बुन्देलखण्ड के महोबा राज्य के इतिहास मे जस्सराज और बच्छराज दो भाई थे। जस्सराज की पत्नी का नाम देवलदे था जिनके यहां Aalha-Udal का जन्म हुआ। बच्छराज के यहां भी दो पुत्र जन्मे जिनका नाम मलखान और सुलखे पडा । आल्हा और ऊदल दोनो भाई बुन्देलखण्ड के महोबा के वीर योद्धा और राजा परमार के सामंत थे।
हिन्दी के प्रसिद्ध महाकवि जगनिक ने आल्हा खण्ड की रचना काव्य के रूप मे की जिसे सैयरा के नाम से भी जाना जाता है। बुन्देलखंड ऐसे वीरो और वीरांगनाओं से भरा है जिन्होने अपने देश की अपनी संस्कृति की रक्षा के लिये अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। यह शौर्य और पराक्रम की भूमि है। इस प्रकार साहित्यिक रूप में न रहने पर भी जनता के कंठ में जगनिक के संगीत की प्रतिध्वनि आल्हा -ऊदल के रूप मे अब तक चली आ रही है।
बुन्देलखन्ड मे चंदेल वंश का राज्य था। कालिंजर के राजा परिमार्दिदेव की विजय पताका फहरा रही थी।उन्होने 52 युद्ध किये थे। इनकी सेना मे जस्सराज और बच्छराज दो भाई सेनापति के पद पर थे। जिनका विवाह बांदा और सतना जिले की सीमा पर बसे दिया उभरी गांव की अहीर युवतियों से हुआ।
इनसे उत्पन्न संताने बनाफर क्षत्रिय नाम से पुकारी जाने लगी । जिन्हे अन्य ठाकुरों से निम्न समझा गया। जस्सराज की पत्नी का नाम देवलदे था जिनके यहां आल्हा-ऊदल का जन्म हुआ।और बच्छराज के यहां दो पुत्र जन्मे जिनका नाम मलखान और सुलखे पडा । आल्हा खण्ड की रचना सन् ११४० ई. मानी जाती है। इस ग्रन्थ से प्रेरणा पाकर लगातार आठ सौ वर्षों तक आल्हा पर आधारित ग्रन्थों की रचना होती रही जिनमें से कतिपय ग्रन्थ निम्नांकित हैं।
1 – कजरियन को राछरो – १३वीं १४वीं शती
2 – महोबा रासो – १५२६ ई.
3 – आल्हा रासो – १७वीं शती
4 – वीर विलास –ज्ञानी जू रासो– – १७४१ ई.
5 – पृथ्वीराज दरेरो – १८वीं शती
6 – आल्हा –शिवदयाल “शिबू दा’ कमरियाकृत
7 – पृथ्वीराज रासो तिलक –दिशाराम भट्ट– १९१९ ई.
8 – आल्हा रासौ –लाला जानकीदास, टीकमगढ़ सं. १९१८ ई.
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आल्हा गायक पीरखां मूसानगर कानपुर कालीसिंह, तांती सिंह ने आल्हा गायकी का विकास किया। बरेला हमीरपुर के गायक कानपुर के रामखिलावन मिश्र, उन्नाव के लल्लू राम बाजपेयी, हमीरपुर के काशीराम प्रसिद्ध आल्हा गायक हैं। श्री बच्चा सिंह द्वारा महोबा में आल्हा गायन प्रशिक्षण विद्यालय “जगनिक शोध संस्थान’ Jagnik Shodh Sansthan द्वारा स्थापित है। उन्नाव के लालू बाजपेयी ने गायकी को प्रदर्शनकारी कला बनाया है।
आल्हा में वीरता का पूर्ण वर्णन है मौखिक परम्परा के महाकाव्य आल्हाखण्ड बुन्देली का अपना है। महोवा १२वीं शती तक कला केन्द्र तो रहा है जिसकी चर्चा इस काव्य में है। आल्हा गीत की शुरू आत पृथ्वीराज चौहान व संयोगिता के स्वयंवर से होती है, अलग-अलग भाग में अलग-अलग कहानियां हैं, ज्यादातर भाग में युद्ध ही है। आखिरी भाग में महोबा की राजकुमारी बेला के सती होने की कहानी है।
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1 – संयोगिता स्वयंवर
2 – परमाल का विवाह
3 – महोबा की लड़ाई
5 – गढ़ माड़ों की लड़ाई
6 – विदा की लड़ाई
7 – महला- हरण
8 – मलखान का विवाह
9 – गंगा- घाट की लड़ाई
10 – ब्रह्मा का विवाह
