Homeबुन्देली संस्कारBundeli Lok Sanskar बुन्देली लोक संस्कार

Bundeli Lok Sanskar बुन्देली लोक संस्कार

बुन्देलखण्ड के मानव जींवन की शुद्धि की धार्मिक क्रियाओं को Bundeli Lok Sanskar कहा जा सकता है। व्यक्ति के दैहिक , मानसिक और बौद्धिक परिष्कार के लिए किये जाने वाले अनुष्ठान संस्कार होते हैं। ऐसी मान्यता है कि संस्कारों के सविधि अनुष्ठान से संस्कृत व्यक्ति में विलक्षण तथा अवर्णनीय गुणों  का प्रभाव होता जाता है।

संस्कारों में तीन कर्म सम्पन्न होते हैं…।
3- दोष मार्जन
2- अति शयाघान
3- हीनागपूर्ति

प्रकृति के द्वारा पैदा किये गये पदार्थ में कोई  दोष हो तो उसे दूर करना दौषमार्जन संस्कार होता है। व्यक्ति या पदार्थ को अधिक उपयोगी बनाने के लिये उसमें कुछ  विशेषता उत्पन्न कर देना अति शयाधान संस्कार होता है। फिर भी कोई त्रुटि शेष हो तो उसको दूर करने के उपाय या क्रिया को हीनापूति संस्कार कहते हैं।

‘षोडश संस्कार’ को विद्धानों की सर्व मान्यता प्राप्त है। ये इस प्रकार हैं…। 
1- गर्भाधान
2- पुंसवन
3- सीमान्तो नयन
4- जातकर्म
5- नामकरण
6- निष्क्रण
7-अन्न प्राशन
8-चूर्णाकर्म
9-कर्णभेद
10-उपनयन
11-वेदारम्य/विधारम्य
12 – समावर्तन
13-विवाह
14-वानप्रस्थ
15-सन्‍यास
16-अत्येष्टि

बुन्देली लोक संस्कार इन्हीं संस्कारों से मिलते जुलते हैं। बुन्देली लोक समाज में सामान्यतः लोकसंस्कारों की परम्परा निम्नांकित है…। 

1 -पुंसवन संस्कार – फूल चौक
2 -विवाह संस्कार
3 -गौना संस्कार
4 -अगन्ना संस्कार
5 -मुण्डन संस्कार
6 -जनेऊ/उपनयन संस्कार
7- अत्येष्टि संस्कार

1 – फूल चौक पुसंवन संस्कार
बुन्देली लोक संस्कारों में पुंसवन  संस्कार का प्रचलन है। इसको लोक भाषा में “फूल चौक कहते हैं। जब युवती वधु बन कर ससुराल में आती है और ससुराल में प्रथम बार “मासिक धर्म” से होती है उसके ‘ऋतुस्नान” के बाद चौक में बैठाकर पूजन क्रिया की जाती है। इस चौक पूजन को ‘फूल चौक ‘ पुकारा जाता है। वधु के सिर पर पानी मे फूले चने डाले जाते हैं ।

2 – विवाह संस्कार
जीवन का यह सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। इस संस्कार में अनेक कार्यक्रम सम्पन्न होते है। विवाह संस्कार की प्रथम रस्म फलदान होती है। फिर सगाई कार्यक्रम होता है। कहीं फलदान की रस्म धूमधाम से मनाई जाती है और कहीं बारात जाने के पहले निकासी होती है। विवाह संस्कार की तिथि निश्चित हो जाने पर कन्यापक्ष वर पक्ष को सुतकरा भेजता है।

सुतकरा एक प्रकार से विवाह कार्यक्रम की सूचना है।  उसे पुरोहित (पंडित) लिख कर तैयार करते हैं।  वर पक्ष की ओर से कन्या पक्ष के घर बारात आती है बुंदेली में बरात आगमन को अगौनी  कहते हैं दूल्हा और दुल्हन को सजाया जाता है टीका भाँवर , पलका चार,  कुंवर कलेवा, पंच डेरा आदि  रस्मो को संपन्न किया जाता है इन सब में मूल रस्म है भाँवर जिसे बुंदेली में भाँवरें  कहते हैं।

3 – गौना संस्कार
विवाह के पश्चात्‌ जब विवाहिता कन्या अपनी ससुराल (प्रथमबार) जाती है इस प्रथा को गौना या गवना कहते हैं। गवना या गौना विवाह के पश्चात एक या तीन या पांच वर्षों के अन्तराल से होता है। गौना प्राय: फात्गुन महीने में कराना प्रशस्त माना जाता हैं | किसी शुमदिन वर अपने सगे संबंधियों के साथ गौना कराने जाता है।

