बुन्देलखण्ड की Chhandyau Launi Fag का यह फागरूप विभिन्न छन्दों के प्रयोग से उदित हुआ है। वर्तमान में प्रचलित इस फाग में टेक चैकड़िया की होती है, फिर छन्दसांगीत के नाम से विभिन्न छन्दों की योजना की जाती है। दोहा, सोरठा, लाउनी, कवित्त, सवैया आदि छन्द मुख्य रूप से अपनाये गए हैं। लावनी की रंगतों के प्रभाव से लाउनी की फाग भी कहा जाता है।
उसके बाद उड़ान में 12 मात्रा की चैकड़िया की परार्द्ध पंक्ति होती है। फागकार भुजबल सिंह ने उड़ान में नए प्रयोग किए हैं, कभी-कभी चैकड़िया की पूरी पंक्ति दे दी है। उड़ान के बाद फिर टेक, इस तरह फाग का यह रूप काफी लम्बा हो जाता है।
फाग की फड़ों में होड़ का प्रमुख आधार छन्दयाऊ फाग ही है। काव्यत्व और संगीत का जितना सुंदर समन्वय इन फागों में दिखाई पड़ता है, अन्यत्र नहीं। दोनों पक्षों में शास्त्रीय प्रवृत्ति के प्रति अधिक लगाव रहता है, पर जहाँ छन्द प्रयोग में शास्त्रीय बन्धन है, वहाँ लोकछन्दों की स्वच्छंदता भी और संगीत का रूढ़िबद्ध नियन्त्रण है, वहाँ नयेपन के लिए छूट भी। इन सबके बाबजूद यह फागरूप अपनी अलग गायन शैली और लय का एक निश्चित रूप रखती है, जिससे वह बँधी रहती है।
बुंदेली भाषी क्षेत्र बहुत विस्तृत है, अतएव उसमें भिन्नताएँ स्वाभाविक हैं। यह उसका सबसे निर्बल पक्ष है। वस्तुतः उनकी विविधताओं का अनुशीलन तटस्थ वैज्ञानिक दृष्टि से किया जाना चाहिए। संभव है कि विविधताओं से एकरूपता का मार्ग खोजा जा सके। लेकिन यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि यह शास्त्रीय तत्वों की खोज कहीं अगली कलाकार पीढ़ी को रूढ़िग्रस्त न कर दे।
बुँदेली फागों की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उनका फागरूप और गायकी सदैव गतिशील रही है। दादरा, लाउनी, लेद आदि विभिन्न गायनशैलियों को पचाकर वह आगे बढ़ती रही है और मैं समझता हूँ कि शास्त्रीय संगीत में यह क्षमता कम मिलती है। आजकल यह फागगायकी काफी व्यापक रूप ग्रहण कर रही है, पर कलाकार को सतर्क रहना आवश्यक है। कहीं ऐसा न हो कि बुंदेली फागगायकी अपने उस मूल आधार से हट जाए, जो उसका प्राण है, उसकी आत्मा है।
इनकी बड़ी मोहनी भाका, चलै अँगाऊँ साका।
इनकी कहन लगत औरन कों गोली कैसौ ठाँका।
बैठे रऔ सुनौ सब बेसुध खेंचें रऔ सनाका।
दूनर होत नचनियों फिर-फिर मईं कौ जात छमाका। और,
बुंदेली फागन की दिन-दिन, लोकन उड़ै पताका।
इन फागों में चैकड़िया फाग की टेक रखी जाती है। बाद में दोहा और लावनी आदि छन्दों को योजना करके बीच-बीच में टेक के रूप में चैकड़िया की कड़ियाँ रखी जाती हैं।
टेक- मुरली अधर तान धर गाई, रही सकल जग छाई
छंद- श्री नन्दलाल जे किया ख्याल,
कर रए निहाल गाते गाने झट चली नार,
जे लाज टार तज दये सिंगार हर के लाने।
उड़ान- सो कालिंदी तट जाई लाल
टेक- नाक की नथनी कान से तिलरी सीस लगाई
छंद- गृह जन की कान, तज दई आन,
जा कही कान काहे आई।
कही ऐसी तान लगी हृदय आन,
आ गए ज्ञान, लख ललचाई।
उड़ान- दीने रहस रचाई लाल
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल