तुमने मोह टोर दओ सैंयां, खबर हमारी नैंयां।
कोचन में हो निबकन लागीं, चुरियन छोड़ी बइयां।
सूकी देह छिपुरिया हो गई, हो गए प्रान चलैयां।
जे पापिन ना सूखी अंखियां, भर-भर भरी तलैयां।
उन्हें मिलादो हमें ईसुरी, लाग लाग कें पैयां।
नायिका कहती है कि विरह ताप में मैं इस तरह जल रही हूँ कि मेरी देह सूखकर छिपुरिया ( लकड़ी की ऊपरी परत ) हो रही है।
हड़रा घुन हो गए हमारे,सोचन रजऊ तुमारे।
दौरी देह दूबरी हो गई,करकें देख उगारे।
गोरे अंग हतै सब जानत,लगन लगे अब कारे।
ना रये मांस रकत के बूंदा, निकरत नई निकारे।
इतनउ पै हम रजऊ को ईसुर, बने रात कुपियारे।
इसी तरह नायिका के विछोह में नायक की बुरी दशा का वर्णन करते हुए ईसुरी कहते है कि मेरे हांड़ घुन गए हैं, देह दुहरी हो दुर्बल हो गई है। गोरा रंग काला पड़ गया है। शरीर का मांस जल चुका है, खून सूख गया है- फिर भी रजऊ के लिए हम बुरे बने हैं।
संयोग की सुखद स्मृतियाँ और वियोग की दुःखद पीड़ा एक दूसरे से विलोभात्मक अद्वितीय है। कहा जाता है कि सुख के दिन कब गुजर जाते हैं पता ही नहीं चलता, किन्तु दुख के दिन काटे नहीं कटते हैं और जो पीड़ा, जो वेदना इन दिनों में भोगनी पड़ी होती है, उसे भुलाना चाहते हुए भी भुला नहीं पाते हैं।
हींसा परे आगले मेरे, रजऊ नैन दुई तेरे।
जां हम होवें मईखां हेरो, अन्त जाय ना फेरे।
जब देखों तब हम खां देखो, दिन में सांज सबेरे।
ईसुर चित्त चलन ना पावे, कबहुं दायने डेरे।
ईसुरी रज्जू राजा के बिरह में इतने आसक्त थे कि जड़-चेतन सर्वत्र में रजऊ को देखने लगे और सारा जग उन्हें रजऊमय दिखने लगा। वे पेड़-पत्ती, फूल-फल जल-थल, नभ सभी में रजऊ की छवि देख रहे थे और सदैव रजऊ के होकर जीना चाह रहे थे। उन्होंने इतनी चाहत पाल रखी थी कि अगर उसकी विवेचना की जाय तो उनके प्रेम के पर्याय से चराचर भी कम पड़ जाय। उनके कल्पना की उड़ान देखिये।