Bhayo Mai Bajigar Ko Bandara
भयो मैं बाजीगर को बँदरा।। टेक।।
भवसागर में भूलि परौ मैं, विषय बड़ो अगरा।। 1।।
मैं नाचत प्रभु मोहिं नचावत, हुकुम धनी का जबरा।
आशा डोरि गुदी में बांधि, भरमि फिरौं सिगरा।। 2।।
मोह की ढाल क्रोध डुगडुगी, बाजत दोऊ तरा।
नाचत लोभी नचावत माया, मदन मन्द अँधरा।। 3।।
नाच्यौ जन्म जन्म मैं बहुविध, केहु न मुहिं अदरा।
सुख संगी मेरे बली संगाती, सबहुन मोहिं अदरा।। 4।।
नाच्यौ नाच मैं युग युग, भमि भमि बिगरा।
अब नहिं नाचि सकौं क्षण एकौ, दुखित मोर पगरा।। 5।।
अब हिय हारि शरन तेरी आयो, नाचि कूदि उबरा।
दास ‘मुकुन्द’ दीन होय भाषे, लेहु मोर मुजरा।। 6।।
मैं तो बाजीगर का बंदर हो गया हूँ। भवसागर में आकर मैं अपने मूल स्वरूप को भूल गया हूँ, यहाँ की विषय बाधा बड़ी गंभीर है। मैं नाच रहा हूँ और मेरे प्रभु मुझे नचा रहे हैं। धनी का हुकुम जबरदस्त है। आशा की डोर मेरी गुदी में बंधी है और भ्रमित-सा मैं चारों ओर घूम रहा हूँ। मोह की ढोल और क्रोध की डुगडुगी दोनों निर्मुक्त हो बज रहे हैं।
लोभ नाच रहा है और माया उसे नचा रही है। कुबुद्धि के कारण काम अंधा हो गया है। इस प्रकार मैं जन्म जन्मान्तर से कई प्रकार से नाच रहा हूँ। कोई भी आदर नहीं देता। जबकि इस माया में मेरे संगी साथी जो सुख-दुख महसूस करते हैं, वे सब लोग जरूर मुझे आदर प्रदान करते हैं।
युगों-युगों से मैं नाच रहा हूँ। बार-बार घूमकर भ्रमित होकर मैं बिगड़ गया हूँ। लेकिन अब मैं एक क्षण के लिए भी नहीं नाच सकता। अब मेरे पैर दुखने लगे हैं। हे प्रभु! अपना हृदय हारकर अब मैं आपकी शरण में आ गया हूँ। सारी कूद-फांद से मैं ऊब गया हूँ। मैं आपका दास ‘मुकुन्द’ दीन हीन हो यह प्रार्थना कर रहा हूँ कि हे प्रभु ! मेरा प्रणाम स्वीकार करो।
रचनाकार- श्री मुकुंद स्वामी का जीवन परिचय