बुंदेलखण्ड में प्रचलित लोकरागिनी Bundelkhand Ki Sair Lok Gayki का उद्भव 18 वीं शती के उत्तरार्द्ध में हुआ था और वह 20 वीं शती के पूर्वार्द्ध तक लगभग दो सौ वर्ष लोकमानस में छायी रही। सैरकारों ने इस लोकगायकी को उत्कर्ष तक ही नहीं पहुँचाया , वरन् सैर की झूमका शैली, गम्मत और फड़बाजी को भी विकास दिया।
सैर शोभधर छंद का अपभ्रंश और काव्यप्रभाकर के ‘राधिका‘ और ‘कुण्डल‘ छंदों से मिलता-जुलता है। इसमें बारह और दस की यति से 22 मात्राएँ होती हैं तथा चार चरण होते हैं। सैर की झूमका शैली का प्रवर्तन द्विज रामलाल ने ही किया था, जिसका अनुसरण अन्य सैरकारों ने करते हुए सैरों की रचना की। उन्होंने सैरों में प्रबंधों की रचना की थी और उसी परम्परा में सैरों के लोकप्रबंध लिखने की गति मिली।
जहाँ तक सैरों की गम्मत और फड़बाजी का प्रश्न है, उसके प्रामाणिक साक्ष्य मिलते हैं। भग्गी दाऊ जू की लिखी एक पंक्ति गवाह है- ‘मऊवारिन का ओड़छे में चंग छुड़ाया’। आशय यह है कि उन्होंने ओरछा के सैर-दंगल में मऊरानीपुर सैर-मण्डल को पराजित किया था। स्पष्ट है कि सैरों की गम्मत और फड़बाजी पहले ही शुरू हो चुकी थी।
द्विजकिशोर ने अपने ग्रंथ- पढ़ते किशोर सिहिर ढोलक बाजै गत की। इससे सिद्ध है कि सैरों की ‘गम्मत‘ शुरू हो चुकी थी। फड़ में प्रतियोगी दलों के गायक आमने-सामने बैठते हैं। ‘गम्मत’ में ढोलक, चंग, मंजीरा आदि लोकवाद्य प्रयुक्त होते हैं। दल का कोई गायक पहले अपने सुरीले कण्ठ से आलाप का सुर उठाता है और उसके साथी वाद्य बजाते हैं। फिर वह दोहा या सोरठा अथवा छंद का गायन करता है और सुमिरनी का सैर गाता है।
वह सैर की एक पंक्ति मध्य लय में गाता है और उसे दल के शेष गायक दुहराते हैं। इस दुहराने में सुगम रूप से दून-तिगुन दी जाती है। सुमिरनी या वंदना के बाद प्रथम दल किसी विषय (नायिका-भेद, पौराणिक कथा या काव्य-लक्षण आदि) के संबंध में सैर द्वारा प्रश्न उठाता है, जिसका उत्तर दूसरे दल को सैर में ही देना अनिवार्य-सा है।
यदि उत्तर नहीं बनता है, तो दूसरा दल प्रतियोगिता में विजयी ठहरता है। यह प्रतियोगिता का फड़ दो-तीन दिन तक भी चलता है। इस फड़ के केन्द्र हैं छतरपुर, मऊरानीपुर, झाँसी, बिजावर, टीकमगढ़ आदि।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल