Baal kar deepak baal baithee ratibhaun, maun,
saun se shareer son prabha hoo saratee rahee.
hiy hulasant kant aaye pa ikant tinhen,
unake hiy mein anant pyaar bharatee rahee.
रतिप्रीतिका नायिका
बाल कर दीपक बाल बैठी रतिभौन, मौन,
सौन से शरीर सों प्रभा हू सरती रही।
हिय हुलसंत कंत आये पा इकंत तिन्हें,
उनके हिय में अनंत प्यार भरती रही।।
चढ़ि पर्यंक प्रिय अंक बीच जायि बैठी,
दीपक बुझाय तम स्वयं हरती रही।
लंकन सों ठेलि प्रतिघातन कों झेलि झेलि,
अंगन सकेलि रस-केलि करती रही।।
नवयौवना रति भवन में दीपक जलाकर चुपचाप बैठी है उसके स्वर्णिम शरीर से मनोहर आभा बिखर रही हैं। एकान्त पाकर प्रियतम हृदय में उत्साह लिये हुए आ गये। प्रियतमा ने उसके हृदय में नेह की धारा आराम से प्रवाहित कर दी।
फिर पलंग पर चढ़कर प्रियतम की गोद में जाकर बैठ गई। उसने दीपक शान्त कर दिया और प्रेम के प्रकाश से प्रियतम के हृदय को प्रकाशित करती रही। रति क्रिया के घात-प्रतिघातों को आनंदित मन से सहते हुए कमर की ठेलम-ठेल की क्रीड़ा चलती रही। वह अपने सभी अंगों को सिकोड़कर काम क्रीड़ा का रस लेती रही।
प्रेम की पियासी थी प्रिया की पिया बाँह गही,
मुँइयाँ छुई तौ छुइमुइ सी कुम्हला गई।
होठन की चोटन ने ऐसे कपोल करे,
देख जिन्हें कंजन की लालिमा लला गई।।
चंचल दृग निमिष में ही लगे निमीलित कंज,
कुच पै करन की कला सी सी कहला गई।
वसन वधैया उन डोरन की छोरन तौ,
तन के सब छोरन कों छन में छला गई।।
प्रियतमा के हृदय में प्रेम की प्यास जागी और उसने अपने प्रियतम का हाथ अपने हाथ में लेकर इस चाह की अभिव्यक्ति की। प्रियतम ने उसके मनोहर चेहरे को छुआ ही था कि छुई मुई की तरह वह संकोच में कुम्हलाने लगी। फिर प्रियतम ने अपने होठों से क्रीड़ा के बीच ही नायिका के गालों पर चुम्बन आदि की चोटों से इतना लाल कर दिया कि कमल की लालिमा भी फीकी लगने लगी।
क्षण भर में ही चंचल नेत्र बंद होते कमल की तरह निमीलित होने लगे और स्तनों पर प्रियतम के हाथों की क्रियाओं ने प्रियतमा के मुँह से सी-सी की मोहक ध्वनि निकल गई। वस्त्रों को बाँधने वाली डोरी खोले जाने पर शरीर के सभी बंधन खुल गये और क्षण मात्र में प्रियतमा का तन प्रियतम का हो गया।
रचनाकार – पद्मश्री दो अवध किशोर जड़िया