता जी के लिए धनुष की टंकार ठीक से तनें धनुष यज्ञ स्थल की सज-धज न्यारी है, जिसमें देश-देश के महाराजा भाग्य अजमाने आये हैं। धनुष टूट नहीं पाया इसलिए सीता जी का स्वयंवर नहीं हुआ। राजा जनक खिन्न होकर कहते हैं कि इस पृथ्वी पर ऐसी कोई वीर छत्राणी नहीं है जिसने वीर पुत्र को जन्म दिया हो। यहाँ उपस्थित सभी राजाओं सुन लो। आप अपने-अपने घरों को वापस प्रस्थान कर जाओ।
दोहा – लखिन तड़क के ये कही, कितना हर को दण्ड।
कहो उठा तू गेंद से, ये सारे नौ खण्ड।।
शैर – लखन क्रोध देख हरी शांत किए हैं
रिषराज दई आज्ञा, हरि हरषे हिये हैं।
जनक का यह संवाद सुनकर लखन बिजली और बादलों जैसी गर्जना करते हुए बोले वाह शिवजी का धनुष कितना गुरुतर है, अगर आप कहें तो मैं इस ब्रह्माण्ड के समस्त नौ खण्ड गेंद के समान उठा लूँ। लखन का यह क्रोध देखकर भगवान राम ने उन्हें शांत किया। महर्षि विश्वामित्र ने उन्हें आज्ञा दी यह जानकर भगवान राम का हृदय हर्ष से परिपूरित हुआ।
चुरहेरिन लीला
दोहा – जपत नाम जिनका सदा, शारद शेष, गनेश।
नारदाद ब्रह्मा रहें, भजे सुरेश महेश।।
शैर- सो चरित करत ब्रज में नित नए-नए हैं,
प्यारी के मिलन हेत, नार नर सें भये हैं।
टेक – मोहन कीनें भेष जनानें, पैरन लागे गानें,
छंद – सुन्दर मोतिन मांग सवारी, माथे दई दावनी प्यारी
तामें रुनका करें बिहारी, नेंचे बिंदिया।
ताके नेंचे बुदका कारे, बिच-बिच बूंदा लगत प्यारे,
कानन कन्नफूल झुमकारे, दांतन मिसिया।
उड़ान – नैनन रेख लगी कजरा की लागत भौत सुहाने
मुख में दयें पानन की बिरियाँ लाली कंठ दिखाने।
(सौजन्य : डॉ. डी.आर. वर्मा)
जिनका नाम सरस्वती, शेष नाग और गणेश जी जपते रहते हैं जिनका नाम महर्षि नारद और प्रजापिता ब्रह्मा रटते हैं जिन्हें इन्द्र और भगवान शंकर भजते रहते हैं वह पावन ब्रजभूमि में नित्य नवीन चरित्र नाटकीय ढंग से करते रहते हैं। यहाँ देखो वे राधा प्यारी से मिलने के लिये अच्छे खासे पुरुष से स्त्री बन गये हैं। मोहन ने आभूषण आदि पहनकर स्त्री का वेष धारण कर लिया है।
अपनी मांग उन्होंने सुन्दर मोतियों से श्रृँगारिक रूप में सजाई है। माथे पर दावनी उसको वे रुन-झुन बजाते हैं, उसके नीचे बिंदिया पहने हुये हैं। बिंदिया के नीचे काले रंग के बुंदका और जिनके बीच-बीच में न्यारे बूंदा लगे हुये हैं। कानों में कर्णफूल, धारण किये हुये अपने दातों में मिसिया लगाये हैं। आँखों में काजल रेख आँजे हैं जो बहुत अच्छा लग रहा है। मुँह में पान का बीड़ा चबाए और गले में लाली लगी हुई है।
दोहा – पैर बिचोली लल्लरी, सर माला लई डाल,
गजरा हीरन के हिये, पैरी मोतिन माल।
टेक – बिच-बिच कनी लगी हीरन की देखत दिपन दिमाने
छंद – चूरा पैर लए कंचन के, पीछें दौरी उर ककनन के
रुनका बजत हलें हांतन कें, रुन झुन रुन झुन
पैरे बइयन बीच बजुल्ला, छत्री बगवा और पटिल्ल
उंगरिन छाप मुदरियां छल्ला होय छुन-छुन-छुन
उड़ान – झांझे लच्छे बांके बिछिया, पांव धरत झन्नाने,
दुर की दिपन लुरक की सरकन घूंघट उड़त दिखाने
(सौजन्य : डॉ. डी.आर. वर्मा)
गले में बिचाली और लल्लरी और सिर पर माला पहन, हीरों के गजरा हृदय के ऊपरी हिस्से पर धारण कर, मोती माला पहने हैं। इन आभूषणों के बीच-बीच में हीरे के कण जड़े हुए हैं जिनकी दीप्ति देखकर लोग दीवाने हो जाते हैं। सोने के चूड़ा और दौरी हाथ में पहनें, जो स्वर्ण निर्मित हैं उसके पीछे दौरी और ककना पहन लिये, ये गहने हाथों में रुन-झुन, रुन-झुन की ध्वनि कर रहे हैं।
बाहों के बीच में बजुल्ला, छन्नी, वगवा और पटिल्ला भी हाथों में श्रीकृष्ण भगवान धारण किये हुये हैं। वे अपनी अंगुलियों में अंगूठी और छल्ला पहने हुए हैं। जो छुन-छुन-छुन की आवाज करते हैं। झांझे, लच्छे, बांके और बिछिया पांवों में धारण किए हुए हैं जो चलते हुए झन, झन की ध्वनि करते हैं। नाक में दुर की दीप्ति और उड़ता हुआ घूँघट दिखाई देता है।