गौने में विशेष बात है कि वर के पिता को वर के साथ जाना निषिद्ध होता है। वर जब बहू को लेकर अपने घर पहुंचता है तो वह अपनी पत्नी के साथ बांस की बनी ”छबड़ी ‘” में पैर रखता है। इसे  “दौरा ” रस्म कहते हैं। बॉस को वंश संतति  का प्रतीक माना जाता है। इसमें पैर रखना संतान -उत्पत्ति की सहमति का घोतक है। कंकण मोचन के बाद गवना की विधि पूरी होती है। फिर पति पत्नी का मिलन होता है। अब बड़ी आयु में लड़के लड़कियों के विवाह प्रार॑म्म हो गये हैं। अतः गौना संस्कार का महत्व भी कम होता जा रहा है।

4- अगन्ना सस्कार
बहू के गर्भधारण के 8 वां माह पूरा होने पर 9 वां माह प्रारंभ होने पर ‘अगन्ना संस्कार’ सम्पन्न किया जाता है। गर्मवती बहू और उसके पति को जोड़ी से एक चौक पर बैठाया जाता है। मांगलिक मन्त्रोचार के साथ – दोनों के सिर पर “बिला” डाले जाते हैं। बिला अर्थात्‌ ” अंकुरित चना। पेड़ा और नौ प्रकार के पकवान बनाकर गर्भवती बहू की गोदी भरी जाती है। आंगतुको को “’बुलउआ/’ अर्थात भेंट जिसमें बतासा, लड्डू आदि होते हैं ।

देवर भाभी  के कान में वंशी बजाता है। ऐसा समझा जाता हैं “गर्म ” में स्थित शिशु का यह जन्म लेने के पूर्व का स्वागत और आगमन हेतु माँगलिक आमंत्रण है। इसलिए इसका नाम अगन्ना  पड़ा है इस अवसर पर विशेष गीत गाए जाते हैं

5 – मुंडन संस्कार
शिशु के जन्म के विषम वर्षो में अर्थात्‌ एक,तीन पांच सात नौ आदि में मुण्डन संस्कार किया जाता है। इस संस्कार के पूर्व “केश” कटवाने को शुम नहीं माना जाता है। इस संस्कार मे मुख्य कार्य तो बालक के केशों को उस्तरे द्वारा सिर से उतार देना है । किन्तु इस कर्म के पूर्व मांगलिक पूजन आदि होता है। प्रत्येक समाज में अलग-अलग स्थान निश्चित है, जहां बालक बालिका के माता-पिता, संगे-संबंधी के साथ जाकर यह संस्कार सम्पन्न कराते हैं।

प्रायः केदारेश्वर, उन्‍नाव, बालाजी, ओरछा, अछरूमाता, कृण्डेश्वर अक्षरादेवी आदि देव स्थानों में मुण्डन संस्कार सम्पन्न कराया जाता है। बालक के कटे हुए बालों को ‘बुआ’ अपने हाथों में लेती हैं। फिर उन्हें आटे की लोई में गूंथकर किसी नदी में बहा दिया जाता है। ‘बुआ’ को सात मीठे बुआ दिये जाते है। इस दान विशेष का नाम “सता” है। इसे नेंग कहते हैं।

नाई को दक्षिणा दी जाती है। कुछ परिवारों में मैर की पूजा के साथ मुण्डन संस्कार होता है। बालक के जन्म के बाद घर परिवार में जब पहला विवाह संस्कार होता है उसी में बालक का मुण्डन संस्कार करा लिया जाता है। महिलायें इस संस्कार में गीत विशेष गाती है।

6 – उपनयन” अथवा ‘जनैऊ” संस्कार
बुन्देलखण्ड में उपनयन संस्कार को लोक भाषा में ‘जनेऊ होना’ कहते हैं। यह संस्कार भी बालक के जन्म के विषम वर्षों में सम्पन्न होता है। प्राचीन काल में ‘जनेऊ’ के बाद ही बालक “गुरू के पास पढ़ने जाते थे। इसलिये इसे उपनयन संस्कार भी कहते हैं ।

जनेऊ संस्कार के समय भी उस्तरे से बालों को उतारा जाता है। नाखून काटे  जाते हैं। शरीर में हल्दी तैल लगाया  जाता है। बालक को शिक्षा दी जाती कि वह दिन में सोयेगा नहीं, पेड़ पर चढ़ेगा नहीं, स्त्रियों से मेल मिलाप नहीं बढ़ायेगा। यह संस्कार एक प्रकार से अध्ययन के समय ब्रहमचारी जीवन व्यतीत करने के लिए संकल्पित कराने वाला संस्कार है।