11 – नरवर गढ़ की लड़ाई
12 – ऊदल की कैद
13 – चंद्राबलि की चौथी की लड़ाई
14 – चंद्रावली की विदा
15 – इंदल हरण
16 – संगल दीप की लड़ाई
17 – आल्हा की निकासी
18 – लाखन का विवाह
19 – गाँ की लड़ाई
20 – पट्टी की लड़ाई
21 – कोट कामरु की लड़ाई
22 – बंगाले की लड़ाई
23 – अटक की लड़ाई
24 – जिंसी की लड़ाई
25 – रुसनी गढ़ की लड़ाई
26 – पटना की लड़ाई
27 – अंबरगढ़ की लड़ाई
28 – सुंदरगढ़ की लड़ाई
29 – सिरसागढ़ की लड़ाई
30 – सिरसा की दूसरी लड़ाई
31 – भुजरियों की लड़ाई
32 – ब्रह्म की जीत
33 –बौना चोर का विवाह
34 –धौलागढ़ की लड़ाई
35 –गढ़ चक्कर की लड़ाई
36 –ढ़ेबा का विवाह
37 –माहिल का विवाह
38 –सामरगढ़ की लड़ाई
39 –मनोकामना तीरथ की लड़ाई
40 – सुरजावती हरण
41 –जागन का विवाह
42–शंकर गढ़ की लड़ाई
43 –आल्हा का मनौआ
44 –बेतवा नदी की लड़ाई
45 –लाखन और पृथ्वीराज की लड़ाई
46 –ऊदल हरण
47 –बेला का गौना
48 –बेला के गौने की दूसरी लड़ाई
49 – बेला और ताहर की लड़ाई
50 – चंदन बाग की लड़ाई
51 – जैतखम्ब की लड़ाई
52 – बेला सती
आल्हा गाने का इस प्रदेश मे बड़ा रिवाज है। गांंव- देहात में लोग बडी संख्या में आल्हा सुनने के लिए जमा होते हैं। शहरों में भी कभी-कभी यह मण्डलियॉँ दिखाई दे जाती हैं।
राजा परमालदेव चन्देल खानदान का आखिरी राजा था। तेरहवीं शाताब्दी के आरम्भ में वह खानदान समाप्त हो गया। महोबा जो एक मामूली कस्बा है उस जमाने में चन्देलों की राजधानी था। महोबा की सल्तनत दिल्ली और कन्नौज से आंखें मिलाती थी। आल्हा और ऊदल इसी राजा परमालदेव के दरबार के सम्मनित सदस्य थे।
यह दोनों भाई अभी बच्चे ही थे कि उनका बाप जसराज एक लड़ाई में मारा गया। राजा को अनाथों पर तरस आया, उन्हें राजमहल में ले आये और मोहब्बत के साथ अपनी रानी मल्हिना के सुपुर्द कर दिया। रानी ने उन दोनों भाइयों की परवरिश और लालन-पालन अपने लड़के की तरह किया। जवान होकर यही दोनों भाई बहादुरी में सारी दुनिया में मशहूर हुए। इनकी वीरता के कारनामों ने महोबे का नाम रोशन कर दिया है।
आल्हा और ऊदल राजा परमालदेव पर जान कुर्बान करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। रानी मल्हिना ने उन्हें पाला पोसा इस लिये नमक के हक के साथ-साथ इन एहसानों और सम्बन्धों ने दोनों भाइयों को चन्देल राजा की जान का रखवाला और राजा परमालदेव का वफादार सेवक बना दिया था। उनकी वीरता के कारण आस-पास के सैकडों घमंडी राजा चन्देलों के अधीन हो गये।
महोबा राज्य की सीमाएँ नदी की बाढ़ की तरह फैलने लगीं और चन्देलों की शक्ति दूज के चॉँद से बढ़कर पूरनमासी का चॉँद हो गई। यह दोनों वीर कभी चैन से न बैठते थे। रणक्षेत्र में अपने हाथ का जौहर दिखाने की उन्हें धुन थी। सुख-सेज पर उन्हें नींद न आती थी। और वह जमाना भी ऐसा ही बेचैनियों से भरा हुआ था। उस जमाने में चैन से बैठना दुनिया के परदे से मिट जाना था। बात-बात पर तलवांरें चलतीं और खून की नदियॉँ बहती थीं। यहॉँ तक कि शादियाँ भी खूनी लड़ाइयों जैसी हो गई थीं।
आल्हाखण्ड के योद्धाओं का परिचय
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल
सांस्कृतिक बुन्देलखण्ड – अयोध्या प्रसाद गुप्त “कुमुद”
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