दोहा – चोली पैरें बदन में जाने कहां छिंपाय।
चूनर ओढ़े बैगनी, मन ही मन मुस्कांय।।
टेक – दामन घूम घुमारौ पैरें, पवन लगे फाराने
छंद – बन कें नार चली अलबेली, जग की शोभा सकेली,
धर के डलिया चली अकेली चुरियन वाली
लैलो ले लो चुरियां आली, नीली पीली है जंगाली
गुइयां लेओ हरीरी लाली – तकतन बाली।
उड़ान – चाल चलत मतवाले गज की बोलत-बोल सुहाने
कोहल-सी कूकत फिरैं राधा के बरसानें।
(सौजन्य : डॉ. डी.आर. वर्मा)
श्रीकृष्ण भगवान बदन में चोली तो पहने हैं लेकिन वह कहाँ छिपी है पता नहीं, वे बैंगनी रंग की चूनर ओढ़े हुए हैं, घुमावदार दामन पहने हैं जो हवा से फहरा रहा है। ऐसी अलबेली स्त्री बनकर चली है जिससे इस दुनियाँ की शोभा न्यारी है। यह चूड़ियों वाली अपने सिर पर चूड़ियों से भरी डलिया अकेले लेकर चली है।
वह बोलती है कि साथी चूड़ियाँ ले लो, चूड़ियाँ ले लो, इन चूड़ियों का रंग पीला और नीला, हरा और लाल है और कुछ ऐसी हैं जो दर्पण का कार्य करती हैं। हाथी की मतवाली चाल और सबके अच्छे लगने वाली वाणी बोलती है वह नारी। यह राधिका के बरसाने में कोयल जैसी मीठी बोली चूड़ियाँ बेचते समय बोल रही है।
दोहा – सुनी राधिका लाड़ली, चुरहेरिन की टेट,
टेर ल्याव ललता सखी, जल्दी, करौ न देर।।
टेक – तुरतई लुवा गई महलन में, हँस-हँस लगी बताने,
छन्द – जल्दी आओ पैर लो गुइया, राधे तुरत पसारी बइंया,
तुरतइ पकरी लरम कलइयां – कौंचा मसकें
हरि के हातन को पेंचान, तुरतई गईं राधिका जान,
तुम हो छली नंद के कान- कँय – हँस – हँस के।
उड़ान – नैनन बैनन फरक नईं -नर से बने जनाने।
बने चुरेरिन स्यामले, अब हमने पैचाने।।
(सौजन्य : डॉ. डी.आर. वर्मा)
बरसाने में राधिका जी ने चूड़ी बेचने वाली की पुकार सुनकर वे ललता सखी से बोली कि तुम देर न करो उसे बुलाकर लाओ। ललिता सखी तुरंत चूड़ियों वाली को राधिका के महलों में ले गई और हँस-हँस के राधा को बताने लगीं कि आओ जल्दी चूड़ियाँ पहन लो सखी। राधा ने अपनी बांह तुरन्त उसके समक्ष फैला दी, हथेली मसलकर शीघ्र ही चूड़ियों वाली ने कोमल कलाई पकड़ ली।
राधा ने चूड़ियों वाली के हाथ देखे तो वह श्रीकृष्ण के हाथों को पहचान गई और हँस-हँस के कहने लगी हैं नंद लाला के कन्हैया तुम बड़े छल करने वाले हो। इनकी आँखों की भाषा में केई अंतर नहीं है। तुम पुरुष से स्त्री बने हो। तुम चूड़ी बेचने वाली बनी हो अब हमने तुम्हें पहचाना है।
दोहा – सुनत लाड़ली के बचन, मनमोहन मुस्काय।
प्रेय मगन राधा भई, भेष देख हरषाय।।
टेक – नित-नित चरित करन हरी नए-नए ‘राम सहाय’ बखानें।
छंद – कातीं प्यारीं सखियां दरसन, ऐसई देव हमेशा दरसन,
लागी चरन स्याम के परसन, हरी मगन भये।
ऐसे कान गये वरसाने, मिलवे राधाजी के लाने
मिलकें भवन आपने आनें, कर चरित नऐ
उड़ान – रंग भरिया, छलिया बड़े, है नटखट की खानें।
सायर भूल सुधार लीजियो, माफी पै गम खाने।।
(सौजन्य : डॉ. डी.आर. वर्मा)
राधा लाड़ली के वचन सुनकर श्रीकृष्ण भगवान मुस्कुराने लगे। चूड़ी वाली के वेश में श्रीकृष्ण को देखकर राधा प्रेमानुभूति में मग्न होकर हर्षित हो रही हैं। राम सहाय कहते हैं श्रीकृष्ण भगवान नित्य नये चरित्र करते हैं। राधा की प्रिय सहेलियाँ प्रसन्न होकर कहती हैं कि हे भगवान! हमें हमेशा ऐसे ही दर्शन देते रहना। इतना कहकर प्रभु के चरण स्पर्श करने लगीं। यह देखकर भगवान प्रसन्न हुये।
इस तरह वेष बदल श्रीकृष्ण राधा से मिलने के लिये बरसाने गये। ऐसे नये चरित्रों का निर्माण करके वे राधा से मिलकर लौट आये। श्रीकृष्ण बड़े रंगीन मिजाज के हैं, वे छलिया और बड़े नटखट भी हैं। राम सहाय कहते हैं कि हे कवियों! अगर मुझसे यह आख्यान लिखने में कोई भूल हो गई हो तो भूल सुधार कर लेना। मुझ पर गम खाकर आप माफ कर देना।
आशुकवि रामसहाय कारीगर का जीवन परिचय
शोध एवं आलेख- डॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)