लगभग 10-15 वर्ष के तपस्वी जीवन के लिए प्रतिज्ञा करना और सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धान्त से प्रतिबद्ध होने की प्रेरणा देने वाला संस्कार है। इस अवसर भी लोक गीतों को गाया जाता है।

7- अत्येष्ठि या अतिय सस्कार
यह जीवन का अंतिम संस्कार है। प्राय: सभी जगह यह संस्कार प्रचलित है। इस संस्कार को बुन्देली भाषा में “अंतिम संस्कार कहते है। कहीं कहीं – इसे दाहसंस्कार भी कहते है। जब किसी व्यक्ति के जीवन के अंतिम क्षण आने लगता है, जीवित रहने की आशा क्षीर्ण हो जाती है। उसी समय से इस संस्कार की क्रिया प्रारम्म हो जाती है।

इस संस्कार के सर्वप्रथम व्यक्ति को खटिया या चारपाई या पलंग से उठाकर जमीन में लेटा दिया जाता है। इसे “भूमि सेन पर आना भी कहते हैं। इसी अवस्था में व्यक्ति के मुंह में गंगा जल तुलसी दल डाला जाता है। सम्पन्न लोग उस व्यक्ति से दान पुण्य भी कराते हैं। गाय दान को सबसे श्रेष्ठ दान माना जाता है। इसे गोदान कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि इससे व्यक्ति की मृतात्मा ‘वैतरणी’ नामक नदी को आसानी से पार कर लेती है।

जब व्यक्ति के देह से प्राण तत्व निकल जाता है तो मात्र मृतशरीर ही शेष रहता है। इस मृत्य शरीर को बुन्देली लोक भाषा में ‘मट्टी’ कहते हैं। इस ‘मट्टी’ का पंडित पूजन आदि कराते है। शरीर पर पिण्ड रखे जाते हैं। बांस की अर्थी सजाई जाती है। उस पर कांस आदि विछाया जाता है। ‘मट्टी’ को ”अर्थी’ पर रख दिया जाता है।

पंचों और समाज के साथ ”शवयात्रा” निकाल कर ‘अर्थी’ को दाहसंस्कार के स्थल पर ले जाते हैं। दाहसंस्कार स्थान निवास स्थान से दूर खेत बगीचे , कंआ आदि के पास ही निश्चित किये जाते हैं। यहां लकड़ियों की “चिता बनाई जाती है। उस पर ‘शव’ को रख दिया जाता है। इसके बाद पंडित पूजन आदि की क्रिया कराते हैं।

चिता प्रायः आम, बेल, करघई, महुआ आदि लकड़ी से बनाई जाती है सम्पन्न परिवार के लोग चिता बनाने के लिए चंदन लकड़ी की व्यवस्था भी करते हैं। प्राय: व्यक्ति का ज्येष्ठ या कनिष्ठ पुत्र ही चिता को मुख्य अग्नि देता है। इसे बुन्देलखण्ड में क्रिया करना कहते हैं। “क्रिया’ करने वाले को कई नियमों का पालन करना पढ़ता है। जैसे दस दिनों तक शरीर पर तेल न लगाना, हजामत न बनाना, जूता न पहनना बिना तलाभुना सादा भोजन करना।

जिस स्थान पर व्यक्ति प्राण त्यागता है उस स्थान पर 33 दिन तक दीपक जलाया जाता है। पीपल के पेड़ के नीचे दिया जलाया जाता है। फिर ग्याखीं या त्रियोदशी की जाती है। इस समय दान पुण्य भी किया जाता है।

इस दान पुण्य में बुन्देलखण्ड में प्रायः एक कलश (या लोटा) जनेऊ गीता , चंदन की राम जपनी की  माला और एक तौलिया आदि दिये जाते हैं। पंडित को चारपाई , चारपाई के वस्त्र, पांच या सात बर्तन आदि दान में दिये जाते हैं। इस क्रिया को ”श्राद्धकर्म” कहते हैं “श्राद्ध कर्म के साथ “अंतिम संस्कार’ का विधान पूरा होता है।

According to the National Education Policy 2020, it is very useful for the Masters of Hindi (M.A. Hindi) course and research students of Bundelkhand University Jhansi’s university campus and affiliated colleges.

बुन्देली लोक संस्कृति 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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